शाम-ओ-सुब्ह तेरे ग़म में गुज़र जाते हैं
ख़्वाब बसते नहीं और ज़ख़्म ठहर जाते हैं
बात निकले तो ज़रा बज़्म-ए-सुख़न में उसकी
बात की बात में नग़मात बिखर जाते हैं
ग़ोर-ओ-अर्श मु'अय्यन हैं जिस्म-ओ-रू: के लिए
देखना है, मेरे अरमान किधर जाते हैं
ज़िक्र-ए-माशूक़ से अश'आर में जां आती है
ज़िक्र-ए-अल्लाह से आमाल संवर जाते हैं
याद रक्खेंगे ये: मेहमान-नवाज़ी तेरी
तश्न:-लब आए थे हम, दीद:-ए-तर जाते हैं
वो: जो जज़्बात की करते हैं तिजारत अक्सर
रहते हैं अपनी जगह, दिल से उतर जाते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बज़्म-ए-सुख़न: साहित्यिक गोष्ठी; नग़मात: गीत ( बहु.); ग़ोर-ओ-अर्श: क़ब्र और परलोक;
मु'अय्यन: सुनिश्चित; जिस्म-ओ-रू:- शरीर और आत्मा; ज़िक्र-ए-माशूक़: प्रिय का उल्लेख;
ज़िक्र-ए-अल्लाह: ईश्वर का उल्लेख; आमाल: आचरण; तश्न:-लब: प्यासे होंठ; दीद:-ए-तर: भीगे
नयन; जज़्बात: भावनाएं; तिजारत: व्यापार।
* मक़्ते का मिसरा-ए-सानी मेरी अम्मी मरहूम अल्लाह बख्शे, मोहतरिमा रतन बाई खडग साहिबा की नवाज़िश है।
ख़्वाब बसते नहीं और ज़ख़्म ठहर जाते हैं
बात निकले तो ज़रा बज़्म-ए-सुख़न में उसकी
बात की बात में नग़मात बिखर जाते हैं
ग़ोर-ओ-अर्श मु'अय्यन हैं जिस्म-ओ-रू: के लिए
देखना है, मेरे अरमान किधर जाते हैं
ज़िक्र-ए-माशूक़ से अश'आर में जां आती है
ज़िक्र-ए-अल्लाह से आमाल संवर जाते हैं
याद रक्खेंगे ये: मेहमान-नवाज़ी तेरी
तश्न:-लब आए थे हम, दीद:-ए-तर जाते हैं
वो: जो जज़्बात की करते हैं तिजारत अक्सर
रहते हैं अपनी जगह, दिल से उतर जाते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बज़्म-ए-सुख़न: साहित्यिक गोष्ठी; नग़मात: गीत ( बहु.); ग़ोर-ओ-अर्श: क़ब्र और परलोक;
मु'अय्यन: सुनिश्चित; जिस्म-ओ-रू:- शरीर और आत्मा; ज़िक्र-ए-माशूक़: प्रिय का उल्लेख;
ज़िक्र-ए-अल्लाह: ईश्वर का उल्लेख; आमाल: आचरण; तश्न:-लब: प्यासे होंठ; दीद:-ए-तर: भीगे
नयन; जज़्बात: भावनाएं; तिजारत: व्यापार।
* मक़्ते का मिसरा-ए-सानी मेरी अम्मी मरहूम अल्लाह बख्शे, मोहतरिमा रतन बाई खडग साहिबा की नवाज़िश है।
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