तेरी नवाज़िशों पे हमें फ़ख़्र क्यूं न हो
तू है ख़ुदा तो दो जहां में ज़िक्र क्यूं न हो
आज़ार-ए-दिल बढ़ा गए नज़रें मिला के: वो:
इस कीमियागरी पे हमें उज्र क्यूं न हो
तेरी हर एक बात पे करते हैं हम यक़ीं
तेरी अदा में गो फ़रेब-ओ-मक्र क्यूं न हो
सज्दे में इसलिए हैं के: सालिम रहे ईमां
होना है बग़लगीर वहां, सब्र क्यूं न हो
कहता हूं और कहता रहूंगा मैं 'अनलहक़'
फिर हज़रत-ए-मंसूर सा ही हश्र क्यूं न हो।
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: नवाज़िश: प्रतिदान, देन; फ़ख़्र: गर्व; ज़िक्र: उल्लेख; आज़ार-ए-दिल: दिल की बीमारी;
कीमियागरी: रसायन-चिकित्सा; उज्र: आपत्ति; सालिम: परिपूर्ण; ईमां: आस्था;
बग़लगीर: पार्श्व में खड़े होना ; सब्र: धैर्य; 'अनलहक़': 'अहं ब्रह्मास्मि', 'मैं ही ख़ुदा हूं';
हश्र: परिणति।
तू है ख़ुदा तो दो जहां में ज़िक्र क्यूं न हो
आज़ार-ए-दिल बढ़ा गए नज़रें मिला के: वो:
इस कीमियागरी पे हमें उज्र क्यूं न हो
तेरी हर एक बात पे करते हैं हम यक़ीं
तेरी अदा में गो फ़रेब-ओ-मक्र क्यूं न हो
सज्दे में इसलिए हैं के: सालिम रहे ईमां
होना है बग़लगीर वहां, सब्र क्यूं न हो
कहता हूं और कहता रहूंगा मैं 'अनलहक़'
फिर हज़रत-ए-मंसूर सा ही हश्र क्यूं न हो।
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: नवाज़िश: प्रतिदान, देन; फ़ख़्र: गर्व; ज़िक्र: उल्लेख; आज़ार-ए-दिल: दिल की बीमारी;
कीमियागरी: रसायन-चिकित्सा; उज्र: आपत्ति; सालिम: परिपूर्ण; ईमां: आस्था;
बग़लगीर: पार्श्व में खड़े होना ; सब्र: धैर्य; 'अनलहक़': 'अहं ब्रह्मास्मि', 'मैं ही ख़ुदा हूं';
हश्र: परिणति।
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आदरणीय सुरेश स्वप्निल जी
कमाल के शायर हैं जनाब आप तो...
इतनी देर से आपकी ग़ज़लियात में ही डूबा हूं ...
जितना पढ़ा, सब उम्दा !
:)
इस ग़ज़ल का यह शे'र बेहद पसंद आया-
कहता हूं और कहता रहूंगा मैं 'अनलहक़'
फिर हज़रत-ए-मंसूर सा ही हश्र क्यूं न हो
भई वाह !!
हार्दिक बधाई !
मंगलकामनाओं सहित...
-राजेन्द्र स्वर्णकार