वो: इश्क़ ही क्या जो रुक जाए, तूफ़ां-ए-हवादिस से डर के
ये: रूह का मसला है जानम, फिर जी उठता है मर-मर के
साक़ी की अदाओं के सदक़े, जो भी दे दे; पी लेते हैं
उस दस्त-ए-ख़ुबां के आशिक़ हैं, बीमार नहीं हम साग़र के
मस्जिद भी गए, मंदिर भी गए; अब मेहमां हैं गुरुद्वारे के
जिस दिन से तुझे मेहबूब किया, हम घर के रहे ना बाहर के
मूसा की तरह शर्मिंदा हो, पलकें न झुकाएंगे हरग़िज़
तुम सामने आ कर बैठो तो, देखेंगे तुम्हें भी जी- भर के
ख़ुद्दार तो हैं, पर यूं भी नहीं के: दर पे तेरे सज्दा न करें
तू लाख हमें तरसाता रह, मांगेंगे दुआएं ज़िद कर के !
( 2008/2013)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: तूफ़ां-ए-हवादिस: दुर्घटनाओं का तूफ़ान; सदक़े: निछावर; दस्त-ए-ख़ुबां: विशेषताओं वाला, चमत्कारिक हाथ; साग़र: मदिरा-पात्र; मेहबूब किया: प्रिय बनाया; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी।
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