इस बह्र्-ए-परीशां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
उन्वां-ए-पशेमां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
हर लफ़्ज़ में जुंबिश तो हर रूह पे मातम है
दरबार-ए-ग़रीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
ख्वाबों के सफ़र अक्सर तनहा ही गुज़रते हैं
इस शह्र-ए-अजीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
थक जाएँगी जब यादें , थम जाएँगी जब राहें
उस दौर-ए-नसीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
अश्कों में लहू बन के गिर जाएँ तो बेहतर है
बाज़ार-ए-अदीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
तकरीर से कब-किसकी तक़दीर बदलती है
जम्हूर-ए-रक़ीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये ?
( 1997 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बह्र्-ए-परीशां : परेशान लोगों का छंद, भावान्तर से दुष्काल;उन्वां-ए-पशेमां : लज्जा का शीर्षक; जुंबिश: थरथराहट; मातम: शोक; दरबार-ए-ग़रीबां: न्याय के युद्ध में असमय बलि चढ़े लोगों का दरबार;शह्र-ए-अजीबां: विचित्रताओं का शहर ; दौर-ए-नसीबां: नियति का (ऐसा) समय;बाज़ार-ए-अदीबां : साहित्यकारों का बाज़ार ; तकरीर: भाषण;जम्हूर-ए-रक़ीबां : शत्रुओं का गणतंत्र।
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