पैग़ाम भेजिए न हमें आम भेजिए
कड़की में कट रही है के: कुछ दाम भेजिएआज़ार-ए-इश्क़ ने हमें बे-काम कर दिया
उजरत न सही तो कोई ईनाम भेजिए
मुद्दत से मुब्तिला हैं ग़म-ए-रोज़गार में
दिलवा सकें अगर तो कोई काम भेजिए
बाक़ी तो नहीं आप पे कुछ क़र्ज़ हमारा
गर हो सके तो बस युंही इकराम भेजिए
जेबें फटी हुई हैं हमारी क़मीज़ की
मुमकिन हो तो क़लदार सुबह-शाम भेजिएडॉलर से कभी हमको मुहब्बत नहीं रही
मंज़ूर हैं दीनार-ओ-दिरहाम , भेजिए
कहते हैं दोबारा जो कहीं भूल जाइए
अब देर न कीजे हुज़ूर, दाम भेजिए !
( 2012 )
-सुरेश स्वप्निल
(*अज़ीम शायर जनाब अकबर इलाहाबादी साहब मरहूम से माफ़ी चाहते हुए, पिछले साल हमारे बेहद अज़ीज़ नौजवान दोस्त और इंसानी-जज़्बाती रिश्ते में हमारे साले साहब जनाब नफ़ीस अहमद के बीच हुई मज़ाहिया गुफ़्तगू में सामने आई ग़ज़ल )
शब्दार्थ: आज़ार-ए-इश्क़: इश्क़ की बीमारी; उजरत: पारिश्रमिक; इकराम: कृपा-स्वरूप उपहार; मुब्तिला: व्यस्त; क़लदार : चांदी के रुपये ।
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