सोचा के: पर लगा के उड़ें, गिर पड़े मगर
फिर दर्द से उलझते रहे सारी रात भर
जाने कहां ग़लत हुआ इस उम्र का हिसाब
रह-रह के हारते रहे जीती बिसात पर
फिर से वही जद्दो-ज़हद इन्सां बनाम भूख
फिर से वही खामोश नज़र ख़ूनी घात पर
अंधों पे लाठियां हैं तो भूखों पे गोलियां
क्या-क्या सितम हुए हैं ग़रीबों की ज़ात पर
ये: सिलसिला चलेगा अभी और कुछ दिनों
ज़र्रे दिए जलाएंगे सूरज की मात पर
फिर से हवाओं के हैं बदलते हुए तेवर
मत ऐतबार कीजिए मौसम की बात पर
पतवार थामिए के: किनारा है सामने
कब तक यूं ही बहेंगे हवा के मिज़ाज पर?
( 1980 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: जद्दो-ज़हद: संघर्ष; ज़र्रे: धूल के कण।
प्रकाशन: 'देशबंधु', भोपाल ( 1980 ) एवं अन्यत्र।
फिर दर्द से उलझते रहे सारी रात भर
जाने कहां ग़लत हुआ इस उम्र का हिसाब
रह-रह के हारते रहे जीती बिसात पर
फिर से वही जद्दो-ज़हद इन्सां बनाम भूख
फिर से वही खामोश नज़र ख़ूनी घात पर
अंधों पे लाठियां हैं तो भूखों पे गोलियां
क्या-क्या सितम हुए हैं ग़रीबों की ज़ात पर
ये: सिलसिला चलेगा अभी और कुछ दिनों
ज़र्रे दिए जलाएंगे सूरज की मात पर
फिर से हवाओं के हैं बदलते हुए तेवर
मत ऐतबार कीजिए मौसम की बात पर
पतवार थामिए के: किनारा है सामने
कब तक यूं ही बहेंगे हवा के मिज़ाज पर?
( 1980 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: जद्दो-ज़हद: संघर्ष; ज़र्रे: धूल के कण।
प्रकाशन: 'देशबंधु', भोपाल ( 1980 ) एवं अन्यत्र।
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