मैं रंज-ओ-ग़म के फ़साने सुनाऊंगा न तुम्हें
मैं रो चुका हूं - बहुत है, रुलाऊंगा न तुम्हें
गोशे-गोशे में दिल के हैं तुम्हारी तस्वीरें
मैं भीड़-भाड़ में ऐसी बिठाऊंगा न तुम्हें
तुम्हीं ने रंग भरे हैं मेरी निगाहों में
ख़्याल-ओ-ख़्वाब में क्यूं कर बसाऊंगा न तुम्हें
तमाम नज़्म-ओ-ग़ज़ल कह चुका हूं मैं तुमपे
सुना-सुना के बेवजह सताऊंगा न तुम्हें
दिए हैं ज़ख़्म-ए-वफ़ा तो दवा भी तुम ही दो
शिफ़ा के वास्ते हरगिज़ मनाऊंगा न तुम्हें !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रंज-ओ-ग़म के फ़साने : दुःख-दर्द की कहानियां; गोशा: कोना; ख़्याल-ओ-ख़्वाब: विचार और स्वप्न;
ज़ख़्म-ए-वफ़ा: निर्वाह के घाव; शिफ़ा: रोग-मुक्ति।
मैं रो चुका हूं - बहुत है, रुलाऊंगा न तुम्हें
गोशे-गोशे में दिल के हैं तुम्हारी तस्वीरें
मैं भीड़-भाड़ में ऐसी बिठाऊंगा न तुम्हें
तुम्हीं ने रंग भरे हैं मेरी निगाहों में
ख़्याल-ओ-ख़्वाब में क्यूं कर बसाऊंगा न तुम्हें
तमाम नज़्म-ओ-ग़ज़ल कह चुका हूं मैं तुमपे
सुना-सुना के बेवजह सताऊंगा न तुम्हें
दिए हैं ज़ख़्म-ए-वफ़ा तो दवा भी तुम ही दो
शिफ़ा के वास्ते हरगिज़ मनाऊंगा न तुम्हें !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रंज-ओ-ग़म के फ़साने : दुःख-दर्द की कहानियां; गोशा: कोना; ख़्याल-ओ-ख़्वाब: विचार और स्वप्न;
ज़ख़्म-ए-वफ़ा: निर्वाह के घाव; शिफ़ा: रोग-मुक्ति।
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