लोग घबरा गए, और क्या
खौफ़-सा खा गए, और क्या
रहबरों से यही थी उम्मीद
राह भटका गए, और क्या
आए तो रोज़ पुरसां-ए-हाल
ज़ख़्म सुलगा गए, और क्या
चोर के हाथ में चाभियां
दे के पछता गए, और क्या
चार दिन को हुकूमत मिली
रंग दिखला गए, और क्या
ख़ूब धोखा दिया मुल्क को
बेच कर खा गए, और क्या
असलहे के मुक़ाबिल ग़ज़ल
हार के आ गए, और क्या !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रहबर:नेता, मार्गदर्शक; पुरसां-ए-हाल: हाल-चाल पूछने वाले;असलहा:अस्त्र-शस्त्र।
खौफ़-सा खा गए, और क्या
रहबरों से यही थी उम्मीद
राह भटका गए, और क्या
आए तो रोज़ पुरसां-ए-हाल
ज़ख़्म सुलगा गए, और क्या
चोर के हाथ में चाभियां
दे के पछता गए, और क्या
चार दिन को हुकूमत मिली
रंग दिखला गए, और क्या
ख़ूब धोखा दिया मुल्क को
बेच कर खा गए, और क्या
असलहे के मुक़ाबिल ग़ज़ल
हार के आ गए, और क्या !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रहबर:नेता, मार्गदर्शक; पुरसां-ए-हाल: हाल-चाल पूछने वाले;असलहा:अस्त्र-शस्त्र।
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