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मंगलवार, 19 जुलाई 2016

निगाहे-मोहसिन ...

जो  आशिक़ों  की क़दर  न  होगी
क़ज़ा  से   पहले    मेहर  न  होगी

रहें  अगर  वो:  क़रीब  दिल  के
ख़ुशी  कभी  मुख़्तसर  न  होगी

बसे  हैं  दिल  में  तो  बे-ख़बर  हैं
उजड़  गए  तो    ख़बर  न  होगी 

अभी   हया   के   सुरूर  में   हैं
निगाहे-मोहसिन  इधर  न  होगी

बहिश्त  जा  कर  भी  देख  लीजे
बिना  हमारे    गुज़र      न  होगी

दिले-ख़ुदा  में  जगह  न  हो  तो
कोई  दुआ    कारगर   न   होगी

न  देंगे  गर  हम  अज़ान  दिल  से
यक़ीन  कीजे  सहर  न  होगी  !

                                                                     (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़दर: सम्मान ; क़ज़ा : मृत्यु; मेहर : ईश्वरीय कृपा; मुख़्तसर : संक्षिप्त ; हया : लज्जा; सुरूर: मद ; निगाहे-मोहसिन :अनुग्रह करने वाले की दृष्टि; बहिश्त: स्वर्ग; गुज़र: निर्वाह; दुआ: प्रार्थना; कारगर: प्रभावी;
सहर: उष:।




रविवार, 3 जुलाई 2016

पांव बेताब ....

रोकिए  कोई  इस  दिवाने  को
फिर  चला  आशियां  लुटाने  को

बात  यूं  कुछ  नहीं  बताने  को
दिल  मरा  जाए  है  सुनाने  को
ढूंढिए  और  दिल  मुहल्ले  में
क्या  हमीं  हैं  सितम  उठाने  को

ईद  को  चार  दिन  बक़ाया  हैं
चार  सदियां  क़रीब  आने  को

शायरों  को  ज़मीं  नहीं  मिलती
दश्त  तक  में  मकां  बनाने  को

रास्ते  सख़्त  मंज़िलें  मुश्किल
पांव  बेताब  दूर  जाने   को

सुब्ह  कहती  है  इक  अहद  कर  ले
आज  कुछ  कर  दिखा  ज़माने  को

हिज्र  का  दौर  कट  गया  यूं  तो
चाहिए  वक़्त  ग़म  भुलाने  को  !

                                                                        (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : दिवाने : उन्मत्त; आशियां : घर-बार ; हमीं : हम ही ; सितम : अत्याचार ; दश्त : वन ; मकां : आवास, समाधि ; मंज़िलें : लक्ष्य ; बेताब : व्यग्र ;   अहद : संकल्प ; हिज्र : वियोग ; दौर : काल, युग ।

बुधवार, 29 जून 2016

ख़ुदी से ख़लास...

चंद  अल्फ़ाज़  पास  बैठे  हैं
बस  यही  ग़मशनास  बैठे  हैं

आपने  आज  ग़ौर  फ़रमाया
हम  अज़ल  से  उदास  बैठे  हैं

रब्तो-दीदारो-वस्लो-याराना
फिर  ग़लत  सब  क़यास  बैठे  हैं

नफ़्स  ही  तो  जुदा  हुई  दिल  से
और  भी  ग़म  पचास  बैठे  हैं

तख़्ते-हिंदोस्तां  ख़ुदा  हाफ़िज़
दुश्मने-क़ौम  ख़ास  बैठे  हैं

यह  सियासत  नहीं  अजूबा  है
सब  ख़ुदी  से  ख़लास  बैठे  हैं

रूहे-शायर  को  क्या  मिली  जन्नत
शैख़  सब  बदहवास  बैठे  हैं  !

                                                                         (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : चंद अल्फ़ाज़ : कुछ शब्द ; ग़मशनास : दुःख समझने वाले ; ग़ौर : ध्यान ; अज़ल : अनादिकाल ; रब्तो-दीदारो-वस्लो-याराना : संपर्क-दर्शन-मिलन और मित्रता ; क़यास : अनुमान ; नफ़्स : प्राण ; जुदा:विलग;
तख़्ते-हिंदोस्तां : भारत का राजासन ; दुश्मने-क़ौम : गण-शत्रु, अजूबा : विचित्र वस्तु ; ख़ुदी : स्वाभिमान ; ख़लास : रिक्त ; रूहे-शायर : शायर की आत्मा ; जन्नत : स्वर्ग ; शैख़ : धर्मांध व्यक्ति ।


बुधवार, 22 जून 2016

बग़ावतों की मजाल...

तुम्हारे  चेहरे  पे  जो  ख़ुशी  है  उसे  अज़ल  तक  संभाल  रखना
कि  रंजो-ग़म  में   मुसीबतों  में   हमारा  हक़  भी  बहाल  रखना

तुम्हारा   दावा   बहुत   बड़ा   है   जहाने-दिल  की   हुकूमतों  पर
रहो  हमेशा    उरूज   पर  तुम   मगर  ज़ेहन  में   जवाल  रखना

तुम्हारे  दिल  में    कहां  कमी  है    मुहब्बतों   की    इनायतों  की
जो  बांटो  सदक़ा-ए-फ़ित्र  सबको  हमारा  हिस्सा  निकाल  रखना

अभी   उन्हें   भी    कहां   है   फ़ुर्सत    तमाम   इशरत  बटोरने  से
मगर  वो  आएं  सलाम  को  जब  तो  सामने  सब  सवाल  रखना

निज़ामे-बेहिस    की    दुश्मनी   है   ग़रीब  ग़ुर्बा  की   बेहतरी   से
खुले  ज़ुबां  गर    मुख़ालिफ़त  में    बग़ावतों   की   मजाल  रखना

मिटा    रहे   हैं    वो:   नक़्श    सारी    इमारतों   के     इबारतों   के
चमन  की   रंगत   बदल  न   डाले   ज़रा  हवा  का   ख़याल  रखना

जिए  हो   अब  तक   फ़क़ीर  हो  कर    रहे  सलामत  ये  शाने-ईमां
चलो  जो  मुल्के-अदम  की  जानिब  ख़ुदी  की  क़ायम  मिसाल  रखना !

                                                                                                                     (2016)

                                                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अज़ल : अनादि-अनंतकाल ; रंजो-ग़म : अवसाद  एवं दुःख ; मुसीबतों : संकटों ; हक़ : अधिकार ; बहाल : निरंतर, शास्वत ; जहाने-दिल : मन का साम्राज्य ; हुकूमतों : शासनों ;  उरूज : उत्कर्ष, शीर्ष ; ज़ेहन : मस्तिष्क, ध्यान ; जवाल : पतन ; इनायतों : कृपाओं ; सदक़ा-ए-फ़ित्र : उपासना का पुण्य-दान ; इशरत : विलासिताएं ; निज़ामे-बेहिस : संवेदन हीन शासन ; ग़रीब  ग़ुर्बा : दीन-हीन, दरिद्र जन ; बेहतरी : उन्नति ; ज़ुबां : जिव्हा ; गर : यदि ; मुख़ालिफ़त : विरोध ;   बग़ावतों : विद्रोहों ; मजाल : सामर्थ्य ; नक़्श : चिह्न ; इमारतों : भवनों, यहां आशय संस्थानों ; इबारतों : आलेखों, यहां आशय संविधान एवं विधि ; चमन : उपवन ; रंगत : रूप-रंग ; फ़क़ीर : साधु, निर्मोही, अकिंचन ; सलामत : सुरक्षित ; शाने-ईमां ; मुल्के-अदम : परलोक ; जानिब : ओर ; ख़ुदी : स्वाभिमान ; क़ायम : स्थायी ; मिसाल : उदाहरण ।




शुक्रवार, 17 जून 2016

शुआ की ज़रूरत ...

बयाज़े-दिल  में  तेरा  नाम  दर्ज  है  जब  तक
किसी  शुआ  की  ज़रूरत  नहीं  हमें  तब  तक

बड़ा  अजीब    सफ़र  है     मेरे  तख़य्युल  का
शबे-विसाल  से  आए  हैं  हिज्र  की  शब  तक

तू  अपने  सीने  की  वुस.अत  दिखाए  जाता  है
मगर  ये  जिस्म  तेरे  साथ  रहेगा  कब  तक

तेरे  निज़ाम  में  तालीम  की  वो  हालत  है
कि  कोई  तिफ़्ल  पहुंच  ही  न  पाए  मकतब  तक

कहां   जनाब    तरक़्क़ी  की    बात   करते  थे
कहां  ये  आग  चली  आ  रही  है  मज़्हब  तक

हमीं  हैं  शाह  से  खुल  कर  क़िले  लड़ाते  हैं
पहुंच  गए  हैं  वहीं  सब  नक़ीब  मंसब  तक

फ़िज़ूल  आप  मेरे  दिल  पे  हो  गए  क़ाबिज़
अज़ां  सुनाई  न  दी  आपको  मेरी  अब  तक !

                                                                                                  (2016)

                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : बयाज़े-दिल : हृदय की दैनंदिनी ; दर्ज : अंकित ; शुआ : किरण ; तख़य्युल : विचारों , कल्पनाओं ; शबे-विसाल : मिलन निशा ; हिज्र : वियोग ; शब : निशा ; वुस.अत : विस्तार, माप ; जिस्म : शरीर ; निज़ाम : शासन ; तालीम : शिक्षा ; तिफ़्ल : बच्चा ; मकतब : पाठशाला ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मज़्हब : धर्म ; क़िले : शतरंज के खेल में बनाए जाने वाले क़िले, युद्ध ; नक़ीब : चारण ; मंसब : नियमित वृत्तिका ; फ़िज़ूल : व्यर्थ ; क़ाबिज़ : अधिपति ।

गुरुवार, 16 जून 2016

समंदरों की सियासत ...

हमारे  दिल  की  हरारत  किसी  को  क्या  मालूम
ये:  मर्ज़  है  कि  मुहब्बत  किसी  को  क्या  मालूम

बड़े   सुकूं   से    वो:      शाने       मिलाए   बैठे   थे
कहां  हुई  है    शरारत    किसी  को    क्या  मालूम

सुबह   से     शाम   तलक     आज़माए    जाते   हैं
ये:  इम्तिहां  है  कि  चाहत  किसी  को  क्या  मालूम

किया   करो   हो     बहुत  तंज़     शक्लो-सूरत  पर
हमारे    तर्बो-तबीयत    किसी   को     क्या  मालूम

निज़ाम   को     है   फ़िक्र     बस     रसूख़दारों   की
कहां   करेंगे    इनायत    किसी   को   क्या  मालूम

हरेक   दरिय :   को    प्यारी   है    अपनी   आज़ादी
समंदरों  की    सियासत    किसी  को  क्या  मालूम

अभी-अभी    तो   कहन   में     निखार     आया  है
अभी   हमारी  मुहब्बत   किसी  को    क्या  मालूम

पढ़ी     नमाज़      न      सज्दागुज़ार     हैं     उनके
हमारा     रंगे-इबादत   किसी   को     क्या  मालूम !

                                                                                            (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हरारत : ताप ; मर्ज़ : रोग ; सुकूं : आश्वस्ति ; शाने : कंधे ; तलक : तक ; इम्तिहां : परीक्षा ; चाहत : इच्छा ; करो हो : करते हो ; तंज़ : व्यंग्य ; शक्लो-सूरत : मुखाकृति ; तर्बो-तबीयत : संस्कार और स्वभाव ; निज़ाम : प्रशासन, सरकार ; रसूख़दारों : प्रभावशाली व्यक्तियों ; इनायत : कृपा ; दरिय: : नदी ; कहन :शैली;
सज्दागुज़ार :दंडवत प्रणाम करने वाले; रंगे-इबादत : पूजा का ढंग ।

मंगलवार, 14 जून 2016

... असर जाता नहीं !

अब्र  अक्सर  वक़्त  पर  छाता  नहीं
और  मौसम  भी  ख़बर  लाता  नहीं

ख़ुदकुशी  हर  बार  दहक़ां  क्यूं  करे
कोई  हाकिम  तो  ज़हर  खाता  नहीं

फ़िक्र  होती  शाह  को  गर  मुल्क  की
तो  सितम  यूं  रिज़्क़  पर  ढाता  नहीं

चाहता  है    सर   झुकाना   वो  मेरा
पर  कभी  मजबूर  कर  पाता  नहीं

मीर  का  दीवान    हमने   छू  दिया
उम्र  गुज़री  पर  असर  जाता  नहीं

जानता  है  मौसिक़ी  के  राज़  सब
वो  परिंदा    बे-बहर     गाता  नहीं

नफ़्स  में  तू  नब्ज़  में  तू  दिल  में  तू
अक्स  तेरा  क्यूं  नज़र  आता  नहीं  ?

                                                                               (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अब्र :मेघ ; ख़ुदकुशी : आत्महत्या ; दहक़ां : कृषक ; हाकिम : अधिकारी ; सितम : अत्याचार ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; मजबूर : विवश ; मीर :हज़रत मीर तक़ी 'मीर' , उर्दू के महान शायर ; दीवान : काव्य-संग्रह ; असर : प्रभाव ; मौसिक़ी : संगीत ; राज़ : रहस्य ; परिंदा : पक्षी ;  बे-बहर : छंद के विरुद्ध ; नफ़्स : सांस ; नब्ज़ : नाड़ी ; अक्स : प्रतिबिम्ब ।