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मंगलवार, 7 जून 2016

बयांबाज़ चाहिए ...

गुल  में  भी  हुस्ने-यार के  अंदाज़  चाहिए
ख़ामोश  रंगो-बू  को  भी  आवाज़  चाहिए

शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल  है  बहुत  मगर
मासूम  ख़यालात  को  परवाज़  चाहिए

देखे  हैं  हमने  ख़ूब  सितमगर  बयां  तिरे
अब  दिल  में  जो  निहा  हैं  वही  राज़  चाहिए

क़ुर्बान  न  हों  आप  अभी  शाह  के  लिए
मैदाने-इश्क़  में  भी  तो  जांबाज़  चाहिए

तकरीर  से  तस्वीर  बदलती  हो  तो  हमें
दोज़ख़  में  तेरी  तरहा  बयांबाज़  चाहिए

सफ़  में  हैं  तलबगार  यहां  से  वहां  तलक
मस्जिद  के  दायरे  में  करमसाज़  चाहिए

ये:  इक़्तिदारे-ज़ुल्म  कई  उम्र  जी  चुका
अब  दौरे-इंक़िलाब  का  आग़ाज़  चाहिए  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुल : पुष्प; हुस्ने-यार : प्रिय का सौन्दर्य; अंदाज़ : भंगिमा; रंगो-बू : रंग एवं गंध ; शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल : छोटे बच्चे की प्यास की तीव्रता, यहां संदर्भ कर्बला का, जहां छह माह के अली असग़र अ.स. के वध का ; मासूम : अबोध ; ख़यालात : कल्पनाओं ; परवाज़ : उड़ान ; सितमगर : अत्याचारी ; बयां : वक्तव्य ; निहा : छिपे हुए ; राज़ : रहस्य, अप्रकट उद्देश्य ; क़ुर्बान : बलि ; मैदाने-इश्क़ : प्रेम-युद्ध ; जांबाज़ : प्राण दांव पर लगाने वाला ; तकरीर : भाषण ; तस्वीर : परिदृश्य ; दोज़ख़ : नर्क ; तरहा : तरह, भांति ; बयांबाज़ : खोखली बातें करने वाला ; सफ़ : पंक्ति, नमाज़ के समय खड़े लोग ; तलबगार : याचक ; दायरे : सीमा ; करमसाज़ : कृपा करके दिखाने वाला ; इक़्तिदारे-ज़ुल्म : अत्याचार की सत्ता ; उम्र : आयु, जन्म ; दौरे-इंक़िलाब : क्रांति / परिवर्त्तन काल ; आग़ाज़ : आरंभ ।

सोमवार, 6 जून 2016

अच्छा नहीं लगा ...

दिल  को  सुजूदे-शौक़  का  चस्का  नहीं  लगा
दुनिया  को  ये:  ख़याल  भी  अच्छा  नहीं  लगा

क्या  रंज  कीजिए  कि  कोई  बेवफ़ा  हुआ
दचका  लगा  ज़रूर  प'  ज़्यादा  नहीं  लगा

कहता  रहा  क़रीब  का  रिश्ता  है  आपसे
लेकिन  हमें  वो:  शख़्स  शनासा  नहीं  लगा

उसके  सिपाहियों  ने  किया  क़त्ले-आम  जब
दिल  में  उसे  दरेग़  ज़रा-सा  नहीं  लगा

जम्हूर  की  दुआ  से  बादशाह  क्या  हुए
सौ  क़त्ल  भी  किए  तो  मुक़दमा  नहीं  लगा

है  एहतरामे-हुस्न  हमारे  मिजाज़  में
यूं  दिल  प'  कभी  दाग़े-तमन्ना  नहीं  लगा

कांधे  पे  लाद  लाए  हमें  अर्श  के  जवां
हम  ख़ुश  हैं  इस  सफ़र  में  किराया  नहीं  लगा !

                                                                                                (2016)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुजूदे-शौक़ : स्वेच्छा से/रुचि पूर्वक दंडवत करना ; चस्का : अभिवृत्ति ; रंज : खेद ; दचका : आघात ; शख़्स : व्यक्ति, शनासा: परिचित; क़त्ले-आम : व्यापक नरसंहार ; दरेग़ : दया ; जम्हूर : लोकतंत्र ; एहतरामे-हुस्न : सौंदर्य का सम्मान ; मिजाज़ : स्वभाव ; दाग़े-तमन्ना : उत्कट इच्छा का दोष ; अर्श के जवां : अर्श=आकाश, जवां : युवा, यहां आशय मृत्युदूत से ।

रविवार, 5 जून 2016

तरक़्क़ी के मा'नी

इस  तरह  तो  जहां  में  उजाला  न  हो
के:  शबे-तार  का  रंग  काला  न   हो

मैकदे  में  चला  आए  सैलाबे-नूर
मै  बहे  इस  क़दर  पीने  वाला  न  हो

शैख़  बतलाएं  कब  कब  ख़राबात  में
वो  गिरे  और  हमने  उठाया  न  हो

और  उम्मीद  क्या  कीजिए  आपसे
इश्क़  में  ही  अगर  बोल बाला  न  हो

उस  तरक़्क़ी  के  मा'नी  भला  क्या  हुए
हाथ  अत्फ़ाल  के  गर  निवाला  न  हो

कौन  उसको  कहेगा  तुम्हारी  ग़ज़ल
शे'र  दर  शे'र  जिसका  निराला  न  हो

कोई  शायर  नहीं  दो  जहां  में  जिसे
अर्श  वालों  ने  घर  से  निकाला  न  हो  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :शबे-तार: अमावस्या ; मदिरालय ; सैलाबे-नूर : प्रकाश का उत्प्लावन ; मै : मदिरा ; क़दर : सीमा तक;
शैख़ : धर्म भीरु , मदिरा विरोधी ; ख़राबात : मदिरालय ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मा'नी : अर्थ ; अत्फ़ाल : शिशुओं ; निवाला : कंवल, कौर ; अर्श वालों : आकाश वालों, ईश्वर ।

शुक्रवार, 3 जून 2016

थक गए राह में...

थाम  लें  हाथ  कमनसीबों  का
ज़र्फ़  बढ़  जाएगा  अदीबों  का

कोई  समझाए  शाहे-ग़ाफ़िल  को
रिज़्क़  तो  बख़्श  दे  ग़रीबों  का

दिल्लगी  ज़ख़्म  ही  न  दे  जाए
खेल  मत  खेलिए  क़ज़ीबों  का

ईद  पर  भी  गले  नहीं  मिलते
हाल  यह  है  मिरे  हबीबों  का

ज़ार  को  देवता  बताते  हैं
शोर  सुनिए  ज़रा  नक़ीबों  का

ज़िक्र  किरदार  का  जहां  आया
मुंह  बिगड़  जाएगा  नजीबों  का

खैंच  लेंगे  ज़ुबान  कब  मेरी
क्या  भरोसा  मिरे  रक़ीबों  का

थक  गए  राह  में  मियां  मंसूर
बार  उठता  नहीं  सलीबों  का  !

                                                                (2016)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमनसीबों : अल्प-भाग्य ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; अदीबों : साहित्यकारों ; शाहे-ग़ाफ़िल : मतिभ्रम-ग्रस्त शासक ; रिज़्क़ : भोजन ; बख़्श ( ना ) : छोड़ (ना);  हबीबों : प्रिय जनों ; दिल्लगी : हास-परिहास ; ज़ख़्म : घाव; क़ज़ीबों : तलवारों ; ज़ार : निरंकुश, अत्याचारी शासक ; नक़ीबों : चारणों ; ज़िक्र : संदर्भ , उल्लेख ; किरदार : चरित्र ;  ज़ुबान : जिव्हा ; भरोसा : विश्वास ; रक़ीबों : शत्रुओं; मंसूर : इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक, जिन्हें उनके विचारों  कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था ; बार : बोझ।
 

गुरुवार, 2 जून 2016

दर्दे-दिल की वजह

हैं  परेशान  जो  ज़माने   से
रब्त  कर  लें  किसी  दिवाने  से

दर्दे-दिल  की  वजह  रहे  हैं  जो
क्या  मिलेगा  उन्हें  सुनाने  से

दोस्तों  पर  अगर  भरोसा  है
क्यूं  जिरह  कीजिए  बहाने  से

हिज्र  के  वक़्त  हौसला  देंगे
ख़्वाब  रख  दें  कहीं  ठिकाने  से

ख़ुम्र  का  रंग  उड़  गया  सारा
शैख़  को  बज़्म  में  बुलाने  से

सामना  कीजिए  दिलेरी  से
ज़ुल्म  बढ़ता  है  सर  झुकाने  से

सब्र  रक्खें  जनाबे-इज़राइल
चल  दिए  हम  ग़रीबख़ाने  से  !

                                                             (2016)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : रब्त : संपर्क, मेलजोल ; दर्दे-दिल : मन की पीड़ा ; वजह : कारण ; जिरह : तर्क-वितर्क ; हिज्र: वियोग ; हौसला : साहस ; ख़ुम्र : मदिरा ; शैख़ : उपदेशक ; बज़्म : सभा, समूह, आयोजन ; दिलेरी : साहसिकता ; ज़ुल्म : अत्याचार ; सब्र : धैर्य ; जनाब : श्रीमान ; इज़राइल : मृत्यु दूत ; इस्लामी दर्शन में यम के समकक्ष ; ग़रीबख़ाने : अकिंचन के / अपने घर ।


बुधवार, 1 जून 2016

उम्मीद की सहर

सब  जिसे  मौत  की  ख़बर  समझे
वो:  उसे  ख़ुम्र  का  असर  समझे

ज़ीस्त  उसको  बहुत  सताती  है
जो  न  क़िस्स:-ए-मुख़्तसर  समझे

लोग  जो  चाहते  समझ  लेते
आप  क्यूं   हमको  दर ब दर  समझे

वो:  शरारा  जला  गया  जी  को
हम  जिसे  इश्क़  की  नज़र  समझे

शैख़-सा  बदनसीब  कोई  नहीं
जो  भरे  जाम  को  ज़हर  समझे

शाह  का  हर्फ़  हर्फ़  झूठा  था
लोग  उम्मीद  की  सहर  समझे

राज़  समझे  वही  ख़ुदाई  का
जो  खुले  चश्म  देख  कर  समझे

आख़िरश  वो:  सराब  ही  निकला
लोग  नादां  जिसे  बहर  समझे

दिल  उन्हें  भी  दुआएं  ही  देगा
जो  मेरा  ग़म  न  उम्र  भर  समझे  !

                                                                     (2016)                                                                 

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : ख़ुम्र : मदिरा ; ज़ीस्त : जीवन ; क़िस्स:-ए-मुख़्तसर : छोटी-सी कहानी, सार-संक्षेप ; दर ब दर : गृह-विहीन ; शरारा : अग्नि-पुंज, लपट ; जी : मन ; शैख़ : धर्म-भीरु ; जाम : मदिरा-पात्र ; हर्फ़ : अक्षर ; सहर : प्रातः, उष:काल ; राज़ : रहस्य ; ख़ुदाई : संसार, सृष्टि ; खुले चश्म : खुले नयन, बुद्धिमानी से ; आख़िरश :अंततः ; सराब : मृग जल, धूप में दिखाई देने वाला पानी का भ्रम ; नादां : अबोध, अ-ज्ञानी ; दुआएं : शुभकामनाएं ।


सोमवार, 30 मई 2016

रस्मे-राहत ...

जश्ने-वहशत  मना  रहे  हैं  वो:
ख़ूब  ताक़त  दिखा  रहे  हैं  वो:

बांट  कर  अस्लहे  मुरीदों  को
और  दहशत  बढ़ा  रहे  हैं  वो:

क़त्ल  करना  सवाब  है  जिनको
क्यूं  मुहब्बत  जता  रहे  हैं  वो:

ताजिरों  को  नियाज़  के  बदले
रोज़  दौलत  लुटा  रहे  हैं  वो:

चंद  दाने  उछाल  कर  हम  पर
रस्मे-राहत  निभा  रहे  हैं  वो:

नस्लो-मज़्हब  में  बांट  कर  दुनिया
क़स्रे-नफ़्रत  बना  रहे  हैं  वो :

कोई  वादा  निभा  नहीं  पाए
तो  सियासत  सिखा  रहे  हैं  वो !

                                                                       (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जश्ने-वहशत : उन्माद-पर्व ; अस्लहे : अस्त्र-शस्त्र ; मुरीदों : भक्त जन ; दहशत : भय, आतंक ; सवाब : पुण्य-कर्म ; ताजिरों : व्यापारियों ; नियाज़ : भिक्षा ; रस्मे-राहत : सहायता की प्रथा / औपचारिकता ;
नस्लो-मज़्हब : प्रजाति और धर्म ; क़स्रे-नफ़्रत : घृणा का महल ।