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शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

मचलना सीख जाते हैं ...

नए  बच्चे  बहुत  जल्दी  मचलना  सीख  जाते  हैं
नज़र  चूकी  कि  बस,  हद  से  निकलना  सीख  जाते  हैं

जहां  मां-बाप  के  दिल  में  मुनासिब  फ़िक्र  होती  है
वहां  बच्चे  किताबों  से  बहलना  सीख  जाते  हैं

न  जाने  नौजवां  क्यूं  इस  क़दर  बेताब  होते  हैं
ज़रा-सी  कामयाबी  से  उछलना  सीख  जाते  हैं

कभी  ताजिर,  कभी  ख़ादिम,  कहीं  गांधी,  कहीं  हिटलर
सियासत  में  सभी  चेहरे  बदलना  सीख  जाते  हैं

चरिंदों  को  शिकायत  है  कि  हम  परवाज़  भरते  हैं
मुक़ाबिल  आ  नहीं  सकते  तो  जलना  सीख  जाते  हैं

जिन्हें  आता  नहीं  अपनी  बह् र  को  थामना,  अक्सर
हमारे  दुश्मनों  के  साथ  चलना  सीख  जाते  हैं

हमारी  राह  में  हरदम  फ़रिश्ते  ख़ार  बोते  हैं
मगर  हम  वक़्त  से  पहले  संभलना  सीख  जाते  हैं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुनासिब फ़िक्र : समुचित चिंता; इस क़दर : इस सीमा तक; बेताब: व्यग्र; ताजिर : व्यापारी; ख़ादिम : सेवक; सियासत: राजनीति; चरिंदों : थल चरों; परवाज़: उड़ान; मुक़ाबिल: सामने, प्रतियोगिता में; बह् र: छंद, मानसिक संतुलन; फ़रिश्ते: देवदूत; 
ख़ार: कांटे ।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हुस्ने-शाह से तौबा !

कहां-कहां  जनाब  आजकल  भटकते  हैं
तरह-तरह  के  इत्र  जिस्म  से  महकते  हैं

किया  सलाम  किसी  ने  कि  हंस  के  देख  लिया
तो  देखिए  कि  मियां  किस  क़दर  चहकते  हैं

न  आएं  आप  बे-हिजाब  ये  गुज़ारिश  है
यहां  तमाम  बे-शऊर  दिल  धड़कते  हैं

अजब  निज़ाम  चुना  है  अवाम  ने  अबके
कि  गांव-गांव  तिफ़्ल  भूख  से  सिसकते  हैं

उन्हें  शराब  दिखाना  सही  नहीं  होगा
बिना  पिए  जनाब  बज़्म  में  बहकते  हैं

ख़ुदा  बचाए  हमें  हुस्ने-शाह  से,  तौबा
नज़र  पड़ी  नहीं  कि  आईने  चटकते  हैं

'हज़्रते-दाग़  जहां  बैठ  गए,  बैठ  गए'
ख़ुदा  उठाए,  मगर  आप  कब  सरकते  हैं !

                                                                        (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जनाब: श्रीमान; इत्र: सुगंध-सार; जिस्म: शरीर; बे-हिजाब: निरावरण; गुज़ारिश: निवेदन; बे-शऊर: अशिष्ट; निज़ाम: सरकार, व्यवस्था; अवाम: जन-साधारण; तिफ़्ल: शिशु; बज़्म: गोष्ठी, सभा; हुस्ने-शाह: 'शाह' की सुंदरता; तौबा: त्राहिमाम; हज़्रते-दाग़: उर्दू के सबसे बड़े समर्थक, विश्व-विख्यात शायर, यह पंक्ति उन्हीं की ।

रविवार, 2 नवंबर 2014

काट लें सर....

चंद  सफ़हात  हैं  पुराने-से
कोई  रख दे  इन्हें  ठिकाने  से

चश्म  में  रोज़  किरकिराते  हैं
ख़्वाब  थे  जो  कभी  सुहाने-से

याद  वो  बार-बार  आते  हैं
हिज्र  के  दौर  में  भुलाने  से

ज़ख्मे-दिल  देर  तक  नहीं  भरते
नीम-अत्तार  को   दिखाने  से

तिफ़्ल  ज़्याद:  बड़े  न  हो  जाएं
बेवजह  हौसला  बढ़ाने  से

वक़्ते-ख़ुश्की  संभालते  दिल  को
अश्क  ज़ाया  गए  बहाने  से

रूह  की   बस्तियां  संवरती  हैं
एक  बुझती  शम्'अ  जलाने  से

दाग़  दिल  के  मिटाइए  साहब
क्या  मिलेगा  हमें  मिटाने  से

काट  लें  सर  न  ख़ुद हमीं  अपना
गर  बने  बात  सर  झुकाने  से  !!

                                                            (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चंद: कुछ, चार; सफ़हात: पृष्ठ (बहु.); चश्म: आंख; हिज्र: वियोग; दौर: काल; ज़ख्मे-दिल: मन के घाव; नीम-अत्तार: आधा-अधूरा दवा बेचने वाला; तिफ़्ल: बच्चे;  हौसला: उत्साह, मनोबल; वक़्ते-ख़ुश्की: सूखे के समय, जब आंख में आंसू सूख चुके हों; अश्क: अश्रु; 
ज़ाया: व्यर्थ, निरर्थक; रूह: आत्मा; शम्'अ: दीपिका; दाग़: दोष; हमीं: स्वयं। 

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

सरमाएदारों का प्यादा ...

ख़ुदा  को  सामने  रख  कर  बताओ,  क्या  इरादा  है
हमारा  दर्द  कम  है  या  तुम्हारा  शौक़  ज़्यादा  है  ?

हमारी  अक़्ल  पर  पत्थर  पड़े  थे  या  कि  क़िस्मत  पर
मिला  जो  हमनफ़स  हमको,  सरासर  शैख़ज़ादा  है 

तुम्हीं  जानो,  हमारा  साथ  तुम  कैसे  निभाओगे
तुम्हारे  शौक़  शाही  हैं,  हमारी  लौह  सादा  है

नदामत  को  हमारी  और  किस  हद  तक  उतारोगे
तुम्हारे  पांव  के  नीचे  हमारा  ही  बुरादा  है

शहंश:  ही  सही,   लेकिन  तुम्हें  पहचानते  हैं  सब
तुम्हारी  नंग  के  सर  पर,  शराफ़त  का  लबादा  है

ख़ुदा  ने  क्यूं  अवामे-हिंद  से  यह  दुश्मनी  की  है
शहंशाहे-वतन  सरमाएदारों  का  प्यादा  है

ज़ुबां  पर  वो  हमारी  लाख  पाबंदी  लगा  डालें
ग़ज़ल  हर  हाल  में  हो  कर  रहेगी  आज,  वादा  है !

                                                                                             (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हमनफ़स: साथी, चिर-मित्र; सरासर: पूर्णतः; शैख़ज़ादा: धर्मोपदेशक की संतान; लौह: व्यक्तित्व; नदामत: लज्जा; बुरादा: लकड़ी काटने-छीलने में बिखरे हुए अंश, छीलन; शहंश:: शहंशाह का लघु; नंग: नग्नता; शराफ़त: सभ्यता; लबादा: सर से पांव तक आने वाला वस्त्र, आवरण; अवामे-हिंद: भारत के जन-सामान्य; शहंशाहे-वतन: देश का शासक; सरमाएदारों: पूँजीपतियों; प्यादा: पैदल सैनिक, शतरंज का सबसे छोटा मोहरा; ज़ुबां: जिव्हा, वाणी; पाबंदी: प्रतिबंध।


गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

घर जला दें क्या ?

ग़ज़ल  के  शौक़  की  ख़ातिर  हम  अपना  घर  जला  दें  क्या  ?
बुज़ुर्गों  की  विरासत  ख़ाक  में  यूं  ही  मिला  दें  क्या  ?

हमें  मालूम  है,  मसरूफ़  हो  तुम  इन  दिनों,  लेकिन
उमीदों  को  हमेशा  के  लिए  दिल  में  सुला  दें  क्या  ?

बग़ावत  के  लिए  तुमको  हमारे  साथ  रहना  है
अकेले  हम  यज़ीदी  तख़्त  का  पाया  हिला  दें  क्या  ?

चलो,  माना  कि  ग़ालिब  का  बहुत-सा  क़र्ज़  है  हम  पर
मगर  उसके  लिए  अपने  फ़राईज़  ही  भुला  दें  क्या  ?

बहुत  अरमान  है  तुमको  ख़ुदा  से  बात  करने  का
कहो  तो  आज  ही  उसको  तुम्हारे  घर  बुला  दें  क्या  ? 

परख  कर  देख  लो  तुम  भी  दलीलें  ख़ूब  वाइज़  की
किराए  पर  तुम्हें  हम  ख़ुल्द  में  कमरा  दिला  दें  क्या  ?

हमें  डर  है,  हमारे  बाद  तुम  तन्हा  न  हो  जाओ
बता  कर  मौत  की  तारीख़,  हम  तुमको  रुला  दें  क्या  ?

                                                                                                  (2014)

                                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शौक़: रुचि; ख़ातिर: हेतु; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; विरासत: उत्तराधिकार; ख़ाक: राख़, धूल; मसरूफ़: व्यस्त; बग़ावत: विद्रोह; 
यज़ीद: हज़रत मुहम्मद स. अ. का समकालीन एक ईश्वर-द्रोही, अत्याचारी शासक, जिसने कर्बला में उनके उत्तराधिकारियों की हत्याएं कराईं; पाया: स्तंभ; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; फ़राईज़: कर्त्तव्य (बहु.); अरमान: उत्कंठा; दलीलें: वाद-प्रतिवाद; वाइज़: धर्मोपदेशक; ख़ुल्द: स्वर्ग; तन्हा: एकांतिक।

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

ख़ुद्दार बनते हैं...

साझा आसमान: दूसरी सालगिरह 

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपके पसंदीदा ब्लॉग 'साझा आसमान' की दूसरी सालगिरह है।
इन दो सालों में 'साझा आसमान' दुनिया के तक़रीबन हर छोटे-बड़े मुल्क तक पहुंचा। लेकिन, यह कामयाबी आपके मुसलसल त'अव्वुन के बिना मुमकिन नहीं थी। यह भी एक इत्तिफ़ाक़ है कि 'साझा आसमान' के क़ारीन में जितने लोग हिंदोस्तानी हैं, उससे भी ज़्यादह दीगर मुमालिक के हैं !
बहुत-बहुत शुक्रिया, दोस्तों ! इतने लंबे वक़्त तक साथ देते रहने के लिए । इंशाअल्लाह, यह साथ आगे भी इसी तरह चलता रहेगा।
इस मौक़े पर एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में पेश है:

बड़े  ख़ुद्दार  बनते  हैं... 

ख़ुदा  के  नाम  से  पहले,  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं
मुअज़्ज़िन  किसलिए  ये  शिर्क  का  इल्ज़ाम  लेते  हैं  ?

तुम्हीं  बतलाओ  क्या  तुमने  ख़ुदा  का  दिल  चुराया  है
नहीं  तो  लोग  क्यूं  खुल  कर  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं  ?

न  जाने  कौन-सा  जादू  किया  तुमने  मुहल्ले  पर
तुम्हारा  ज़िक्र  चलते  ही  सभी  दिल  थाम  लेते  हैं

हमारा  नाम  तक  सुनना  न  था  जिनको  गवारा  कल
वही  अब   रोज़  हमसे  इश्क़  का  पैग़ाम  लेते  हैं

हुनर  सीखा  कहां  से  आपने  ये  दिलनवाज़ी  का
हमीं  पर  वार  करते  हैं,  हमीं  से  काम  लेते  हैं

हमें  पूरा  यक़ीं  है,  तुम  मिलोगे  आज  महफ़िल  में
तुम्हारी  याद  को  हम  सूरते-इलहाम  लेते  हैं

बड़े   ख़ुद्दार  बनते  हैं  हमारे  सामने  आ  कर
अंधेरे  में  वही  सरकार  से  इकराम  लेते  हैं  ! 

                                                                                   (2014) 

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; शिर्क: ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को पूजना, अधर्म; इल्ज़ाम: आरोप; ज़िक्र: उल्लेख, चर्चा; पैग़ाम: संदेश; हुनर: कौशल; दिलनवाज़ी: मन रखना, प्रगाढ़ मैत्री; वार: प्रहार; यक़ीं: विश्वास; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; सूरते-इलहाम: देव-वाणी की भांति; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; इकराम: पारितोषिक, अनुग्रह।

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

...शाने-ख़ुदी भी रहे !

बेरुख़ी  भी  रहे,  दोस्ती  भी  रहे
होश  के  साथ  कुछ  बेख़ुदी  भी  रहे

ख़ूब  है  आपकी  महफ़िलों  का  चलन
आरज़ू  भी  रहे,  बे-बसी   भी  रहे

मश्विरा  है  यही  साहिबे-हुस्न  को
हो  अना  तो  कहीं  दिलकशी  भी  रहे

चश्मबाज़ी  करें,  रोकता  कौन  है
क़त्ल  करते  हुए  आजिज़ी  भी  रहे

वो  शबे-तार  के  ख़्वाब  में  आएं,  तो
हौसला  भी  रहे,  रौशनी  भी  रहे

है  तरक़्क़ी  मुकम्मल  तभी  मुल्क  की
शाह  के  सोच  में  मुफ़लिसी  भी  रहे

हो      सुजूदे-वफ़ा   की    यही     इंतेहा
सर  झुके  यूं  कि  शाने-ख़ुदी  भी  रहे  !

                                                                      (2014)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेरुख़ी: उपेक्षा; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; महफ़िलों: सभाओं; चलन: प्रथा; बे-बसी: विवशता; मश्विरा: परामर्श; साहिबे-हुस्न: सौंदर्य के स्वामी, सुंदर; अना: अहंकार; दिलकशी: मनमोहकता; चश्मबाज़ी: दृष्टि-प्रहार; क़त्ल: वध; आजिज़ी: विनम्रता; शबे-तार: अमावस्या; ख़्वाब: स्वप्न; हौसला: उत्साह; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; मुकम्मल: परिपूर्ण; मुल्क: देश; मुफ़लिसी: निर्धनता; सुजूदे-वफ़ा: आस्था व्यक्त करने के लिए प्रणिपात; इंतेहा: अतिरेक, सीमा; शाने-ख़ुदी: अस्मिता का सम्मान।