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गुरुवार, 6 जुलाई 2017

आशिक़ों की अमां...

न  दिल  चाहते  हैं  न  जां  चाहते  हैं
फ़क़त  आशिक़ों  की  अमां   चाहते  हैं

उड़ानों  पे  बंदिश  न  पहरा  सुरों  पर
परिंदे    खुला  आस्मां   चाहते  हैं

मुरीदे-शहंशाह  हद  से  गुज़र  कर
रिआया  के  दोनों  जहां  चाहते  हैं

क़फ़न  खेंच  कर  लाश  से  वो  हमारी
बदन  पर  वफ़ा  के  निशां  चाहते  हैं

उमीदे-रहम  आपसे  क्या  करें  हम
सितम  भीड़  के  दरमियां  चाहते  हैं

हमारे  लिए  गोश:-ए-दिल  बहुत  है
कहां  तख़्ते-हिन्दोस्तां  चाहते  हैं

ख़ुदा  मान  ले  शर्त्त  तो  चल  पड़ें  हम
कि  क़द  के  मुताबिक़  मकां  चाहते  हैं  !

                                                                          (2017)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : जां: प्राण; फ़क़त: मात्र; आशिक़ों: प्रेमियों; अमां: सुरक्षा; बंदिश: प्रतिबंध; परिंदे: पक्षीगण; आस्मां: आकाश; मुरीदे-शहंशाह: शासक के प्रशंसक/भक्त जन; हद: सीमा; रिआया: नागरिक गण; दोनों जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; क़फ़न: शवावरण; बदन: शरीर; वफ़ा: आस्था; निशां: चिह्न; उमीदे-रहम: दया की आशा; सितम: अत्याचार; दरमियां: मध्य; गोश:-ए-दिल: हृदय का कोना; तख़्ते-हिन्दोस्तां: भारत का सिंहासन; शर्त्त: दांव; क़द: आकार; मुताबिक़: अनुसार; मकां: आवास, समाधि। 

गुरुवार, 29 जून 2017

रग़ों में ज़हर...

किधर  ढूंढिएगा  कहां  खो  गया
मियां  मान  लीजे  कि  दिल  तो  गया

उसे  तिश्नगी  ने  न  बख़्शा  कभी
अकेला  ख़राबात  में  जो  गया

गुलों  को  न  अब  कोई  इल्ज़ाम  दे
कि  मौसम  रग़ों  में  ज़हर  बो  गया

मदारी  बना  शाह  जिस  रोज़  से
हक़ीक़त  से  क़िस्सा  बड़ा   गया

लबे-चश्म  सैलाब  घुटता  रहा
मगर  दाग़  दिल  के  सभी  धो  गया

किसे  हौसला  दें  किसे  बद्दुआ
कि  क़ातिल  मेरी  क़ब्र  पर  रो  गया

शबे-वस्ल  का  ज़िक्र  मत  छेड़िए
रहे  जागते  हम  ख़ुदा  सो  गया  !

                                                                                         (2017)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तिश्नगी: सुधा; बख़्शा: छोड़ा; ख़राबात: मदिरालय; गुलों: फूलों; इल्ज़ाम: दोष, आरोप; रग़ों: शिराओं; मदारी: इंद्रजाल के खेल दिखाने वाला; हक़ीक़त: यथार्थ; क़िस्सा: आख्यान; लबे-चश्म: आंख की कोर पर; सैलाब: बाढ़; दाग़: कलंक; हौसला: सांत्वना; बद्दुआ: अशुभकामना; क़ातिल: हत्यारा; क़ब्र: समाधि; शबे-वस्ल: मिलन की निशा; ज़िक्र: उल्लेख। 
 


मंगलवार, 27 जून 2017

मौत को इश्क़...

जब  जहालत  गुनाह  करती  है
सल्तनत  वाह  वाह  करती  है

आइन-ए-मुल्क  में  बहुत  कुछ  है
क्या  सियासत  निबाह  करती  है

सल्तनत  चार  दिन  नहीं  चलती
जो  सितम  बेपनाह  करती  है

अस्लहे  वो:  असर  नहीं  करते
जो  वफ़ा  की  निगाह  करती  है

आशिक़ी  में  अना  कभी  दिल  को
तो  कभी  घर  तबाह  करती  है

ख़ुर्दबीं  है  नज़र  मुरीदों  की
ख़ाक  को  मेह्रो-माह  करती  है

मौत  को  इश्क़  हो  गया  हमसे
मुख़बिरों  से  सलाह  करती  है  !

                                                                      (2017)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जहालत: बुद्धिहीनता; सल्तनत: साम्राज्य; आइन-ए-मुल्क: देश का संविधान; सियासत: राजनीति; निबाह: निर्वाह; सितम: अत्याचार; बेपनाह: अत्यधिक, सीमाहीन; अस्लहे: अस्त्र-शस्त्र; वफ़ा: आस्था; अना: अहंकार; तबाह: ध्वस्त; ख़ुर्दबीं: सूक्ष्मदर्शी; नज़र: दृष्टि; मुरीदों: भक्तजन, प्रशंसक; ख़ाक: धूल; मेह्रो-माह: सूर्य और चंद्र; मुख़बिरों: समाचार देने वाले, गुप्तचर। 

सोमवार, 26 जून 2017

वफ़ा के सताए...

ईद  में  मुंह  छुपाए  फिरते  हैं
ग़म  गले  से  लगाए  फिरते  हैं

दुश्मनों  के  हिजाब  के  सदक़े
रोज़  नज़रें  चुराए   फिरते  हैं

दिलजले  हैं  बहार  के  आशिक़
तितलियों  को  उड़ाए  फिरते  हैं

कोई  उनको  पनाह  में  ले  ले
जो  वफ़ा  के  सताए  फिरते  हैं

टोपियां  हैं  गवाह  ज़ुल्मों  की
किस  तरह  सर  बचाए  फिरते  हैं

शुक्र  है  हम  अदीब  सीने  में
दर्दे-दुनिया   दबाए  फिरते  हैं

शाह  हैं  ऐश  हैं  रक़ीबों   के
और  हम  जां  जलाए  फिरते  हैं  !

                                                                     (2017) 

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिजाब: मुखावरण; सदक़े: बलिहारी; दिलजले: विदग्ध हृदय; आशिक़: प्रेमी; पनाह: शरण; वफ़ा: आस्था; गवाह: साक्षी; 
ज़ुल्मों: अत्याचारों; अदीब: रचनाकार, साहित्यकार; दर्दे-दुनिया: संसार भर की पीड़ा; ऐश: विलासिता; रक़ीबों: शत्रुओं; जां: प्राण, हृदय। 

बुधवार, 21 जून 2017

एक दिन मुक़र्रर हो...

शौक़  तो  उन्हें  भी  है  पास  में  बिठाने  का
जो  हुनर  नहीं  रखते  दूरियां   मिटाने  का

रोज़  रोज़  क्यूं  हम  भी  आपसे  पशेमां  हों
एक  दिन  मुक़र्रर  हो  रूठने-मनाने  का

आपकी  सफ़ाई  से  मुत्मईं  नहीं  हैं  हम
राज़  कोई  तो  होगा  आपके  न  आने  का

कस्रते-सियासत  हैं  दीनो-धर्म  के  झगड़े
ख़त्म   सिलसिला  कीजे  बस्तियां  जलाने  का

ख़ुदकुशी  के  सौ  सामां  शाह  ने  सजा  डाले
फ़र्ज़  अब  हमारा  है  मुल्क  को  बचाने  का

क्या  ख़बर  कि  दीवाने  कब-किसे  ख़ुदा  कर  लें
मर्ज़  है  मुरीदों  को  जूतियां  उठाने  का

जानते  नहीं  क्या  हम   आपकी  अदाओं  को
याद  बस  बहाना  है   अर्श  पर  बुलाने  का  !

                                                                                          (2017)

                                                                                    - सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हुनर: कौशल, पशेमां: लज्जित; मुक़र्रर: निश्चित; सफ़ाई: स्पष्टीकरण; मुत्मईं: संतुष्ट;  :रहस्य; कस्रते-सियासत: राजनीतिक उठा-पटक; सिलसिला: क्रम, चलन; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; सामां: सामग्रियां; फ़र्ज़: ;कर्त्तव्य; मुल्क: देश; दीवाने: उन्मत्त जन; मर्ज़: रोग; मुरीदों: भक्त जन;  अदाओं: भंगिमाओं; अर्श: आकाश।  

शनिवार, 17 जून 2017

लबों पर तबस्सुम ...

सितम  कीजिए  या   दग़ा  कीजिए
ख़ुदा  के  लिए  ख़ुश  रहा  कीजिए

दुआ  है  फ़रिश्ते  मिलें   आपको
न  हो  तो  हमीं  से  वफ़ा  कीजिए

बुरे  वक़्त  में   बेहतरी  के  लिए
लबों  पर  तबस्सुम  रखा  कीजिए

सितारे  पहुंच  से  अगर  दूर  हैं
तो  किरदार  अपना  बड़ा  कीजिए

फ़क़ीरो-शहंशाह  सब  एक  हैं
निगाहें  उठा  कर  जिया  कीजिए

न  बदलेंगे  मस्लक  किसी  हाल  में
मुरीदों  से  लिखवा  लिया  कीजिए

ज़रूरी  नहीं  आप  सज्दा  करें
सलामो-दुआ  तो  किया  कीजिए  !

                                                                     (2017)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सितम: अत्याचार; दग़ा: छल;फ़रिश्ते :देवदूत;वफ़ा :निर्वाह; बेहतरी : उत्तमता; लबों : होठों; तबस्सुम : मुस्कान ; किरदार :व्यक्तित्व,चरित्र;मस्लक:पंथ;मुरीदों :भक्तजन,अनुयायी; सज्दा :साष्टांग प्रणाम;सलामो-दुआ :नमस्कार एवं शुभेच्छा।  

शनिवार, 10 जून 2017

क़ब्र की राह...

आज  मौसम  हमारा  नहीं  क्या  करें
दोस्तों  से  गुज़ारा  नहीं  क्या  करें

ज़ीस्त  ने  तो  हमें  ग़म  दिए  ही  दिए
मौत  से  भी  सहारा  नहीं  क्या  करें

तीरगी  को  मिटाना  हंसी-खेल  है
पर  शम्'.अ  का  इशारा  नहीं  क्या  करें

हर  क़दम  पर  मसाजिद  मिलेंगी  मगर
आशिक़ी  का  इदारा  नहीं  क्या  करें

जिसने  किरदार  खेला  कभी  शाह  का
फिर  मुखौटा  उतारा  नहीं  क्या  करें

रिंद  को  क़ब्र  की  राह  मंज़ूर  है
शैख़  का  घर  गवारा  नहीं  क्या  करें

आप  भी  दूर  ही  दूर  बैठे  रहे
अर्श  ने  भी  पुकारा  नहीं  क्या  करें !

                                                                                  (2017)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: गुज़ारा: निर्वाह; ज़ीस्त: जीवन; तीरगी: अंधकार; शम्'.अ: दीपिका; इशारा: संकेत; मसाजिद : मस्जिदें; आशिक़ी : प्रेम; 
इदारा : संस्थान ; किरदार: पात्र, चरित्र; रिंद : पियक्कड़; क़ब्र : समाधि; शैख़: धर्म-भीरु; गवारा : स्वीकार।