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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

मसख़रों का ज़माना ...

ख़रों  को  मुबारक  ख़रों  का  ज़माना
अजब  सरफिरे   रहबरों  का  ज़माना

न  देखेगी  नरगिस  न  गाएगी  बुलबुल
न  आएगा     दीदावरों  का    ज़माना

जहां  मौसिक़ी  की  इजाज़त  न  होगी
वहां  क्या  करेगा    सुरों  का  ज़माना

जिन्होंने  चुना  है  बड़े  शौक़  से  अब
निभाएं  वही    मसख़रों  का   ज़माना

ये  जम्हूर  आख़िर  कहां  तक  सहेगा
सियासत  के   बाज़ीगरों  का  ज़माना

चुराने  लगा   मुफ़लिसों  की   कमाई
नई   तर्ज़  के   मुख़बिरों  का  ज़माना

यही  वक़्त  है  लाल  परचम  उठाओ
बदल  दो   बड़े  साहिरों  का  ज़माना

मुहब्बत   बसाएगी   वो  घर   दोबारा
मिटाएगा  जो   ताजिरों  का   ज़माना !

                                                                (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थः ख़रों : गधों; रहबरों: नेताओं; नरगिस: एक फूल, जिसकी एक पंखुड़ी में आंख के समान आकृति बनी होती है; बुलबुल: कोयल; दीदावरों: दृष्टि-संपन्न व्यक्तियों; मसख़रों: भांडों; जम्हूर: लोकतंत्र; सियासत: राजनीति; बाज़ीगरों: खिलाड़ियों; परचम: ध्वज, पताका; मुफ़लिसों: वंचितों, दीन हीनों; तर्ज़: शैली; साहिरों: जादूगरों, मायावियों; मुख़बिरों: टोह लेने वालों; ताजिरों: व्यापारियों, पूंजीपतियों।  


रविवार, 5 मार्च 2017

फ़रेब सीरत के ...

मुद्द'आ  यूं  मिटा  तमाशों  में
दब  गई  आह  ढोल-ताशों  में

सोज़े-तकरीर  हुस्न  खो  बैठा
तल्ख़  तन्क़ीदो-इफ़्तिराशों  में

शक्ले-इंसां  नज़र  नहीं  आती
मसख़रों  से  भरी  क़िमाशों  में

रहनुमा  आए  हैं  दवा  ले कर
फूंकने  जान    सर्द  लाशों  में

हैं  नुमाया  फ़रेब  सीरत  के
शाह  के  रेशमी  क़ुमाशों  में 

गंद  में  जिस्म  सन  गया  सारा
साफ़  किरदार  की  तलाशों  में

खेलिए  क्या  ग़रीब  के  दिल  से
.खूं  छलक  आएगा  ख़राशों  में !

                                                                  (2017)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुद्द'आ: विषय; सोज़े-तकरीर: भाषण का माधुर्य; हुस्न: सौंदर्य; तल्ख़: तीक्ष्ण; तन्क़ीदो-इफ़्तिराशों: टिप्पणियों एवं निंदाओं; शक्ले-इंसां: मनुष्य का रूप; मसख़रों: भांडों; क़िमाशों: ताश की गड्डियों; रहनुमा: मार्ग दिखाने वाले, नेता गण; सर्द लाशों: ठंडे शवों; नुमाया: प्रकट; फ़रेब: छद्म; सीरत: चरित्र, स्वभाव; क़ुमाशों: वस्त्र-विन्यास, रूप-सज्जा; गंद: मलिनता; जिस्म: देह; किरदार: चरित्र, व्यक्तित्व; तलाशों: अनुसंधानों; .खूं : रक्त, ख़राशों: खरोंचों ।


 

बुधवार, 1 मार्च 2017

खिलेंगे ख़ुद-ब-ख़ुद ...

जो  दानिशवर  परिंदों  की  ज़ुबां  को  जानते  हैं
यक़ीनन  वो   तिलिस्मे-आसमां    को  जानते  हैं

तू  कहता  रह  कि  तू  ख़ुद्दार  है  झुकता  नहीं  है
मगर   हम  भी   तेरे   हर  मेह्रबां    को  जानते  हैं

वही     बातें      वही     वादे     वही     बेरोज़गारी
वतन  के   नौजवां   सब  रहनुमां  को    जानते  हैं

कहां  नीयत  कहां  नज़रें  कहां  मंज़िल  सफ़र  की
सभी   रस्ते     अमीरे-कारवां      को    जानते  हैं

खिलेंगे  ख़ुद-ब-ख़ुद  दिल  में  किसी  दिन  आपके  भी
गुलो-ग़ुञ्चे   मुहब्बत  के    निशां     को   जानते  हैं

कहीं  ये  आ  गए  ज़िद  पर  तो  दुनिया  को  डुबो  दें
तेरे   लश्कर    मेरे  अश्के-रवां     को    जानते  हैं

तेरे  अहकाम  पर    चलती  नहीं    मख़लूक़  तेरी
इलाही !  हम    तेरे  दर्दे-निहां    को     जानते  हैं  !

                                                                                                     (2017)

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दानिशवर : विद्वत्जन; परिंदों : पक्षियों; ज़ुबां : भाषा; यक़ीनन : निश्चय ही; तिलिस्मे-आसमां : आकाश/ईश्वर का रहस्य; ख़ुद्दार : स्वाभिमानी; मेह्रबां : कृपा करने वाले; रहनुमां : नेता गण; अमीरे-कारवां : यात्री दल का प्रमुख; ख़ुद-ब-ख़ुद : स्वयंमेव; गुलो-ग़ुञ्चे : पुष्प एवं कलियां; निशां : चिह्न; लश्कर : सैन्य-दल; अश्के-रवां : बहते आंसू; अहकाम : आदेशों; मख़लूक़ : सृष्टि; इलाही : ईश्वर; दर्दे-निहां : गुप्त पीड़ा ।


मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

...धार रखते हैं !

आप  पर  एतबार  रखते  हैं
हम  युं  ही  जी  को  मार  रखते  हैं

चोट  खाना  नसीब  है  अपना
हसरतें  तो  हज़ार  रखते  हैं

कौन  जाने  कि  क्या  पिला  डालें
जो  नज़र  में  ख़ुमार  रखते  हैं

राज़े-सेहत  बताएं  क्या  अपना
दर्द  दिल  पर  सवार  रखते  हैं

काटिए  क्या  हुज़ूर  ख़ंजर  से
हम  अभी  सर  उतार  रखते  हैं

बाज़  आएं  नज़र  मिलाने  से
हम  बहुत  तेज़  धार  रखते  हैं

कौन  हमको  वफ़ा  सिखाएगा
हम  जिगर  तार-तार  रखते  हैं

दीजिए  बद्दुआ  हमें  खुल  कर
हम  सभी  कुछ  उधार  रखते  हैं

मौत  आई  है  जायज़ा  लेने
दुश्मनों  को  पुकार  रखते  हैं !

                                                                   (2017)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एतबार: विश्वास; नसीब: प्रारब्ध; हसरतें: लालसाएं; ख़ुमार: मदिरता; राज़े-सेहत: स्वास्थ्य का रहस्य; ख़ंजर: क्षुरि; बाज़  आना : दूर रहना; बद्दुआ: अशुभकामना; जायज़ा : पर्यवेक्षण।


सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

हम चराग़े-वफ़ा...

क़ैदे-ज़िन्दां-ए-उम्मीद  में  मिट  गए
हम  मुहब्बत  की  ताईद  में  मिट  गए

चंद  जज़्बात  उन  पर  खुले  ही  नहीं
चंद  अश्'आर  तन्क़ीद  में  मिट  गए

थे  मुनव्वर  कई  नाम  तारीख़  में
शाह  की  मश्क़े-तज्दीद  में  मिट  गए

ढूंढते  हैं  निशानात  तहज़ीब  के
जो  जहालत  की तह् मीद  में  मिट   गए

उम्र  भर  जो  हवस  में  भटकते  रहे
वो  फ़क़ीरों  की  तक़लीद  में  मिट  गए

हम  चराग़े-वफ़ा  थे  अज़ल  तक  जिए
क़ुमक़ुमे  रश्क़े-ख़ुर्शीद  में  मिट  गए

लोग  शिर्के-जली  में  वली  हो  गए
और  हम  फ़िक्रे-तौहीद  में  मिट  गए  !

                                                                           (2017)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ैदे-ज़िन्दां-ए-उम्मीद : आशा के कारागार का बंधन; ताईद : अनुमोदन, पक्षधरता; जज़्बात : भावनाएं; अश्'आर: (अनेक) शे'र, शे'र का बहुवचन; तन्क़ीद : टीका-टिप्पणी, आलोचना; मुनव्वर : प्रकाशवान, उज्ज्वल; तारीख़ : इतिहास; मश्क़े-तज्दीद : नवीनीकरण के प्रयास; निशानात : चिह्न (बहु.); तहज़ीब : सभ्यता; जहालत : अज्ञान, जड़ता; तह् मीद : प्रशंसा; हवस : वासना, लोभ; फ़क़ीरों : संतों, सिद्ध जन; तक़लीद : अनुकरण; चराग़े-वफ़ा : आस्था-दीप; अज़ल : प्रलय, नई सृष्टि का आरंभ; क़ुमक़ुमे : कृत्रिम, दिखावटी दीपक; रश्क़े-ख़ुर्शीद : सूर्य से ईर्ष्या; शिर्के-जली : जान-बूझ कर की जाने वाली व्यक्ति-पूजा, चापलूसी; फ़िक्रे-तौहीद: अद्वैत-चिंतन।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

शिफ़ा ज़रूरी है !

मुफ़लिसी  में  अना  ज़रूरी  है
दोस्तों  की    दुआ    ज़रूरी  है

इश्क़  से  डर  हमें  नहीं  लगता
गो  मुआफ़िक़  हवा  ज़रूरी  है

आप  तड़पाएं  या  तसल्ली   दें
दर्दे-दिल  में  शिफ़ा  ज़रूरी  है

शौक़  रखिए  तबाह  करने  का
पर  कहीं  तो  वफ़ा  ज़रूरी  है

बात  दिल  की  हो  या  ज़माने  की
साफ़  हो    मुद्द'आ   ज़रूरी  है

जुर्म  कब  तक  छुपाए  रखिएगा
आख़िरत  में  सज़ा  ज़रूरी  है

मुर्शिदों  का   मयार   पाने   को
क्या    फ़रेबे-ख़ुदा   ज़रूरी  है ?

                                                               (2017)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : मुफ़लिसी : निर्धनता; अना : स्वाभिमान; गो : यद्यपि; मुआफ़िक़ : स्वभावानुकूल; तसल्ली : सांत्वना; शिफ़ा : रोग-मुक्ति; मुद्द'आ : उचित विषय; जुर्म : अपराध; आख़िरत : परलोक, अंतिम परिणाम; मुर्शिदों : सिद्ध संतों; मयार : स्तर ।


गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

देते हो धोखा ...

देते  हो  धोखा  महफ़िल  में
क्या  शर्म  नहीं  बाक़ी  दिल  में

ज़ंग-आलूदा  हैं  सब  छुरियां
वो  बात  नहीं  अब  क़ातिल  में

मुस्तैद  रखो  फ़र्ज़ी  अपना
है  शाह  तुम्हारा  मुश्किल  में

हम  सज्दा  करते  जाते  हैं
तुम  रंज़िश  रखते  हो  दिल  में

शम्'.अ  हमसे  कह  कर  देखे
हम  आग  लगा  दें  महफ़िल  में

तूफ़ां  तो  सिर्फ़  दिखावा  है
गिर्दाब  छुपे  हैं  साहिल  में

माज़ी  को  आग  लगा  आए
देखें  क्या  है  मुस्तक़्बिल  में  !

                                                        (2017)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़िल : सभा; ज़ंग-आलूदा : ज़ंग लगी हुई, क्षरित; मुस्तैद: सन्नद्ध; फ़र्ज़ी : शतरंज के खेल का सबसे शक्तिशाली मोहरा, वज़ीर; सज्दा:आपादमस्तक प्रणाम; रंज़िश: वैमनस्य; तूफ़ां: झंझावात; गिर्दाब: भंवर, जलावर्त्त; साहिल: तट; माज़ी : अतीत; मुस्तक़्बिल : भविष्य ।