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गुरुवार, 16 जून 2016

समंदरों की सियासत ...

हमारे  दिल  की  हरारत  किसी  को  क्या  मालूम
ये:  मर्ज़  है  कि  मुहब्बत  किसी  को  क्या  मालूम

बड़े   सुकूं   से    वो:      शाने       मिलाए   बैठे   थे
कहां  हुई  है    शरारत    किसी  को    क्या  मालूम

सुबह   से     शाम   तलक     आज़माए    जाते   हैं
ये:  इम्तिहां  है  कि  चाहत  किसी  को  क्या  मालूम

किया   करो   हो     बहुत  तंज़     शक्लो-सूरत  पर
हमारे    तर्बो-तबीयत    किसी   को     क्या  मालूम

निज़ाम   को     है   फ़िक्र     बस     रसूख़दारों   की
कहां   करेंगे    इनायत    किसी   को   क्या  मालूम

हरेक   दरिय :   को    प्यारी   है    अपनी   आज़ादी
समंदरों  की    सियासत    किसी  को  क्या  मालूम

अभी-अभी    तो   कहन   में     निखार     आया  है
अभी   हमारी  मुहब्बत   किसी  को    क्या  मालूम

पढ़ी     नमाज़      न      सज्दागुज़ार     हैं     उनके
हमारा     रंगे-इबादत   किसी   को     क्या  मालूम !

                                                                                            (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हरारत : ताप ; मर्ज़ : रोग ; सुकूं : आश्वस्ति ; शाने : कंधे ; तलक : तक ; इम्तिहां : परीक्षा ; चाहत : इच्छा ; करो हो : करते हो ; तंज़ : व्यंग्य ; शक्लो-सूरत : मुखाकृति ; तर्बो-तबीयत : संस्कार और स्वभाव ; निज़ाम : प्रशासन, सरकार ; रसूख़दारों : प्रभावशाली व्यक्तियों ; इनायत : कृपा ; दरिय: : नदी ; कहन :शैली;
सज्दागुज़ार :दंडवत प्रणाम करने वाले; रंगे-इबादत : पूजा का ढंग ।

मंगलवार, 14 जून 2016

... असर जाता नहीं !

अब्र  अक्सर  वक़्त  पर  छाता  नहीं
और  मौसम  भी  ख़बर  लाता  नहीं

ख़ुदकुशी  हर  बार  दहक़ां  क्यूं  करे
कोई  हाकिम  तो  ज़हर  खाता  नहीं

फ़िक्र  होती  शाह  को  गर  मुल्क  की
तो  सितम  यूं  रिज़्क़  पर  ढाता  नहीं

चाहता  है    सर   झुकाना   वो  मेरा
पर  कभी  मजबूर  कर  पाता  नहीं

मीर  का  दीवान    हमने   छू  दिया
उम्र  गुज़री  पर  असर  जाता  नहीं

जानता  है  मौसिक़ी  के  राज़  सब
वो  परिंदा    बे-बहर     गाता  नहीं

नफ़्स  में  तू  नब्ज़  में  तू  दिल  में  तू
अक्स  तेरा  क्यूं  नज़र  आता  नहीं  ?

                                                                               (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अब्र :मेघ ; ख़ुदकुशी : आत्महत्या ; दहक़ां : कृषक ; हाकिम : अधिकारी ; सितम : अत्याचार ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; मजबूर : विवश ; मीर :हज़रत मीर तक़ी 'मीर' , उर्दू के महान शायर ; दीवान : काव्य-संग्रह ; असर : प्रभाव ; मौसिक़ी : संगीत ; राज़ : रहस्य ; परिंदा : पक्षी ;  बे-बहर : छंद के विरुद्ध ; नफ़्स : सांस ; नब्ज़ : नाड़ी ; अक्स : प्रतिबिम्ब ।

सोमवार, 13 जून 2016

शौक़े-ख़ैरात ...

दुश्मनों  की  तरह  बात  मत  कीजिए
तंग  अपने  ख़यालात  मत  कीजिए

इश्क़  है  कोई  जंगे-सियासत  नहीं
डर  लगे  तो  मुलाक़ात  मत  कीजिए

राह  रुस्वाइयों  तक  पहुंचने  लगे
इस  क़दर  सर्द  जज़्बात  मत  कीजिए

क़र्ज़  हम  पर  वफ़ा  का  बहुत  चढ़  चुका
बस  हुआ  अब  इनायात  मत  कीजिए

ज़ोम  है  इक़्तिदारे-वतन  का  जिन्हें
उन  ख़रों  से  सवालात  मत  कीजिए

कोई  मज्बूर  नज़रें  चुराने  लगे
इस  तरह  शौक़े-ख़ैरात  मत  कीजिए

लोग  नाहक़  पशेमान  हो  जाएंगे
बज़्म  में  ज़िक्रे-सदमात  मत  कीजिए

दिल  में  भी  ढूंढिए  हमको  मूसा  मियां
कोह  चढ़  कर  ख़ुराफ़ात  मत  कीजिए  !

                                                                                (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तंग : संकीर्ण ; ख़यालात : विचार ; जंगे-सियासत : राजनैतिक संघर्ष ; रुस्वाइयों : लज्जाओं ; सर्द : शीतल ; जज़्बात : भावनाएं ; क़र्ज़ : ऋण ; वफ़ा : निष्ठा ; इनायात : कृपाएं ; ज़ोम : अहंकार ; इक़्तिदारे-वतन : देश की सत्ता ; ख़रों : गधों ; सवालात : प्रश्न-उत्तर, तर्क-वितर्क ; मज्बूर : विवश व्यक्ति ; शौक़े-ख़ैरात : दान करने की प्रवृत्ति / प्रदर्शन / अहंकार ; नाहक़ : व्यर्थ, निरर्थक ; पशेमान : लज्जित ; बज़्म : सभा, समूह ; ज़िक्रे-सदमात : आघातों की चर्चा / उल्लेख ; मूसा  मियां : हज़रत मूसा अलैहि सलाम ; कोह : पर्वत ; ख़ुराफ़ात : उपद्रव ।

शनिवार, 11 जून 2016

दो ग़ज़ ज़मीन

सब्र  मत  तौलिए दिवानों  का
है  दफ़ीना  कई  ज़मानों  का

रोज़  पैग़ाम  रोज़  फ़रियादें
जी  नहीं  मानता  जवानों  का

मुल्क  के  साथ  भी  दग़ाबाज़ी
क्या  करें  आपके  बयानों  का

लूट  कहिए  डकैतियां  कहिए
मश्ग़ला  है  बड़े  घरानों  का

बेच  डालें  ज़हर  दवा  कह  कर
क्या  भरोसा  नई  दुकानों  का

सिर्फ़  दो  ग़ज़  ज़मीन  काफ़ी  है
कीजिए  क्या  बड़े  मकानों  का

मांग  ही  लें  दुआएं  अब  हम  भी
देख  लें  ज़र्फ़  आसमानों  का  !

                                                                   (2016)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : सब्र : धैर्य ; दफ़ीना : गुप्त कोष, भूमि में गड़ा कर रखा गया कोष ; ज़मानों :युगों ; पैग़ाम : संदेश ; फ़रियादें : मांगें ; दग़ाबाज़ी : छल-प्रपंच ; बयानों : वक्तव्यों ; मश्ग़ला : अभिरुचि , समय बिताने का साधन ; भरोसा : विश्वास ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; आसमानों : देवलोक ।


मंगलवार, 7 जून 2016

बयांबाज़ चाहिए ...

गुल  में  भी  हुस्ने-यार के  अंदाज़  चाहिए
ख़ामोश  रंगो-बू  को  भी  आवाज़  चाहिए

शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल  है  बहुत  मगर
मासूम  ख़यालात  को  परवाज़  चाहिए

देखे  हैं  हमने  ख़ूब  सितमगर  बयां  तिरे
अब  दिल  में  जो  निहा  हैं  वही  राज़  चाहिए

क़ुर्बान  न  हों  आप  अभी  शाह  के  लिए
मैदाने-इश्क़  में  भी  तो  जांबाज़  चाहिए

तकरीर  से  तस्वीर  बदलती  हो  तो  हमें
दोज़ख़  में  तेरी  तरहा  बयांबाज़  चाहिए

सफ़  में  हैं  तलबगार  यहां  से  वहां  तलक
मस्जिद  के  दायरे  में  करमसाज़  चाहिए

ये:  इक़्तिदारे-ज़ुल्म  कई  उम्र  जी  चुका
अब  दौरे-इंक़िलाब  का  आग़ाज़  चाहिए  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुल : पुष्प; हुस्ने-यार : प्रिय का सौन्दर्य; अंदाज़ : भंगिमा; रंगो-बू : रंग एवं गंध ; शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल : छोटे बच्चे की प्यास की तीव्रता, यहां संदर्भ कर्बला का, जहां छह माह के अली असग़र अ.स. के वध का ; मासूम : अबोध ; ख़यालात : कल्पनाओं ; परवाज़ : उड़ान ; सितमगर : अत्याचारी ; बयां : वक्तव्य ; निहा : छिपे हुए ; राज़ : रहस्य, अप्रकट उद्देश्य ; क़ुर्बान : बलि ; मैदाने-इश्क़ : प्रेम-युद्ध ; जांबाज़ : प्राण दांव पर लगाने वाला ; तकरीर : भाषण ; तस्वीर : परिदृश्य ; दोज़ख़ : नर्क ; तरहा : तरह, भांति ; बयांबाज़ : खोखली बातें करने वाला ; सफ़ : पंक्ति, नमाज़ के समय खड़े लोग ; तलबगार : याचक ; दायरे : सीमा ; करमसाज़ : कृपा करके दिखाने वाला ; इक़्तिदारे-ज़ुल्म : अत्याचार की सत्ता ; उम्र : आयु, जन्म ; दौरे-इंक़िलाब : क्रांति / परिवर्त्तन काल ; आग़ाज़ : आरंभ ।

सोमवार, 6 जून 2016

अच्छा नहीं लगा ...

दिल  को  सुजूदे-शौक़  का  चस्का  नहीं  लगा
दुनिया  को  ये:  ख़याल  भी  अच्छा  नहीं  लगा

क्या  रंज  कीजिए  कि  कोई  बेवफ़ा  हुआ
दचका  लगा  ज़रूर  प'  ज़्यादा  नहीं  लगा

कहता  रहा  क़रीब  का  रिश्ता  है  आपसे
लेकिन  हमें  वो:  शख़्स  शनासा  नहीं  लगा

उसके  सिपाहियों  ने  किया  क़त्ले-आम  जब
दिल  में  उसे  दरेग़  ज़रा-सा  नहीं  लगा

जम्हूर  की  दुआ  से  बादशाह  क्या  हुए
सौ  क़त्ल  भी  किए  तो  मुक़दमा  नहीं  लगा

है  एहतरामे-हुस्न  हमारे  मिजाज़  में
यूं  दिल  प'  कभी  दाग़े-तमन्ना  नहीं  लगा

कांधे  पे  लाद  लाए  हमें  अर्श  के  जवां
हम  ख़ुश  हैं  इस  सफ़र  में  किराया  नहीं  लगा !

                                                                                                (2016)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुजूदे-शौक़ : स्वेच्छा से/रुचि पूर्वक दंडवत करना ; चस्का : अभिवृत्ति ; रंज : खेद ; दचका : आघात ; शख़्स : व्यक्ति, शनासा: परिचित; क़त्ले-आम : व्यापक नरसंहार ; दरेग़ : दया ; जम्हूर : लोकतंत्र ; एहतरामे-हुस्न : सौंदर्य का सम्मान ; मिजाज़ : स्वभाव ; दाग़े-तमन्ना : उत्कट इच्छा का दोष ; अर्श के जवां : अर्श=आकाश, जवां : युवा, यहां आशय मृत्युदूत से ।

रविवार, 5 जून 2016

तरक़्क़ी के मा'नी

इस  तरह  तो  जहां  में  उजाला  न  हो
के:  शबे-तार  का  रंग  काला  न   हो

मैकदे  में  चला  आए  सैलाबे-नूर
मै  बहे  इस  क़दर  पीने  वाला  न  हो

शैख़  बतलाएं  कब  कब  ख़राबात  में
वो  गिरे  और  हमने  उठाया  न  हो

और  उम्मीद  क्या  कीजिए  आपसे
इश्क़  में  ही  अगर  बोल बाला  न  हो

उस  तरक़्क़ी  के  मा'नी  भला  क्या  हुए
हाथ  अत्फ़ाल  के  गर  निवाला  न  हो

कौन  उसको  कहेगा  तुम्हारी  ग़ज़ल
शे'र  दर  शे'र  जिसका  निराला  न  हो

कोई  शायर  नहीं  दो  जहां  में  जिसे
अर्श  वालों  ने  घर  से  निकाला  न  हो  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :शबे-तार: अमावस्या ; मदिरालय ; सैलाबे-नूर : प्रकाश का उत्प्लावन ; मै : मदिरा ; क़दर : सीमा तक;
शैख़ : धर्म भीरु , मदिरा विरोधी ; ख़राबात : मदिरालय ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मा'नी : अर्थ ; अत्फ़ाल : शिशुओं ; निवाला : कंवल, कौर ; अर्श वालों : आकाश वालों, ईश्वर ।