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रविवार, 26 अक्टूबर 2014

ये दरबारे-हुसैनी...

शहीदाने-वफ़ा  के  ख़ून  से  तहरीर  लिक्खी  है
ख़ुदा  ने  कर्बला  की  क्या  ग़ज़ब  तक़दीर  लिक्खी  है 



अज़ल  के  बाद  भी  ज़िंदा  रहेगा  ख़ानदां  उनका
कि  जिनके  नाम  प  तारीख़  ने  शमशीर  लिक्खी  है


कटे  बाज़ू  हज़ारों  साल  दुनिया  को  दिखाएंगे
रग़-ए-अब्बास  में  मौला,  तिरी  तासीर  लिक्खी  है


ज़मीं-ए-कर्बला  में  फिर यज़ीदी  सोच  क़ाबिज़ है
जहां  पर दास्ताने-क़त्ल-ए-शब्बीर  लिक्खी  है


ये  दरबारे-हुसैनी  है,  यहां  फ़िरक़े  नहीं  चलते
यहां  हर  क़ल्ब  में  बस  अम्न  की  तस्वीर  लिक्खी  है ...

(2014)

-सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ:

शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

नज़रिया ग़लत है....

ये  मुमकिन  नहीं  है,  कभी  दिन  न  बदलें
नए  दौर  के  साथ  कमसिन  न  बदलें

मुखौटे  जमा  कर  रखे  हैं  हज़ारों
बदलते  रहें  रोज़,  लेकिन  न  बदलें

सभी  लोग  हैं  मुतमईं  इस  शहर  के
ख़ुदा  भी  बदल  जाए,  मोहसिन  न  बदलें

बदलना  ज़रूरी  लगा  भी  उन्हें  तो
तहय्या  करेंगे,  मिरे  बिन  न  बदलें

नज़रिया  ग़लत  है  नए  हुक्मरां  का
अहद  कीजिए  वो  क़राइन  न  बदलें

ज़माना  कहां  से  कहां  आ  चुका  है
त'अज्जुब  नहीं  क्या  कि  मोमिन  न  बदलें

बड़ी  पुरअसर  है  अज़ां  दुश्मनों   की
अरज़  है  हमारी,  मुअज़्ज़िन  न  बदलें  !

                                                                                (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुमकिन: संभव;  दौर: कालखंड;  कमसिन: युवा, कम आयु वाले;  मुतमईं: आश्वस्त;  मोहसिन: कृपालु, प्रेमी;  
तहय्या: सुनिश्चित, दृढ़ संकल्प; नज़रिया: दृष्टिकोण; हुक्मरां: शासक-वर्ग; अहद: प्रण; क़राइन: सभ्यता के प्रतिमान, शिष्टाचार; 
ज़माना: समय; त'अज्जुब: आश्चर्य; मोमिन: आस्तिक जन; पुरअसर: प्रभावी; अरज़: निवेदन, प्रार्थना; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

ख़ुदा मेह्रबां है...!


दिल  बहाने   सुना   नहीं  करता
ख़्वाब   दिन  में  बुना  नहीं   करता

संगदिल  ही  सही  सनम,  लेकिन
क़त्ल  सोचे  बिना  नहीं   करता

एक  सफ़   में  नमाज़   पढ़ता  है
राह  में  सामना  नहीं   करता

कौन   उसका  ग़ुरूर  तोड़ेगा
जो   हमें  आशना  नहीं  करता

ग़ैर  के   ग़म   जिन्हें   सताते  हैं
वक़्त  उनको  फ़ना   नहीं  करता

दिल  अलहदा  दिमाग़  रखता  है
दोस्त-दुश्मन  चुना  नहीं  करता

शाह  क़ातिल,  ख़ुदा   मेह्रबां  है
जुर्म  उसके  गिना  नहीं  करता !

ताज  हो  या  मेयार  ग़ालिब  का
एक  दिन  में  बना  नहीं  करता

शायरों  से  ख़ुदा  परेशां  है
पर,  कहा  अनसुना  नहीं  करता !
                                                            (2014)

                                                    -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: संगदिल: पाषाण-हृदय; सफ़: पंक्ति; ग़ुरूर: गर्व, अहंकार; आशना: मित्र, संगी; ग़ैर: पराया; ग़म: दुःख; फ़ना: नष्ट; 
अलहदा: भिन्न, अलग; क़ातिल: हत्यारा; मेह्रबां: कृपालु; जुर्म: अपराध। 

बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

ये कैसी तरक़्क़ी ...

सुना  तो  बहुत  है,  उजाले  हुए  हैं
हक़ीक़त  में  दिल  और  काले  हुए  हैं

हमीं  पर  ख़ुदा  के  सितम  टूटते  हैं
हमीं  क्या  जहां  में  निराले  हुए  हैं  ?

ग़नीमत  है,  दिल  जिस्म  में  है  अभी  तक
मगर  हां,  जतन  से  संभाले  हुए  हैं

चुनांचे,  हमें  भी  बहुत  रंज  होगा
अगर  वो  हवा  के  हवाले  हुए  हैं

ये  कैसी  तरक़्क़ी  कि  दहक़ान  को  भी
मयस्सर  महज़  दो  निवाले  हुए  हैं

शहंशाह  ही  है,  फ़रिश्ता  नहीं  है
कहां  के  वहम  आप  पाले  हुए  हैं ? !

तुम्हीं  कोई  वाहिद  ग़ज़लगो  नहीं  हो
जहां  में  कई  ज़र्फ़   वाले  हुए  हैं

ख़ुदा  भी  बुलाए  वहां  तो  न  जाएं
कि  जिस  ख़ुल्द  से  हम  निकाले  हुए  हैं  !

                                                                        (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; सितम: अत्याचार; ग़नीमत: अच्छा, उत्तम; जिस्म: शरीर; जतन: यत्न; चुनांचे: अतएव, फलस्वरूप; रंज: खेद; हवाले: हस्तांतरित; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; दहक़ान: कृषक, खेत-मज़दूर; मयस्सर: उपलब्ध; महज़: मात्र; निवाले: कौर; 
फ़रिश्ता: देवदूत; वहम: भ्रम; वाहिद: एकमात्र, विलक्षण; ग़ज़लगो: ग़ज़ल कहने वाला; ज़र्फ़: गहराई, गंभीरता; ख़ुल्द: स्वर्ग, मिथक के अनुसार, आदि-पुरुष हज़रत आदम को ख़ुदा ने स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया था।




शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

किसी दिन रो पड़े ...

सादगी  उनकी  क़ह्र  ढाने  लगी
आइनों  पर  बे-ख़ुदी  छाने  लगी

जब  सफ़र  में  रात  गहराने  लगी
सह्र  की  उम्मीद  बहलाने  लगी

रंग  में  आए  नहीं  हैं  हम  अभी
दुश्मनों  की  रूह  घबराने  लगी

एक  रोज़ा  बढ़  गया  रमज़ान  में
मोमिनों  की  जान  पर  आने  लगी

ज़िंदगी  ने  तंज़  कोई  कर  दिया
मौत  वापस  रूठ  कर  जाने  लगी

मुफ़लिसों  की  आह  के  तूफ़ान  से
शाह  की  सरकार  थर्राने  लगी

भूल  से  भी  हम  किसी  दिन  रो  पड़े
आसमां  की  चश्म  धुंधलाने  लगी ! 


                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा;   बे-ख़ुदी: आत्म-विस्मृति; सह्र: उषा; रूह: आत्मा; रोज़ा: उपवास; रमज़ान: पवित्र माह; मोमिनों: आस्तिकों; तंज़: व्यंग्य; मुफ़लिसों: दीन-हीन; आसमां: देवलोक;  चश्म: आंख, दृष्टि।

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

बहुत ख़राब हैं हम !

हमें  क़रीब  से  देखो,  तुम्हारा  ख़्वाब  हैं  हम
जिगर  संभाल  के  रखना  कि  बे-हिजाब  हैं  हम

न  दिल  में  राज़  न  आंखों  में  मस्लेहत  कोई
किसी  भी  वर्क़  से  पढ़िए,  खुली  किताब  हैं  हम

तमाम  मन्नतों  से  हम  जहां  में  आए  हैं
बुज़ुर्गो-वाल्दैन  का  कोई  सवाब  हैं  हम

तुम्हारा  साथ  निभाएंगे  हर  ख़ुशी-ग़म  में
तरह-तरह  के  रंग  में  खिले  गुलाब  हैं  हम

हमारा  काम  एहतेरामे-हुस्न  है  यूं  तो
किसी-किसी  निगाह  में  बहुत  ख़राब  हैं  हम

हुआ  करें  हुज़ूर  शाहे-हिंद,  हमको  क्या  ?
रियासते-ख़ुलूसो-उन्स  के  नवाब  हैं  हम 

किसी  की  ख़ुल्द,  किसी  का  जहां,  किसी  का  दिल 
जहां  कहीं   रहें,  वहीं  पे   लाजवाब  हैं  हम  !

                                                                                    (2014)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जिगर: मन; बे-हिजाब: निरावरण; मस्लेहत: गुप्त उद्देश्य; वर्क़: पृष्ठ; बुज़ुर्गो-वाल्दैन: पूर्वज और माता-पिता; सवाब: पुण्य; एहतेरामे-हुस्न: सौंदर्य का सम्मान; निगाह: दृष्टि; शाहे-हिंद: भारत का राजा; रियासते-ख़ुलूसो-उन्स: आत्मीयता और स्नेह का राज्य; नवाब: राजा; ख़ुल्द: स्वर्ग; जहां: संसार ।

बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

रूह में सुबह रखना ...

क़ल्ब   में  दर्द  की  जगह  रखना
विसाले-यार   की   वजह  रखना

नज़र  में  आएंगे   अंधेरे   भी
बचा  के  रूह  में  सुबह  रखना

शह्र   के  रंग-ढंग  ठीक  नहीं
ज़रा  आमाल  पर  निगह  रखना

वो  आ  रहे  हैं  फ़ैसला  करने
दिलो-दिमाग़  में  सुलह  रखना

कभी  न  ख़ुश्क  हों  हसीं  आंखें
बचा  के  अश्क  इस  तरह  रखना

उतर  रहे  हो  जंगे-ईमां  में
ज़ेह्न  में  जज़्ब:-ए-फ़तह  रखना

अभी  हैं  राह  में,  पहुंचते  हैं
ख़ुदा  से  आप  ज़रा  कह  रखना !

                                                                (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ल्ब: हृदय; विसाले-यार: प्रिय से मिलन; वजह: कारण; रूह: आत्मा, अंतर्मन; शह्र: शहर, नगर; आमाल: आचरण; 
निगह: निगाह का लघु, दृष्टि; दिलो-दिमाग़: मन-मस्तिष्क; सुलह: समझौते की भावना; ख़ुश्क: शुष्क; जंगे-ईमां: निष्ठा का/ वैचारिक युद्ध; ज़ेह्न: मस्तिष्क, ध्यान; जज़्ब:-ए-फ़तह: विजय का भाव।