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सोमवार, 22 सितंबर 2014

जन्नते-शद्दाद...

ख़ुदा  का  काम है,  उसने  हमें   बर्बाद  कर  डाला
तुम्हें  किस  शै  ने  क़ैदे-जिस्म  से  आज़ाद  कर  डाला ?

नज़रसाज़ी  हुनर  है  जो  विरासत  में  नहीं  मिलता
अरूज़े-ज़ीस्त  में  जिसने  हमें  उस्ताद  कर  डाला

असर  कैसे  न  होगा  गर  दिले-बुलबुल  से  निकलेगी
दबी-सी  आह  ने  घायल  दिले-सैयाद  कर  डाला 

मरहबा  कह  रहे  हैं  सब  निगाहे-नाज़  पर  तेरी
दिले-नाशाद  को  जिसने  दिले-नौशाद  कर  डाला

कन्हैया  नाम  था  उस  तिफ़्ल   का  बंशी  बजाता  था
कि  जिसकी  तान  ने  दोनों  जहां  को  शाद  कर  डाला

हमारा  भी  नशेमन  फूंक  डाला   फ़ौजे-शाही  ने 
मगर  इस  आतिशे-ग़म ने  हमें  फ़ौलाद  कर  डाला

न  जाने  किस  तरह  की  सोच  लेकर  आए  हैं  साहब
ख़्याले-हिंद  को  भी  जन्नते-शद्दाद  कर  डाला  !

                                                                                              (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शै: वस्तु/व्यक्ति/शक्ति; क़ैदे-जिस्म: शरीर के बंधन; नज़रसाज़ी: विश्लेषण हेतु सोद्देश्य दृष्टि-निपात; हुनर: कौशल; विरासत:उत्तराधिकार; दिले-बुलबुल: बुलबुल का हृदय; दिले-सैयाद; बहेलिये का हृदय; मरहबा; धन्य-धन्य; तिफ़्ल: शिशु; शाद; प्रसन्न, सुखी; निगाहे-नाज़: भावपूर्ण दृष्टि; दिले-नाशाद: दु:खी हृदय; दिले-नौशाद: अभी-अभी प्रसन्न हुए व्यक्ति का हृदय; नशेमन: घर, घोंसला;   फ़ौजे-शाही: राजा की सेना; आतिशे-ग़म: दु:ख की अग्नि; फ़ौलाद: इस्पात; ख़्याले-हिंद: भारत का विचार/दर्शनिकता; जन्नते-शद्दाद: शद्दाद का स्वर्ग-मिस्र का एक अधर्मी-नास्तिक शासक शद्दाद अपने-आप को ख़ुदा मानता था । उसने इसे स्वीकार्य बनाने के लिए एक कृत्रिम स्वर्ग का निर्माण किया था। माना जाता है कि इस 'स्वर्ग' में प्रवेश करने के पूर्व ही, इसके द्वार पर उसके पुत्र ने उसकी हत्या कर दी थी।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

ताज ज़ेरे-कदम नहीं होता !

ज़ुल्म  नालों  से  कम  नहीं  होता
बुज़दिलों  पर  करम  नहीं  होता

जो  रिआया  में  दम  नहीं  होता
ताज    ज़ेरे-कदम     नहीं  होता 

बढ़  रहे  हैं  सितम  हुकूमत  के
हौसला  है  कि  कम  नहीं  होता

बात  कहते   अगर   सलीक़े  से
सामईं  को    भरम   नहीं  होता

शाह  से    आप    डर  गए  होंगे 
सर  हमारा  तो  ख़म  नहीं  होता

चांद  रौशन  रहे  कि  बुझ  जाए
दाग़े-दामान    कम   नहीं  होता

वस्ल  में  नफ़्स  थम  गई  वर्ना
ख़ुदकुशी  का  वहम  नहीं  होता

रोज़  सज्दे  करे  नज़र  फिर  भी
वो  मिरा   हमक़दम   नहीं  होता 

जान     किरदार  में   नहीं  आती
गर  ख़ुदा   बे-रहम   नहीं  होता ! 

                                                             (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुल्म: अन्याय; नालों: आर्त्तनादों; बुज़दिलों: कायरों; करम: (ईश्वरीय) कृपा; रिआया: प्रजा, नागरिक; दम: शक्ति; ताज: राजमुकुट; ज़ेरे-कदम: पांव के नीचे; सितम: अत्याचार;  हुकूमत: शासन, सरकार; हौसला: उत्साह; सलीक़े से: व्यवस्थित रूप से; सामईं: श्रोता-गण; रौशन: प्रकाशित; दाग़े-दामान: उपरिवस्त्र के पल्लू या हृदय-स्थल पर लगा कलंक; वस्ल: मिलन; नफ़्स: सांस; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; वहम: संदेह; सज्दे: शीश भूमि पर झुका कर किया जाने वाला प्रणाम; हमक़दम: सहयात्री; किरदार: चरित्र; गर: यदि; बे-रहम: निर्दय।


मंगलवार, 16 सितंबर 2014

एक गुज़ारिश...

दिल  से  हमें  निजात  दिला  दीजिए  हुज़ूर
हो  कोई  ख़रीदार,  मिला  दीजिए  हुज़ूर

सदियां  गईं  सुरूरे-नज़्र  में  जनाब  के
अब  तो  दवाए-होश  पिला  दीजिए  हुज़ूर

ये   हिज्र  तोड़िए  कि  कह  सकें  नई  ग़ज़ल
मरते  हुए  ख़याल  जिला  दीजिए  हुज़ूर 

दावा  नहीं  प'  एक  गुज़ारिश  ज़ुरूर  है
दिल  से  मिरी  ख़ताएं  भुला  दीजिए  हुज़ूर

दुनिया-ए-हुस्नो-इश्क़  ख़ुदा  का  निज़ाम  है
नफ़रत  की  हर  किताब  जला  दीजिए  हुज़ूर

इंसान  के  अज़ीम  फ़राइज़  तमाम  हैं
मुस्कान  किसी  लब  प'  खिला  दीजिए  हुज़ूर

बदनाम  न  हो  जाए  इबादत  का  सिलसिला
मोमिन  को  एक  बार  सिला  दीजिए  हुज़ूर  !

                                                                                 (2014)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: निजात: मुक्ति, छुटकारा; सुरूरे-नज़्र: दृष्टि का मद; हिज्र: वियोग; ख़याल: कल्पनाएं; गुज़ारिश: निवेदन; ख़ताएं: अपराध; 
दुनिया-ए-हुस्नो-इश्क़: सौन्दर्य और प्रेम का संसार; निज़ाम: व्यवस्था; नफ़रत: घृणा; अज़ीम: महान, बड़े;  फ़राइज़: कर्त्तव्य;  
लब: ओष्ठ; इबादत: पूजा; सिलसिला: क्रम, परंपरा; मोमिन: आस्थावान; सिला: प्रतिफल।



सोमवार, 15 सितंबर 2014

...नींद उड़ाने वाले !

सामने  आएं  ज़रा    आंख  चुराने  वाले
दीद  के  नाम  प'  एहसान  जताने  वाले

आज  की  रात  क़यामत  ज़रूर  उतरेगी
याद  आए  हैं  हमें     नींद  उड़ाने  वाले

ख़ूब  देखे  हैं  अह् ले-हिंद  ने  सिकंदर  भी
सर  झुकाए  ही  गए  तेग़  उठाने  वाले

कोई  हिटलर,  कोई  तोजो  न  मिलेगा  ढूंढे
ज़िद  प'  आएं  तो  सही  जान  लड़ाने  वाले

चीर  कर  देख  लें  रग़-रग़  में  लहू  की  रंगत
आएं  मैदान  में  इल्ज़ाम  लगाने  वाले

शुक्र  करते  हैं  अदा  रोज़  ख़ुदा  का  अपने
बे-ख़याली  में  हमें  दोस्त  बनाने  वाले

मौत  तेरा  भी  किसी  रोज़  गिरेबां  लेगी
ज़ुल्म  मासूम  ग़रीबों  प'  ढहाने  वाले  !

                                                                             (2014)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीद: दर्शन; एहसान: अनुग्रह; क़यामत: प्रलय; अह् ले-हिंद: भारत के निवासी; सिकंदर: सिकंदर महान, प्राचीन यूनान का प्रख्यात योद्धा जिसने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में भारत पर आक्रमण किया था; तेग़: तलवार; हिटलर: जर्मनी का नस्लवादी तानाशाह, जिसने दूसरे विश्व-युद्ध में लाखों यहूदियों का संहार किया; तोजो: जापान का तानाशाह; इल्ज़ाम: आरोप; बे-ख़याली: आत्म-विस्मृति; गिरेबां: गर्दन; ज़ुल्म: अत्याचार; मासूम: निर्दोष, निरपराध ।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

...तो बेहतर था !

मैं  शीशा  हूं,  वो  पत्थर  था
वही  टूटा,  जो  कमतर   था

न  पीता  मैं  तो  क्या  करता
तिरी  आंखों  में    साग़र  था

यक़ीं  सबने  किया  मुझ  पर
मैं  जो  अंदर  था,  बाहर  था

हमारे  दिल  की  मत  पूछो
हमेशा  से        समंदर  था 

ज़माने      को     बदल  देता 
अगर  वो  शख़्स  साहिर  था

मिटा  डाला      हमें  दिल  ने
न  दिल  होता  तो  बेहतर  था

ख़ुदा  का    ख़ौफ़   था  सबको
मुझे  इंसान  का      डर  था 

ख़ुदा  मैं     हो  नहीं    पाया
मिरा  हर  राज़  ज़ाहिर  था !

                                              (2014)

                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  शीशा: कांच; कमतर: हीन; साग़र: मदिरा-पात्र; यक़ीं: विश्वास; समंदर: समुद्र; शख़्स: व्यक्ति;  साहिर: मायावी, माया रचने वाला; ख़ौफ़: भय; राज़: रहस्य;  ज़ाहिर: प्रकट। 

मौत मग़रिब तलक...

वक़्त  रहते  संभल  जाए  गर  ज़िंदगी
क्यूं  बने  हादसों  का  सफ़र  ज़िंदगी

लाज़िमी  है  कि  अब  सर  बचा  कर  चलें
वक़्त  तलवार  है,  धार  पर  ज़िंदगी

रोज़  बन  कर  गिरे  हस्रतों  के  महल 
रोज़  होती  रही  दर-ब-दर  ज़िंदगी

देखिए,   सोचिए,   तब्सिरा  कीजिए
क्यूं  बनी  ख़ुदकुशी  की  ख़बर  ज़िंदगी

छूटती  जा  रही  हाथ  से  दम-ब-दम
तेज़  रफ़्तार  की  है  बहर  ज़िंदगी

दौड़ती  जा  रही  है  अज़ल  की  तरफ़
आज  अंजाम  से  बे-ख़बर  ज़िंदगी

नूर  के  शौक़  में  हम  शम्'अ  यूं  हुए
मौत  मग़रिब  तलक,  रात  भर  ज़िंदगी  !

                                                                     (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; हादसों: दुर्घटनाओं; लाज़िमी: स्वाभाविक; हस्रतों: इच्छाओं; तब्सिरा: समीक्षा; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; 
बहर: छंद, लय; अज़ल: प्रलय; अंजाम: परिणति; नूर: प्रकाश; मग़रिब: सूर्यास्त ।



शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

रौशनी की ख़बर...

तेरी  ख़्वाहिशों  का  पता  नहीं
कि  तू  दोस्त  बन के  मिला  नहीं

तू  न  पीर  है  न  फ़क़ीर  है
तेरी  मजलिसों  में  शिफ़ा नहीं

तुझे  रौशनी  की  ख़बर  कहां
तू  चराग़  बन  के  जला  नहीं

ये  मेरी  ख़ुदी  की  मिसाल  है
मैं  किसी  के  दर  पे  झुका  नहीं

मैं  जहां  से  दूर  निकल  गया
मुझे  अब  किसी  से  गिला  नहीं

जो  चला  गया  वो  सनम  न  था
जो  मिला  हमें  वो  ख़ुदा  नहीं

मेरा  अज़्म  है   तेरा  नूर  है
कुछ  मांगने  को  बचा  नहीं  ! 

                                                          (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; पीर: सिद्ध व्यक्ति;   फ़क़ीर: संत; मजलिसों: सभाओं; शिफ़ा: समाधान; 
              ख़ुदी: स्वाभिमान; मिसाल: उदाहरण; गिला: असंतोष; सनम: सच्चा प्रेमी; अज़्म: अस्मिता।