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सोमवार, 15 सितंबर 2014

...नींद उड़ाने वाले !

सामने  आएं  ज़रा    आंख  चुराने  वाले
दीद  के  नाम  प'  एहसान  जताने  वाले

आज  की  रात  क़यामत  ज़रूर  उतरेगी
याद  आए  हैं  हमें     नींद  उड़ाने  वाले

ख़ूब  देखे  हैं  अह् ले-हिंद  ने  सिकंदर  भी
सर  झुकाए  ही  गए  तेग़  उठाने  वाले

कोई  हिटलर,  कोई  तोजो  न  मिलेगा  ढूंढे
ज़िद  प'  आएं  तो  सही  जान  लड़ाने  वाले

चीर  कर  देख  लें  रग़-रग़  में  लहू  की  रंगत
आएं  मैदान  में  इल्ज़ाम  लगाने  वाले

शुक्र  करते  हैं  अदा  रोज़  ख़ुदा  का  अपने
बे-ख़याली  में  हमें  दोस्त  बनाने  वाले

मौत  तेरा  भी  किसी  रोज़  गिरेबां  लेगी
ज़ुल्म  मासूम  ग़रीबों  प'  ढहाने  वाले  !

                                                                             (2014)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीद: दर्शन; एहसान: अनुग्रह; क़यामत: प्रलय; अह् ले-हिंद: भारत के निवासी; सिकंदर: सिकंदर महान, प्राचीन यूनान का प्रख्यात योद्धा जिसने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में भारत पर आक्रमण किया था; तेग़: तलवार; हिटलर: जर्मनी का नस्लवादी तानाशाह, जिसने दूसरे विश्व-युद्ध में लाखों यहूदियों का संहार किया; तोजो: जापान का तानाशाह; इल्ज़ाम: आरोप; बे-ख़याली: आत्म-विस्मृति; गिरेबां: गर्दन; ज़ुल्म: अत्याचार; मासूम: निर्दोष, निरपराध ।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

...तो बेहतर था !

मैं  शीशा  हूं,  वो  पत्थर  था
वही  टूटा,  जो  कमतर   था

न  पीता  मैं  तो  क्या  करता
तिरी  आंखों  में    साग़र  था

यक़ीं  सबने  किया  मुझ  पर
मैं  जो  अंदर  था,  बाहर  था

हमारे  दिल  की  मत  पूछो
हमेशा  से        समंदर  था 

ज़माने      को     बदल  देता 
अगर  वो  शख़्स  साहिर  था

मिटा  डाला      हमें  दिल  ने
न  दिल  होता  तो  बेहतर  था

ख़ुदा  का    ख़ौफ़   था  सबको
मुझे  इंसान  का      डर  था 

ख़ुदा  मैं     हो  नहीं    पाया
मिरा  हर  राज़  ज़ाहिर  था !

                                              (2014)

                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  शीशा: कांच; कमतर: हीन; साग़र: मदिरा-पात्र; यक़ीं: विश्वास; समंदर: समुद्र; शख़्स: व्यक्ति;  साहिर: मायावी, माया रचने वाला; ख़ौफ़: भय; राज़: रहस्य;  ज़ाहिर: प्रकट। 

मौत मग़रिब तलक...

वक़्त  रहते  संभल  जाए  गर  ज़िंदगी
क्यूं  बने  हादसों  का  सफ़र  ज़िंदगी

लाज़िमी  है  कि  अब  सर  बचा  कर  चलें
वक़्त  तलवार  है,  धार  पर  ज़िंदगी

रोज़  बन  कर  गिरे  हस्रतों  के  महल 
रोज़  होती  रही  दर-ब-दर  ज़िंदगी

देखिए,   सोचिए,   तब्सिरा  कीजिए
क्यूं  बनी  ख़ुदकुशी  की  ख़बर  ज़िंदगी

छूटती  जा  रही  हाथ  से  दम-ब-दम
तेज़  रफ़्तार  की  है  बहर  ज़िंदगी

दौड़ती  जा  रही  है  अज़ल  की  तरफ़
आज  अंजाम  से  बे-ख़बर  ज़िंदगी

नूर  के  शौक़  में  हम  शम्'अ  यूं  हुए
मौत  मग़रिब  तलक,  रात  भर  ज़िंदगी  !

                                                                     (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; हादसों: दुर्घटनाओं; लाज़िमी: स्वाभाविक; हस्रतों: इच्छाओं; तब्सिरा: समीक्षा; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; 
बहर: छंद, लय; अज़ल: प्रलय; अंजाम: परिणति; नूर: प्रकाश; मग़रिब: सूर्यास्त ।



शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

रौशनी की ख़बर...

तेरी  ख़्वाहिशों  का  पता  नहीं
कि  तू  दोस्त  बन के  मिला  नहीं

तू  न  पीर  है  न  फ़क़ीर  है
तेरी  मजलिसों  में  शिफ़ा नहीं

तुझे  रौशनी  की  ख़बर  कहां
तू  चराग़  बन  के  जला  नहीं

ये  मेरी  ख़ुदी  की  मिसाल  है
मैं  किसी  के  दर  पे  झुका  नहीं

मैं  जहां  से  दूर  निकल  गया
मुझे  अब  किसी  से  गिला  नहीं

जो  चला  गया  वो  सनम  न  था
जो  मिला  हमें  वो  ख़ुदा  नहीं

मेरा  अज़्म  है   तेरा  नूर  है
कुछ  मांगने  को  बचा  नहीं  ! 

                                                          (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; पीर: सिद्ध व्यक्ति;   फ़क़ीर: संत; मजलिसों: सभाओं; शिफ़ा: समाधान; 
              ख़ुदी: स्वाभिमान; मिसाल: उदाहरण; गिला: असंतोष; सनम: सच्चा प्रेमी; अज़्म: अस्मिता। 




गुरुवार, 4 सितंबर 2014

गुनाहों का असर...

जब  कोई  ख़्वाब  निगाहों  में  संवर आता  है
ख़ुश्क  होठों   पे   तेरा  नक़्श  उभर  आता  है

चांद  गुस्ताख़  परिंदे  की  तरह  उड़ता  है
और  हर  रात  मेरी   छत  पे  उतर  आता  है

ये  ज़ईफ़ी  की  सज़ा है  कि  दौरे-कमज़र्फ़ी
जो  भी  आता  है  वो  मानिंदे-ख़बर  आता  है

शाह  करता  है  ख़ता  एक  किसी  लम्हे  में
सात  पुश्तों  पे  गुनाहों  का  असर  आता  है

इल्मो-फ़न  से  परे,  एहसासे-ज़िंदगी  है  तू
और  एहसास  कभी  ज़ेरे-बहर  आता  है ?

अलविदा  कहके  निकल  जाएंगे  ज़माने  से
हर्फ़  ईमां  पे  किसी  रोज़  अगर  आता  है

तेरे  वजूद  तलक  मेरी  नज़र  की  हद  है
और  ताहद्दे-नज़र  तू  ही  नज़र  आता  है  !

                                                                          (2014)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुश्क: सूखे; नक़्श: चिह्न, खुदा हुआ चिह्न; गुस्ताख़  परिंदे: दुस्साहसी पक्षी; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; दौरे-कमज़र्फ़ी: ओछेपन का युग; मानिंदे-ख़बर: समाचार की भांति; ख़ता: अपराध; लम्हे: क्षण; पुश्तों: पीढ़ियों; गुनाहों: अपराधों; इल्मो-फ़न: कला-कौशल; 
एहसासे-ज़िंदगी: जीवनानुभूति; ज़ेरे-बहर: छंद के अधीन; हर्फ़: दोष, आरोप; ईमां: आस्था; वजूद तलक: अस्तित्व तक; हद: सीमा; ताहद्दे-नज़र: दृष्टि की सीमा तक। 

बुधवार, 3 सितंबर 2014

ज़िंदगी का यक़ीं...

दोस्तों  के  दिलों  में  रहम  आ  गया
या  हमारे  ज़ेह् न  में  भरम  आ  गया ?

ख़ुशनसीबी  कि  तुम  राह  में  मिल  गए
बदनसीबी  कि  दिल  में  वहम  आ  गया 

मैकदे  से  पिए  बिन  पलट  आए  हम
राह  में  एक   शैख़े -हरम   आ  गया

मुफ़लिसों  की  गली  में  दुआएं  मिलीं,
'हमज़ुबां  आ  गया',  'हमक़दम  आ  गया'

शाह  बदले,  न  बदला  रवैया  कभी
इक  नया  दौरे-ज़ुल्मो-सितम  आ  गया

ज़िंदगी  का  यक़ीं  तो  हमें  भी  न  था
मल्कुले-मौत  भी दम-ब-दम  आ  गया

देख  लीजे  हमारी  अज़ाँ   का  असर
तूर   पर  कारसाज़े-करम  आ  गया  !

                                                                    (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहम: दया; ज़ेह् न: मस्तिष्क; भरम: भ्रम; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; बदनसीबी: दुर्भाग्य; वहम: शंका, संदेह; मैकदे: मदिरालय; शैख़े -हरम: का'बे में रहने वाला, धर्म-भीरु; मुफ़लिसों: वंचितों; हमज़ुबां: हमारी भाषा बोलने वाला; हमक़दम: साथ में चलने वाला; रवैया: रंग-ढंग; दौरे-ज़ुल्मो-सितम: अन्याय और अत्याचार का युग;  यक़ीं: विश्वास; मल्कुले-मौत: मृत्यु-दूत; दम-ब-दम: तुरत-फ़ुरत, तत्परता से; तूर: मिस्र के साम में एक पर्वत, मिथक के अनुसार इसकी चोटी पर हज़रत मूसा अ.स. के पुकारने पर ख़ुदा ने उन्हें अपनी झलक दिखाई थी; कारसाज़े-करम: कृपा-कर्त्ता, कृपा को संभव बनाने वाला।


सोमवार, 1 सितंबर 2014

...शराफ़त चाहते हैं !

नए  एहबाब  कुछ  ज़्याद:  मुहब्बत  चाहते  हैं
हमारी  ज़ात  पर  अपनी  हुकूमत  चाहते  हैं

वो  देना  चाहते  हैं  दिल  हमें  इक शर्त्त  रख  कर
हमारी       दौलते-ईमां    अमानत  चाहते  हैं

हमारी  नींद  को  आज़ाद  करने  के  लिए  वो
किसी  मश्हूर  हस्ती  की  ज़मानत  चाहते  हैं

किसी  दिन  पूछिए  दिल  से  नीयत  में  खोट  क्या  है
हसीं  क्यूं  कर  निगाहों   में  शराफ़त  चाहते  हैं

दरख़्तों  का  यक़ीं   ही  उठ  गया  है  मौसमों  से
हरे  पत्ते  हवाओं  से  हिफ़ाज़त  चाहते  हैं

मिटाना  चाहता  है  तो  मिटा  दे,  देर  कैसी
कहां  हम  शाह  से  कोई  रियायत  चाहते  हैं

दिलों  में  फ़र्क़  पैदा  कर  हमारे  हुक्मरां  अब
ख़ुदा  के  नाम  पर  अपनी  सियासत  चाहते  हैं !

                                                                                    (2014)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहबाब: मित्र, प्रेमी; ज़ात: सर्वस्व; हुकूमत: शासन; दौलते-ईमां: आस्था की संपत्ति;   अमानत: धरोहर, सुरक्षा-निधि; 
मश्हूर हस्ती: प्रसिद्ध व्यक्ति; ज़मानत: प्रतिभूति; शराफ़त: शिष्टता; दरख़्तों: वृक्षों; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; रियायत: छूट; 
हुक्मरां: शासक-गण; सियासत: राजनीति।