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बुधवार, 24 जनवरी 2018

बाज़ को आस्मां...

हम  ख़ुदा  के  क़रीब  रहते  हैं
वां,  जहां  बदनसीब   रहते   हैं

बन  रही  है  वहां  स्मार्ट  सिटी
जिस जगह सब ग़रीब रहते  हैं

कर रहे हैं गुज़र  जहां पर हम
हर  मकां  में  रक़ीब  रहते  हैं

बाज़ को आस्मां  मिला  जबसे
ख़ौफ़  में   अंदलीब    रहते  हैं

शाह कुछ अहमियत नहीं  देते
किस वहम में  अदीब  रहते हैं

हम  परस्तारे-दिल  कहां  बैठें
दूर    हमसे   नजीब   रहते  हैं

ख़ुल्द   बीमारे-इश्क़  क्यूं  जाएं
क्या  वहां  पर  तबीब  रहते  हैं  ?!

                                                                 (2018)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल   

शब्दार्थ: वां: वहां; बदनसीब: अभागे; बाज़: श्येन, एक शिकारी पक्षी; आस्मां: आकाश, सर्वोच्च स्थान; ख़ौफ़: आतंक, भय; अंदलीब: कोयलें; अहमियत: महत्व; वहम: भ्रम, संदेह; अदीब: साहित्यकार; परस्तारे-दिल: हृदय के पुजारी; नजीब: श्रेष्ठि जन, उच्च कुलीन; ख़ुल्द: स्वर्ग; तबीब: औषधि देने वाले, वैद्य।       

4 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना सोमवार २६जनवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय सुरश की सार्थक और उम्दा शेरों से सजी रचना हृदयस्पर्शी है | रचना और आज के शुभ दिन के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं |

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