क़फ़स में भी नमाज़ें गिन रहे हैं
अक़ीदत की सलाख़ें गिन रहे हैं
हुकूमत कर रहे हैं या तमाशा
ख़िज़ां में भी बहारें गिन रहे हैं
जहालत के ज़हर का ही असर है
बुज़ुर्गों की ख़ताएं गिन रहे हैं
हमारे दुश्मनों का साथ दे कर
हमारे दोस्त आहें गिन रहे हैं
अलिफ़ अल्लाह का जो पढ़ न पाए
मज़ाहिब की किताबें गिन रहे हैं
ख़ुदा हमसे ख़ुदा से हम परेशां
मरासिम की दरारें गिन रहे हैं
शबे-आख़िर भी हम तन्हा नहीं हैं
फ़रिश्तों की क़तारें गिन रहे हैं !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ :
अक़ीदत की सलाख़ें गिन रहे हैं
हुकूमत कर रहे हैं या तमाशा
ख़िज़ां में भी बहारें गिन रहे हैं
जहालत के ज़हर का ही असर है
बुज़ुर्गों की ख़ताएं गिन रहे हैं
हमारे दुश्मनों का साथ दे कर
हमारे दोस्त आहें गिन रहे हैं
अलिफ़ अल्लाह का जो पढ़ न पाए
मज़ाहिब की किताबें गिन रहे हैं
ख़ुदा हमसे ख़ुदा से हम परेशां
मरासिम की दरारें गिन रहे हैं
शबे-आख़िर भी हम तन्हा नहीं हैं
फ़रिश्तों की क़तारें गिन रहे हैं !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ :
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