ख़ौफ़ में जी रहे हैं तरफ़दारे-दिल
घूमते हैं खुले अब गुनह्गारे-दिल
मुत्मईं हैं कि मग़रिब न होगी कभी
तीरगी को समझते हैं अन्वारे-दिल
ख़ुश्बू-ए-यार से तर हवा की क़सम
ठीक लगते नहीं आज आसारे-दिल
कोई क़ीमत रही ही नहीं इश्क़ की
हर गली में हैं गुलज़ार बाज़ारे-दिल
सख़्तजानी-ए-हालात क्या पूछिए
मांगते हैं लहू रोज़ किरदारे-दिल
उम्र भर जो अक़ीदत से ख़ाली रहे
आख़िरश हो गए वो परस्तारे-दिल
आख़िरत के लिए हमसफ़र चाहिए
ग़ौर से पढ़ रहे हैं वो अख़बारे-दिल
एक ग़ालिब ही हम पर मेह्र्बां नहीं
मीर भी हैं हमारे तलबगारे- दिल !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ :
घूमते हैं खुले अब गुनह्गारे-दिल
मुत्मईं हैं कि मग़रिब न होगी कभी
तीरगी को समझते हैं अन्वारे-दिल
ख़ुश्बू-ए-यार से तर हवा की क़सम
ठीक लगते नहीं आज आसारे-दिल
कोई क़ीमत रही ही नहीं इश्क़ की
हर गली में हैं गुलज़ार बाज़ारे-दिल
सख़्तजानी-ए-हालात क्या पूछिए
मांगते हैं लहू रोज़ किरदारे-दिल
उम्र भर जो अक़ीदत से ख़ाली रहे
आख़िरश हो गए वो परस्तारे-दिल
आख़िरत के लिए हमसफ़र चाहिए
ग़ौर से पढ़ रहे हैं वो अख़बारे-दिल
एक ग़ालिब ही हम पर मेह्र्बां नहीं
मीर भी हैं हमारे तलबगारे- दिल !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ :
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