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रविवार, 16 अप्रैल 2017

गुलज़ार बाज़ारे-दिल ...

ख़ौफ़  में  जी  रहे  हैं  तरफ़दारे-दिल
घूमते  हैं  खुले   अब   गुनह्गारे-दिल

मुत्मईं  हैं  कि  मग़रिब  न  होगी  कभी
तीरगी  को  समझते  हैं   अन्वारे-दिल

ख़ुश्बू-ए-यार  से  तर  हवा  की  क़सम
ठीक  लगते  नहीं  आज  आसारे-दिल

कोई  क़ीमत  रही  ही  नहीं  इश्क़  की
हर  गली  में  हैं  गुलज़ार   बाज़ारे-दिल

सख़्तजानी-ए-हालात        क्या  पूछिए
मांगते  हैं  लहू    रोज़     किरदारे-दिल

उम्र  भर  जो  अक़ीदत  से  ख़ाली  रहे
आख़िरश  हो  गए    वो  परस्तारे-दिल

आख़िरत  के  लिए    हमसफ़र  चाहिए
ग़ौर  से  पढ़  रहे  हैं  वो  अख़बारे-दिल

एक  ग़ालिब  ही  हम  पर  मेह्र्बां  नहीं
मीर  भी  हैं     हमारे    तलबगारे- दिल  !

                                                                         (2017)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : 

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