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शुक्रवार, 18 मार्च 2016

दरपेश हक़ीक़त

हम  इश्क़  नहीं  करते  तो  क्या  इस  दुनिया  के  इंसान  नहीं
शाइस्ता  हैं  तो  क्या  हमको  दिल  वालों  की  पहचान   नहीं

इस  मुल्क  के  ज़र्रे-ज़र्रे  पर  हक़  है  मज़्लूम  ग़रीबों  का
सरमाए  वाले  भूल  गए  हम  मालिक  हैं  मेहमान  नहीं

इस  रिज़्क़  के   दाने-दाने  में  है  ख़ून-पसीना  भी  शामिल
यह  अपनी  नेक  कमाई  है  ज़रदारों  का  एहसान  नहीं

दहशत  फैलाने  वालों  के  पीछे  सरकारी  फ़ौजें   हैं 
सच  कहने  में  भी  ख़तरा है  चुप  रहना  भी  आसान  नहीं

इस  ज़ोर-ज़ुल्म  के  मौसम  में  कुछ  लोग  घरों  में  दुबके  हैं
ये  किस  मिट्टी  के  लौंदे  हैं  जिनके  दिल  में  तूफ़ान  नहीं

हम  पस्मांदा  इंसानों  की  साझा  है  जंग  हुकूमत  से
दरपेश  हक़ीक़त  है  सबके  दुश्मन  सच  से अनजान  नहीं

वो:  वक़्ते-जनाज़ा  आए  हैं  इज़्हारे-अदावत  करने  को
अफ़सोस !  मगर  अब  सीने  में  जीने  का  ही  अरमान  नहीं !

                                                                                                            (2016)

                                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शिष्ट, सभ्य; दिलवालों : सहृदय व्यक्तियों; ज़र्रे-ज़र्रे : कण-कण ; हक़ : अधिकार ; मज़्लूम : अन्याय-पीड़ित; सरमाए वाले: पूंजीपति ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; नेक : भली ; ज़रदारों : स्वर्णशाली, समृद्ध जनों ; एहसान : अनुग्रह ; दहशत : आतंक ; ज़ोर-ज़ुल्म : अत्याचार एवं अन्याय ; पस्मांदा : दलित-शोसित ; जंग : संघर्ष ;  hहुकूमत : शासक वर्ग। सरकारी तंत्र ; दरपेश ; द्वार के आगे, समक्ष ; वक़्ते-जनाज़ा : अर्थी उठने के समय ; इज़्हारे-अदावत : शत्रुता का उद्घोष, स्वीकार ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये दिनांक 20/03/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....
    धन्यवाद...

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