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गुरुवार, 28 जनवरी 2016

...दिलजले भी रहें !

मुश्किलें    भी  रहें    फ़ासले     भी  रहें
पर  कहीं  इश्क़  के  सिलसिले  भी  रहें

जी  हमें   प्यार  है   अपनी   तन्हाई  से
दोस्तों    के   कभी    क़ाफ़िले    भी  रहें

क़िस्स:-ए-इश्क़  में    ताज़गी  के  लिए
क्या  बुरा  है  कि  शिकवे-गिले  भी  रहें

आक़बत    शायरी    से    संवर  जाएगी
ज़ीस्त  में  रिज़्क़  के  मशग़ले  भी  रहें

है  रग़ों  में   रवां   गर्म  ख़ूं   जब  तलक
जंग  में    फ़त्ह   के    वल्वले    भी  रहें

ये:   ख़राबात   है    लाह  का    दर  नहीं
दिलरुबा    भी  रहे    दिलजले   भी  रहें

है  बहुत  दूर  मंज़िल  ख़ुदा  की    मियां
अर्श  की    राह  में    मरहले     भी  रहें  !

                                                                              (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ासले:अंतराल;  सिलसिले : अनुक्रम; तन्हाई :एकांत; काफ़िले : समूह; आक़बत : अंतिम गति, परलोक; ज़ीस्त : जीवन; 
रिज़्क़ : आजीविका; मशग़ले : व्यस्तताएं; रग़ों : नाड़ियों; रवां : गतिमान; ख़ूं : रक्त; तलक : तक; जंग :युद्ध, संघर्ष; फ़त्ह:विजय; वल्वले:उमंगें; ख़राबात:मदिरालय;  लाह: अल्लाह (संक्षिप्त); दर : द्वार; दिलरुबा : मनमोहन ; दिलजले : हृदय-दग्ध; अर्श: आकाश, स्वर्ग; मरहले : पड़ाव, विश्राम स्थल । 

 

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