रोज़ गिरते हैं हाथ मलते हैं
आप फिर राह क्यूं बदलते हैं
राम उस वक़्त याद आते हैं
जब ज़ेह्न में फ़ितूर पलते हैं
रास आता नहीं सियासत को
लोग जब एक साथ चलते हैं
आस्मां तक धमक पहुंचती है
आंख से ख़्वाब जब फिसलते हैं
वो दिवाली तभी मनाते हैं
जब मकां मोमिनों के जलते हैं
क़ातिलों के निज़ाम में बच्चे
साथ लेकर क़फ़न निकलते हैं
तोड़ दे ज़ुल्म जब हदें अपनी
नौजवां फिर कहां संभलते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ेह्न:मस्तिष्क; फ़ितूर:उपद्रव; मकां: भवन, घर; मोमिनों:आस्थावानों; निज़ाम:राज्य; ज़ुल्म:अत्याचार ।
आप फिर राह क्यूं बदलते हैं
राम उस वक़्त याद आते हैं
जब ज़ेह्न में फ़ितूर पलते हैं
रास आता नहीं सियासत को
लोग जब एक साथ चलते हैं
आस्मां तक धमक पहुंचती है
आंख से ख़्वाब जब फिसलते हैं
वो दिवाली तभी मनाते हैं
जब मकां मोमिनों के जलते हैं
क़ातिलों के निज़ाम में बच्चे
साथ लेकर क़फ़न निकलते हैं
तोड़ दे ज़ुल्म जब हदें अपनी
नौजवां फिर कहां संभलते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ेह्न:मस्तिष्क; फ़ितूर:उपद्रव; मकां: भवन, घर; मोमिनों:आस्थावानों; निज़ाम:राज्य; ज़ुल्म:अत्याचार ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें