आ गए दर्द को बाज़ार बनाने वाले
बस्तियां फूंक के त्यौहार मनाने वाले
अपने बच्चों से ज़रा आंख मिला कर देखें
सिर्फ़ अफ़वाह पे हथियार उठाने वाले
वक़्त जिस रोज़ हवाओं की शहादत लेगा
रोएंगे मौत का ब्यौपार चलाने वाले
लोग नादान नहीं हैं कि भरोसा कर लें
आप लगते नहीं सरकार, निभाने वाले
रूह को बेच के जाते हैं क़सीदे पढ़ने
जश्न में शाह का दरबार सजाने वाले
शर्म आती तो कहीं डूब न मरते अब तक
ज़ख्मे-मज़्लूम को हर बार भुनाने वाले
तंगनज़रों के भरम तोड़ के दिखलाएंगे
शक़-ओ-शुब्हात की दीवार गिराने वाले !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शहादत : साक्ष्य; ब्यौपार : व्यापार; नादान : अबोध; रूह : आत्मा; क़सीदे :विरुदावली ; जश्न : समारोह; ज़ख्मे-मज़्लूम : अत्याचार पीड़ितों के घाव; तंगनज़रों :संकीर्ण दृष्टि वाले ; भरम: भ्रम; शक़-ओ-शुब्हात : संदेह और शंकाएं।
बस्तियां फूंक के त्यौहार मनाने वाले
अपने बच्चों से ज़रा आंख मिला कर देखें
सिर्फ़ अफ़वाह पे हथियार उठाने वाले
वक़्त जिस रोज़ हवाओं की शहादत लेगा
रोएंगे मौत का ब्यौपार चलाने वाले
लोग नादान नहीं हैं कि भरोसा कर लें
आप लगते नहीं सरकार, निभाने वाले
रूह को बेच के जाते हैं क़सीदे पढ़ने
जश्न में शाह का दरबार सजाने वाले
शर्म आती तो कहीं डूब न मरते अब तक
ज़ख्मे-मज़्लूम को हर बार भुनाने वाले
तंगनज़रों के भरम तोड़ के दिखलाएंगे
शक़-ओ-शुब्हात की दीवार गिराने वाले !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शहादत : साक्ष्य; ब्यौपार : व्यापार; नादान : अबोध; रूह : आत्मा; क़सीदे :विरुदावली ; जश्न : समारोह; ज़ख्मे-मज़्लूम : अत्याचार पीड़ितों के घाव; तंगनज़रों :संकीर्ण दृष्टि वाले ; भरम: भ्रम; शक़-ओ-शुब्हात : संदेह और शंकाएं।
बहुत ही गहरे उतर गए सुरेश जी |बहुत ही शानदार
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