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बुधवार, 25 जून 2014

हां, बग़ावत भी करेंगे...

लोग  हमसे  पूछते  हैं  साथ  क्या  ले  जाएंगे
हाथ  ख़ाली  आए  थे,  भर  कर  दुआ  ले  जाएंगे

चाक  दामन,  सर  निगूं,  नीची  नज़र;  दरबार  में
मुफ़लिसो-मज़लूम  आख़िर  और  क्या  ले  जाएंगे

शाह  के  आलिम  ग़ज़ल  का  कर  रहे  हैं  तब्सिरा
हम  अगर मुजरिम  रहे,  हंस  कर  सज़ा  ले  जाएंगे

हां, बग़ावत  भी  करेंगे  ज़िंदगी  के  वास्ते
इस  मुहिम  में  सर  हथेली  पर  कटा  ले  जाएंगे

है  बला  का  ज़ोर  हम  फ़ाक़ाकशों  की  आह  में
लब  हिले  तो  तख़्ते-शाही  को  उड़ा  ले  जाएंगे

आएगा  मेहनतकशों  का  राज  जिस  दिन  मुल्क  में
अर्श  तक  हिन्दोस्तां  का  मर्तबा  ले  जाएंगे

है  बहुत-कुछ  ख़ुल्द  में,  मुमकिन  हुआ  तो  देखिए
वापसी  में  साथ  अपने  इक  ख़ुदा  ले  जाएंगे  !

                                                                                  (2014)

                                                                          -सुरेश स्वप्निल

शब्दार्थ: चाक: फटा हुआ; दामन: उपरिवस्त्र; निगूं: झुका हुआ; मुफ़लिसो-मज़लूम: निर्धन एवं अत्याचार-पीड़ित; आलिम: विद्वत्जन; तब्सिरा: समीक्षा; मुजरिम: अपराधी; बग़ावत: विद्रोह; मुहिम: अभियान; फ़ाक़ाकश: भूखे पेट रहने वाले; लब: ओष्ठ; तख़्ते-शाही: राजासन; मेहनतकश: श्रमिक-जन; अर्श: आकाश; मर्तबा: प्रतिष्ठा; ख़ुल्द: स्वर्ग; मुमकिन: संभव। 

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