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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

झूठ बातें हैं सब...!

आज  क़िस्सा  तमाम  करते  हैं
जां  रक़ीबों  के  नाम  करते  हैं

होश  ले  बैठते  हैं  वो:  सब  के
जब  निगाहों  को  जाम  करते  हैं

और  क्या  कीजिए  मियां  ग़ालिब
ख़ुम्र  में  सुब्हो-शाम  करते  हैं

क़त्ल  करते  हैं  नफ़्स  गिन-गिन  के
किस  नफ़ासत  से  काम  करते  हैं

झूठ  बातें  हैं  सब  तरक़्क़ी  की
वो:  फ़क़त  क़त्ले-आम  करते  हैं 

लोग  ग़ालिब  से  इश्क़  करते  हैं
मीर  का  एहतराम  करते  हैं

दाग़  दिल  के  अभी  ज़रा  धो  लें
फिर  ख़ुदा  को  सलाम  करते  हैं  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रक़ीबों: शत्रुओं; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्र: मदिरा;  नफ़्स: सांसें; नफ़ासत: सुगढ़ता;  फ़क़त: केवल; क़त्ले-आम: जन-संहार; ग़ालिब, मीर: उर्दू के महानतम ग़ज़लगो; एहतराम: आदर।

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