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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

ज़िंदगी ने मिटा दिया !

रहे  जो  तलाशे-शराब  में  उन्हें  तिश्नगी  ने  मिटा  दिया
कभी  जाम  ने,  कभी  ख़ुम्र  ने,  कभी  मांदगी  ने  मिटा  दिया

मेरी  बेख़ुदी  का  कमाल  था  के:  तेरे  क़रीब  बिठा  दिया
तेरी  सोहबतों  ने  सुकूं  दिया,  तेरी  सादगी  ने  मिटा  दिया

तू  कहे तो  अब  तेरी  बज़्म का,  कभी  भूल  कर  भी  न  मैं  नाम  लूं
जो  हमारे  बीच  थी  रौशनी,  उसे  तीरगी  ने  मिटा  दिया

ये:  अजब-सा  जश्ने-बहार  है,  जहां  तितलियों  की  पहुंच  नहीं
के:  चमन  के  रस्मो-रिवाज  को  किसी  बदज़नी  ने  मिटा  दिया

कभी  हम  भी  थे  तेरे  आशना,  तेरे  हमसफ़र,  तेरे  हमनवा
रहीं  अब  कहां  वो:  नवाज़िशें,  उन्हें  ज़िंदगी  ने  मिटा  दिया

कहीं  कुछ  ख़ता  तो  ज़रूर  है,  के:  तेरी  निगाह  बदल  गई
तेरे  ज़ेह्न  से  मेरा  नाम  भी,  किसी  अजनबी  ने  मिटा  दिया

रहे  सर-ब-सज्द:  अज़ल  तलक,  के:  कहां-कहां  रहे  ढ़ूंढते 
न  ख़ुदा  मिला  न  कोई  ख़बर,  हमें  बंदगी  ने  मिटा  दिया  !

                                                                                         ( 2014 )

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तिश्नगी: प्यास; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्र: मदिरा; मांदगी: शिथिलता, थकान;  बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति;सोहबतें: साथ, संग; 
सुकूं: संतोष; बज़्म: सभा, गोष्ठी; तीरगी: अंधकार; जश्ने-बहार: बसंतोत्सव; चमन: उपवन;  रस्मो-रिवाज: प्रथा-परंपराएं; बदज़नी: कुकृत्य; आशना: साथी; हमसफ़र: सहयात्री; हमनवा: सहमत, हां में हां मिलाने वाला; नवाज़िशें: देन, उपहार,कृपाएं; ख़ता: दोष, अपराध; 
ज़ेह्न : मस्तिष्क, स्मृति; अजनबी: अपरिचित; सर-ब-सज्द: : साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में; अज़ल: मृत्यु; तलक: तक। 

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