जानता तो था तुझे पर जानता ऐसे न था
तू ख़ुदा ही है मेरा पहचानता ऐसे न था
मैं किताबों की दलीलों में उलझ के रह गया
दिल को सब मालूम था मैं मानता ऐसे न था
मैं बहुत मश्कूर हूं उस दुश्मने-जां का के: जो
दिल में रखता था हमेशा चाहता ऐसे न था
दीद से पहले तेरी मैं कम अज़ कम मजनूं न था
दर ब दर हो के तुझे मैं ढूंढता ऐसे न था
था बहुत कुछ आपकी-मेरी नज़र के दरमियां
आपसे मेरा मुबारक सिलसिला ऐसे न था
मैं मुक़ाबिल हूं ख़ुदा के और तू है मुद्द'आ
मांगता तो दम ब दम था मांगता ऐसे न था
अब तो ये: आलम है के: बस मैं हूं और मेरी नमाज़
हिज्र से पहले ख़ुदा से वास्ता ऐसे न था !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मश्कूर: आभारी; दुश्मने-जां: प्राणों का शत्रु, प्रिय के लिए प्रेमपूर्ण व्यंग्य; दीद: दर्शन; मजनूं: उन्मादी, पागल; दर ब दर: द्वारे-द्वारे; दरमियां: मध्य में; मुबारक: शुभ; सिलसिला: स्नेह-बंध; मुक़ाबिल: समक्ष; मुद्द'आ: विषय; आलम: हाल; हिज्र: वियोग; वास्ता: जुड़ाव।
तू ख़ुदा ही है मेरा पहचानता ऐसे न था
मैं किताबों की दलीलों में उलझ के रह गया
दिल को सब मालूम था मैं मानता ऐसे न था
मैं बहुत मश्कूर हूं उस दुश्मने-जां का के: जो
दिल में रखता था हमेशा चाहता ऐसे न था
दीद से पहले तेरी मैं कम अज़ कम मजनूं न था
दर ब दर हो के तुझे मैं ढूंढता ऐसे न था
था बहुत कुछ आपकी-मेरी नज़र के दरमियां
आपसे मेरा मुबारक सिलसिला ऐसे न था
मैं मुक़ाबिल हूं ख़ुदा के और तू है मुद्द'आ
मांगता तो दम ब दम था मांगता ऐसे न था
अब तो ये: आलम है के: बस मैं हूं और मेरी नमाज़
हिज्र से पहले ख़ुदा से वास्ता ऐसे न था !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मश्कूर: आभारी; दुश्मने-जां: प्राणों का शत्रु, प्रिय के लिए प्रेमपूर्ण व्यंग्य; दीद: दर्शन; मजनूं: उन्मादी, पागल; दर ब दर: द्वारे-द्वारे; दरमियां: मध्य में; मुबारक: शुभ; सिलसिला: स्नेह-बंध; मुक़ाबिल: समक्ष; मुद्द'आ: विषय; आलम: हाल; हिज्र: वियोग; वास्ता: जुड़ाव।
मैं किताबों की दलीलों में उलझ के रह गया
जवाब देंहटाएंदिल को सब मालूम था मैं मानता ऐसे न था
वाह बहुत खूब
दलीलों में उलझती,ये जिंदगी
कुछ सवालों में फसती,ये जिंदगी
क्यों कुछ सवालों के जवाब अधूरे हैं
क्यों,सवालों के इंतज़ार में कटती,ये जिंदगी ||(अंजु(अनु)