दुनियां-भर के मेहनतकश अवाम का त्यौहार- मई दिवस -
याद रखने का दिन
-के: हम मेहनतकशों के हाथ अपनी ताक़तें पहचानते हैं !
-के: हम ज़ौरो-जबर की धमकियों से रुक नहीं सकते
-हमारे सर हुकूमत के सितम से झुक नहीं सकते
-हमें है नाज़, हम तक़दीर अपनी ख़ुद बनाते हैं
-हम इस दुनियां को जीने का सही मक़सद बताते हैं
-हमारे हाथ की कारीगरी, संसार अपना है
-के: चीन-ओ-रूस, ये: जापान, हिंदुस्तान अपना है
-क़लम हो हाथ में या के: हथौड़ा हो के: हंसिया हो
हमीं अपने लहू से क़ौम की तक़दीर लिखते हैं
-दुआएं जा नहीं सकतीं कभी ख़ाली हमारी, हम
अपने हाथ से हर ख़्वाब की ताबीर लिखते हैं
-ये: सच पूंजीपति जानें तो उनके हक़ में बेहतर है
ज़माना है हमारा एक दिन ये: फ़ैसला होगा
हमारी बेक़रारी आंधियां बन-बन के उट्ठेगी
न इन सरमाएदारों का कहीं बाक़ी निशां होगा
-अभी है वक़्त, चाहें तो सुधारें ग़लतियां अपनी
ये: सरकारें, ये: मालिक लोग बदलें नीतियां अपनी
के: हम मज़दूर, जो बस फ़र्ज़ को ही सर झुकाते हैं
हम इस त्यौहार को अपनी तरह से ही मनाते हैं
-ज़माने-भर के मेहनतकश, क़सम खाते हैं ये: मिल कर
-नहीं छोड़ेंगे हक़ अपना, इसे छीनेंगे लड़-लड़ कर
सारी दुनियां के मेहनतकश अवाम के नाम
मई-दिवस का लाल सलाम !
( 1977 )
-सुरेश स्वप्निल
*यह नज़्म 1 मई, 1979 को, नई दिल्ली से शाया होने वाले रोज़नामे 'जनयुग' से शाया हुई थी।
याद रखने का दिन
-के: हम मेहनतकशों के हाथ अपनी ताक़तें पहचानते हैं !
-के: हम ज़ौरो-जबर की धमकियों से रुक नहीं सकते
-हमारे सर हुकूमत के सितम से झुक नहीं सकते
-हमें है नाज़, हम तक़दीर अपनी ख़ुद बनाते हैं
-हम इस दुनियां को जीने का सही मक़सद बताते हैं
-हमारे हाथ की कारीगरी, संसार अपना है
-के: चीन-ओ-रूस, ये: जापान, हिंदुस्तान अपना है
-क़लम हो हाथ में या के: हथौड़ा हो के: हंसिया हो
हमीं अपने लहू से क़ौम की तक़दीर लिखते हैं
-दुआएं जा नहीं सकतीं कभी ख़ाली हमारी, हम
अपने हाथ से हर ख़्वाब की ताबीर लिखते हैं
-ये: सच पूंजीपति जानें तो उनके हक़ में बेहतर है
ज़माना है हमारा एक दिन ये: फ़ैसला होगा
हमारी बेक़रारी आंधियां बन-बन के उट्ठेगी
न इन सरमाएदारों का कहीं बाक़ी निशां होगा
-अभी है वक़्त, चाहें तो सुधारें ग़लतियां अपनी
ये: सरकारें, ये: मालिक लोग बदलें नीतियां अपनी
के: हम मज़दूर, जो बस फ़र्ज़ को ही सर झुकाते हैं
हम इस त्यौहार को अपनी तरह से ही मनाते हैं
-ज़माने-भर के मेहनतकश, क़सम खाते हैं ये: मिल कर
-नहीं छोड़ेंगे हक़ अपना, इसे छीनेंगे लड़-लड़ कर
सारी दुनियां के मेहनतकश अवाम के नाम
मई-दिवस का लाल सलाम !
( 1977 )
-सुरेश स्वप्निल
*यह नज़्म 1 मई, 1979 को, नई दिल्ली से शाया होने वाले रोज़नामे 'जनयुग' से शाया हुई थी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें