मस्जिद में जी लगा न, तो मंदर में आ गए
हुस्न-ए-बुतां के फेर में , चक्कर में आ गए
उस हुस्न-ए-कन्हैया की क्या बात कहें हम
सारे तसव्वुरात इक बहर में आ गए
वो: छोड़ गए शह्र किसी और ही धुन में
उनके तमाम दोस्त मेरे घर में आ गए
आदाब-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ न आंखों की कोई शर्म
कैसे अजीब लोग इस शहर में आ गए
हम अश्क-ए-बेनियाज़ भी मंज़िल को पा गए
पलकों से गिरे दिल के समंदर में आ गए !
कुछ और ही है उनसे हमारा ये: सिलसिला
हमने अज़ां दी और वोह नज़र में आ गए !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मंदर: मंदिर; हुस्न-ए-बुतां: मानवीय सौंदर्य; तसव्वुरात: कल्पनाएं; बहर: छंद;
आदाब-ए-हुस्न-ओ-इश्क़: सौंदर्य और प्रेम की समझ; अश्क-ए-बेनियाज़: अकारण आए आंसू;
सिलसिला: बहुअर्थी-क्रम, परिचय, प्रगाढ़ता, परंपरा आदि, यहां आशय आत्मिक सम्बंध ।
हुस्न-ए-बुतां के फेर में , चक्कर में आ गए
उस हुस्न-ए-कन्हैया की क्या बात कहें हम
सारे तसव्वुरात इक बहर में आ गए
वो: छोड़ गए शह्र किसी और ही धुन में
उनके तमाम दोस्त मेरे घर में आ गए
आदाब-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ न आंखों की कोई शर्म
कैसे अजीब लोग इस शहर में आ गए
हम अश्क-ए-बेनियाज़ भी मंज़िल को पा गए
पलकों से गिरे दिल के समंदर में आ गए !
कुछ और ही है उनसे हमारा ये: सिलसिला
हमने अज़ां दी और वोह नज़र में आ गए !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मंदर: मंदिर; हुस्न-ए-बुतां: मानवीय सौंदर्य; तसव्वुरात: कल्पनाएं; बहर: छंद;
आदाब-ए-हुस्न-ओ-इश्क़: सौंदर्य और प्रेम की समझ; अश्क-ए-बेनियाज़: अकारण आए आंसू;
सिलसिला: बहुअर्थी-क्रम, परिचय, प्रगाढ़ता, परंपरा आदि, यहां आशय आत्मिक सम्बंध ।
( यह ग़ज़ल, सुखनवरी के रिश्ते से हमारे बड़े भाई जनाब अनिल खम्परिया साहब की ज़मीन पर;
उन्हीं के पेश-ए-नज़र )
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