अपने दामन में सजाते रहे कांटे-कांटे
उम्र भर साथ निभाते रहे कांटे-कांटे
रोज़-दो रोज़ बहार,मुस्तक़िल दौर-ए-ख़िज़ां
गुञ्च:-ए-नौ को लजाते रहे कांटे-कांटे
दोस्तों उनकी कोई मस्लेहत रही होगी
जो हमें दिल से लगाते रहे कांटे-कांटे
जो दिया ख़ूब दिया, शुक्रिया देने वाले
तुम जो एहसान लुटाते रहे कांटे-कांटे
और होंगे जो चमनज़ार प' आशिक़ होंगे
हम हैं के: हमको लुभाते रहे कांटे-कांटे
क्या करें हम के: तेरी राह जो आसां न हुई
अपनी पलकों से उठाते रहे कांटे-कांटे
नर्म बिस्तर पे कभी तेरी बशारत न हुई
शब-ए-उम्मीद बिछाते रहे कांटे-कांटे।
( 2008 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: दौर-ए-ख़िज़ां: पतझड़ का समय; मुस्तक़िल: शाश्वत; गुञ्च:-ए-नौ: नई कली;
मस्लेहत: गुप्त शुभ उद्देश्य; चमनज़ार: खिला हुआ उपवन; बशारत: स्वप्न में
सम्पर्क।
उम्र भर साथ निभाते रहे कांटे-कांटे
रोज़-दो रोज़ बहार,मुस्तक़िल दौर-ए-ख़िज़ां
गुञ्च:-ए-नौ को लजाते रहे कांटे-कांटे
दोस्तों उनकी कोई मस्लेहत रही होगी
जो हमें दिल से लगाते रहे कांटे-कांटे
जो दिया ख़ूब दिया, शुक्रिया देने वाले
तुम जो एहसान लुटाते रहे कांटे-कांटे
और होंगे जो चमनज़ार प' आशिक़ होंगे
हम हैं के: हमको लुभाते रहे कांटे-कांटे
क्या करें हम के: तेरी राह जो आसां न हुई
अपनी पलकों से उठाते रहे कांटे-कांटे
नर्म बिस्तर पे कभी तेरी बशारत न हुई
शब-ए-उम्मीद बिछाते रहे कांटे-कांटे।
( 2008 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: दौर-ए-ख़िज़ां: पतझड़ का समय; मुस्तक़िल: शाश्वत; गुञ्च:-ए-नौ: नई कली;
मस्लेहत: गुप्त शुभ उद्देश्य; चमनज़ार: खिला हुआ उपवन; बशारत: स्वप्न में
सम्पर्क।
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