जब किसी रात इरादों की सुबह हो जाए
तो हर इक रात उम्मीदों की सुबह हो जाए
काश ! वो: तिफ़्ल बीनते हैं जो रद्दी काग़ज़
उनके घर में भी किताबों की सुबह हो जाए
तुम अगर रोए तो रोएंगे अहल-ए-गुलशन भी
मुस्कुराओ के: बहारों की सुबह हो जाए
हाथ फैलाने से बेहतर है के: भूखे इन्सां
सर उठा लें तो अनाजों की सुबह हो जाए
आओ के: मिल के गुनगुनाएं कोई शोख़ ग़ज़ल
आज फिर दर्द के मारों की सुबह हो जाए।
(26 जनवरी, 2009)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ : तिफ़्ल : छोटे-छोटे बच्चे , अहल-ए-गुलशन : उपवन के वासी, फूल-पौधे; शोख़ : आनंदमय
तो हर इक रात उम्मीदों की सुबह हो जाए
काश ! वो: तिफ़्ल बीनते हैं जो रद्दी काग़ज़
उनके घर में भी किताबों की सुबह हो जाए
तुम अगर रोए तो रोएंगे अहल-ए-गुलशन भी
मुस्कुराओ के: बहारों की सुबह हो जाए
हाथ फैलाने से बेहतर है के: भूखे इन्सां
सर उठा लें तो अनाजों की सुबह हो जाए
आओ के: मिल के गुनगुनाएं कोई शोख़ ग़ज़ल
आज फिर दर्द के मारों की सुबह हो जाए।
(26 जनवरी, 2009)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ : तिफ़्ल : छोटे-छोटे बच्चे , अहल-ए-गुलशन : उपवन के वासी, फूल-पौधे; शोख़ : आनंदमय
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