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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

चुप लगा रखिए...

दिल  बड़ी  चीज़  है  बचा  रखिए
हां,  मगर  रास्ता  खुला  रखिए

शर्त्त  है  वस्ल  के  लिए  उनकी
'घर  शहंशाह  से  बड़ा  रखिए'

दें  मुनासिब  जगह  रक़ीबों  को
बज़्म  का  क़ायदा  बना  रखिए

आज  पूरी  न  हों  तो  कल  होंगी
हसरतों  को  हरा-भरा  रखिए

गर  दुआ  चाहिए  फ़क़ीरों  की
घर  जलाने  का  हौसला  रखिए

रू  ब  रू  है  निज़ाम  क़ातिल  का
लड़  न  पाएं  तो  चुप  लगा  रखिए

आएं  तब  ही  हुसैन  की  सफ़  में
जब  शहादत  का  माद्दा  रखिए  !

                                                                   (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : वस्ल ; मिलन; मुनासिब : समुचित; रक़ीबों : प्रतिद्वंदियों; बज़्म : सभा, चर्चा करने का स्थान, संसद; क़ायदा : नियम; हसरतों : इच्छाओं; रू ब रू : प्रत्यक्ष, सम्मुख; निज़ाम : प्रशासन, सरकार; हुसैन : हज़रत इमाम हुसैन अ.स., कर्बला के न्याय युद्ध में जिन्हें यज़ीद की सेनाओं ने शहीद कर दिया था; सफ़ : नमाज़ पढ़ने के लिए लगाई जाने वाली पंक्ति; शहादत : बलिदान; माद्दा : क्षमता ।

बुधवार, 5 अक्टूबर 2016

तिलिस्मे-आसमां....

जो  दानिशवर  परिंदों  की  ज़ुबां  को  जानते  हैं
यक़ीनन  वो   तिलिस्मे-आसमां    को  जानते  हैं

तू  कहता  रह  कि  तू  ख़ुद्दार  है  झुकता  नहीं  है
जहां   वाले     तेरे   हर  मेह्रबां    को  जानते  हैं

वही   बातें      वही   वादे       वही   बेरोज़गारी
वतन  के  नौजवां  सब  रहनुमां  को  जानते  हैं

कहां  नीयत  कहां  नज़रें  कहां  मंज़िल  सफ़र  की
सभी   रस्ते     अमीरे-कारवां     को  जानते  हैं

खिलेंगे  ख़ुद  ब  ख़ुद  दिल  में  किसी  दिन  आपके  भी
गुलो-.गुंचे    मुहब्बत   के   निशां     को  जानते  हैं

मेरी  आवाज़  पर  बंदिश  लगा  कर  देख  लीजे
फ़लक  तक  सब  मेरे  तर्ज़े-बयां  को  जानते  हैं

तेरे   अहकाम  पर  चलती  नहीं   मख़लूक़  तेरी
इलाही  !  हम  तेरे    दर्दे-निहां   को   जानते  हैं  !

                                                                                             (2016)

                                                                                      -सुरेश   स्वप्निल

शब्दार्थ: दानिशवर : विद्वान; परिंदों : पक्षियों; ज़ुबां : भाषा; यक़ीनन : निस्संदेह, विश्वासपूर्वक; तिलिस्मे-आसमां: आकाश की माया; ख़ुद्दार : स्वाभिमानी; जहां वाले : संसार के लोग; मेह्रबां : अनुग्रही; नौजवां : युवा; रहनुमां : नेताओं; नीयत : आशय; नज़रें : दृष्टि; मंज़िल : लक्ष्य; सफ़र : यात्रा; अमीरे-कारवां : यात्री समूह का नायक; गुलो-.गुंचे : फूल और कलियां; निशां : चिह्नों; आवाज़: स्वर; बंदिश : रोक, प्रतिबंध; तर्जे-बयां : कथन-शैली; अहकाम : आदेशों; मख़लूक़ : सृष्टि; इलाही : (हे) ईश्वर; दर्दे-निहां : गुप्त/आंतरिक पीड़ा ।

सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

जिन्हें नाज़ है ....

तुझे    मुर्शिदो-मुस्तफ़ा  भी  कहेंगे
जिन्हें  ग़र्ज़  है  वो  ख़ुदा  भी  कहेंगे

न  जाने  मेरे  दोस्त  क्या  चाहते  हैं
मुहब्बत   करेंगे    बुरा  भी   कहेंगे

मेरे   मेज़्बां  के   इरादे    ग़ज़ब  हैं
बुलाएंगे  घर  तख़्लिया  भी  कहेंगे

अभी   तक  तेरा  नंग  ही  सामने  है
सबूते-हया   दे    हया  भी   कहेंगे

हुकूमत  से  तेरी  नहीं  मुत्मईं  हम
जिन्हें  नाज़  है  वो  भला  भी  कहेंगे

ज़माने  के  दुःख-दर्द  को  गर  समझ  ले
तो  कुछ  और  दिल  के  सिवा  भी  कहेंगे
;
तू  जन्नत  की  ज़द  से  निकल  आए  तो  हम
तुझे  शौक़  से  दिलरुबा   भी  कहेंगे  !

                                                                             (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुर्शिद : संत; मुस्तफ़ा: पैग़म्बर, ईश्वरीय दूत; ग़र्ज़ : स्वार्थ; मेज़बां : आतिथ्य कर्त्ता; तख़्लिया : एकांत;
नंग : निर्लज्जता; सबूते-हया : लज्जा का  प्रमाण; मुत्मईं : संतुष्ट, आश्वस्त; नाज़ : गर्व; गर : यदि; जन्नत : स्वर्ग;
ज़द : पकड़, पहुंच; शौक़ : रुचि; दिलरुबा : मनमोहक।





रविवार, 2 अक्टूबर 2016

दास्ताने अली

शहादत  के  हक़  में  शियाने  अली
चले      कर्बला     आशिक़ाने  अली

उठें  ज़ुल्म  की  आंधियां  रात  दिन
रुकेगा    न   अब    कारवाने  अली

जहां  हक़-ओ-इंसाफ़  की  जंग  हो
लड़ेंगे       तुम्हारे   दिवाने      अली

हमें  डर  नहीं  मुश्किलों  का  ज़रा
हिफ़ाज़त  को  हैं  साहिबाने  अली

यज़ीदी  सितम    भी   निभा  जाएंगे
जियाले   हैं    सब    नौजवाने  अली

सदी  दर  सदी    लोग    कहते  रहे
जवां       ही   रही     दास्ताने  अली

इधर  फ़ातिमा   तो   उधर  मुस्तफ़ा 
खड़े   हैं      हमारे     सरहाने  अली  !

                                                                     (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शहादत : बलिदान; हक़ : पक्ष; शियाने अली: हज़रत अली हैदर मौला अ. स.के मित्र एवं शुभचिंतक;
कर्बला : सऊदी अरब का एक स्थान जहां हज़रत इमाम हुसैन और यज़ीद की सेनाओं के बीच इस्लाम का धर्म-युद्ध लड़ा गया था; आशिक़ाने अली : अली के प्रेमी जन; कारवाने अली : हज़रत अली अ. स. के साथियों का समूह; हिफ़ाज़त : सुरक्षा; साहिबाने अली : हज़रत अली अ.स. के कृपा पात्र; यज़ीदी सितम : यज़ीद की सेना के भयंकर अत्याचार; जियाले: साहसी; दास्ताने अली : हज़रत अली अ. स. के आख्यान; फ़ातिमा : हज़रत मोहम्मद स. अ. व. की सुपुत्री एवं हज़रत अली अ. स. की जीवन संगिनी; मुस्तफ़ा : पवित्र, पैग़ंबर ।




शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

हू ब हू क़िस्से ...

जंगजू  ख़्वाब  जंगजू  क़िस्से
लो  मियां  हो  गए  शुरू  क़िस्से

सुस्त  रफ़्तार  थी  हक़ीक़त  की
बन  गए  आज  जुस्तजू  क़िस्से

चंद  तब्दीलियां  ज़रूरी  हैं
कौन  दोहराए  हू  ब  हू  क़िस्से

नंग(ए)तहज़ीब  का  ज़माना  है
तो  उड़ें  क्यूं  न  चारसू  क़िस्से

काश ! रहती  ज़ुबान  क़ाबू  में
ले  गए  घर  की  आबरू  क़िस्से

कोई  ख़ामोशियां  बचा  रक्खे
पी  चुके  हैं  बहुत  लहू  क़िस्से


बाग़े  जन्नत  में  ख़ौफ़  तारी  है
कर  गए  क़त्ल  रंगो-बू  किस्से  !

                                                             (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जंगजू : युद्धोन्मादी, आक्रामक; क़िस्से : आख्यान, कथा, मिथक; रफ़्तार : गति; हक़ीक़त : यथार्थ; जुस्तजू: खोज; तब्दीलियां : परिवर्त्तन; हू ब हू : यथावत; नंग(ए)तहज़ीब : सभ्यता का अभाव; चारसू : चारों ओर; क़ाबू : नियंत्रण; आबरू : सम्मान; ख़ामोशियां : मौन, शांति; लहू : रक्त; बाग़े  जन्नत : स्वर्ग का उद्यान; ख़ौफ़ : भय, आतंक; तारी : व्याप्त ।


गुरुवार, 29 सितंबर 2016

शो'अरा की नियाज़

वो  तसव्वुफ़  पे  वाज़  करते  हैं
एहतरामे - अयाज़       करते  हैं

दिल  किसी  काम  आए  तो  रख  लें
हम     कहां    ऐतराज़  करते  हैं

सिर्फ़   इमदाद   ही     नहीं  देते
ज़ुल्म  भी   दिलनवाज़  करते  हैं

मुफ़्त  इस्लाह    छोड़िए   साहब
नौजवां   कब  लिहाज़  करते  हैं

शाह   दिलदार  हो  गए  जब  से 
शो'अरा   की   नियाज़  करते  हैं

आड़  ले  कर  सफ़ेद  दाढ़ी  की
बदज़नी    सरफ़राज़    करते  हैं

बाग़े-रिज़्वां  में  बैठ  कर  मोमिन
आशिक़ी  का   रियाज़   करते  हैं  !

                                                                  (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : तसव्वुफ़ : सूफ़ी मत, मानव से प्रेम के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति संभव मानने वाला पंथ, सृष्टि की सभी रचनाओं में ईश्वर का वास मानने वाला संप्रदाय; वाज़ : प्रवचन, उपदेश; एहतरामे-अयाज़ : अयाज़ का सम्मान, अयाज़ सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का दास था जिसके सौंदर्य पर मुग्ध हो कर महमूद ने उसे दासता से मुक्त कर अपनी मृत्यु तक साथ में रखा; ऐतराज़ : आपत्ति; इस्लाह : सुझाव देना; लिहाज़ : आदर, मर्यादा का ध्यान रखना; दिलदार : उदार; शो'अरा : शायरों; नियाज़ : मृतकों की आत्मा की शांति के लिए दिया जाने वाला दरिद्र भोज, भंडारा; बदज़नी : कुकर्म; सरफ़राज़ ; प्रतिष्ठित जन; बाग़े-रिज़्वां : जन्नत या स्वर्ग का उद्यान, जिसकी रक्षा रिज़्वान नाम का रक्षक करता है; मोमिन : ईश्वर के प्रति आस्तिक; रियाज़: अभ्यास ।







मंगलवार, 27 सितंबर 2016

तेरा टूट जाना ....

मिज़ाजे  ज़माना  हमें  तोड़  देगा
तेरा  आज़माना  हमें  तोड़  देगा

निगाहें  मिलाना  ज़रूरी  नहीं  है
निगाहें  चुराना  हमें  तोड़  देगा

नज़र  में  बनाए  रखें  तय  जगह  पर
उठाना  गिराना  हमें  तोड़  देगा

ख़बर  है  हमें  तेरी  मस्रूफ़ियत  की
मगर  अब  बहाना  हमें  तोड़  देगा

सहारा  वो  बेशक़  न  दें  मुफ़लिसी  में
तमाशा  बनाना  हमें  तोड़  देगा

अगर  मश्क़  कम  है  तो  सीना  खुला  है
वफ़ा  पर  निशाना  हमें  तोड़  देगा

बग़ावत  के  ऐलान  से  ऐन  पहले
तेरा  टूट  जाना  हमें  तोड़  देगा  !

                                                                           (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मिज़ाजे ज़माना : समय/स्वभाव; मस्रूफ़ियत : व्यस्तता; मुफ़लिसी : कठिन समय, निर्धनता; मश्क़ : अभ्यास; वफ़ा : आस्था; बग़ावत : विद्रोह; ऐलान : घोषणा; ऐन : ठीक ।