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गुरुवार, 31 मार्च 2016

दुआओं में प्यार

हम  हैं   तो   आस्मां  है    ज़मीं  है    बहार  है
हम  हैं  तो  नज़्रे-हुस्न  में  शामिल  ख़ुमार  है

हम  हैं  तो  उन्हें    इश्क़  प'  भी   एतबार  है
हम  हैं  तो  दिल   जनाब  का   बेरोज़गार  है

हम  हैं  तो  कोई     आपका    उम्मीदवार  है
हम  हैं  तो  और   कौन   मह् वे-इंतज़ार    है

हम  हैं  तो  आज  वक़्त  को   सब्रो-क़रार  है
हम  हैं  तो  लम्हा-लम्हा  महकता  मदार  है

हम  हैं  तो    आसपास   गुलों  की   क़तार  है
हम  हैं  तो      ख़ुश्बुए-गुलाब      बरक़रार  है

हम  हैं  तो     बाग़ियों  की  तेग़     धारदार  है
हम  हैं  तो  ख़ौफ़  शाह  के  सर  पर  सवार है

हम  हैं  तो  सफ़ में ज़र्फ़  दुआओं में  प्यार  है
हम  हैं  तो  हर      नमाज़े-शह्र     यादगार  है  !

                                                                                  (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आस्मां : आकाश, देवत्व ; ज़मीं : पृथ्वी, देवत्व ; नज़्रे-हुस्न : सौंदर्य-दृष्टि ; ख़ुमार : मदिरता ; प' : पर ; एतबार : विश्वास ; 
जनाब : श्रीमान ; मह् वे-इंतज़ार: प्रतीक्षा में व्यस्त ;  सब्रो-क़रार : धैर्य एवं आश्वस्ति ; लम्हा-लम्हा : क्षण-क्षण ; मदार : भ्रमण-मार्ग ; 
क़तार : पंक्ति, क्यारी ;   बरक़रार : शेष ; बाग़ियों : विद्रोहियों ; तेग़ : खड्ग ; ख़ौफ़ : भय ; सफ़ : नमाज़ पढ़ने वालों की पंक्ति ; ज़र्फ़ : गहनता , गंभीरता ; दुआओं : शुभाकांक्षाओं ; नमाज़े-शह्र : नगर की नमाज़ ; यादगार : स्मरणीय ।

बुधवार, 30 मार्च 2016

हौसला बाग़ियों का ...

वो  सुलगते  रहें  हम  बुझाते  रहें
दोस्त  क्यूं  आग  ऐसी  लगाते  रहें

इश्क़  को  क़र्ज़  कहना  मुनासिब  नहीं
पर  मिले  जो  उसे  तो  चुकाते  रहें

मुश्किलें  एक  मामूल  हैं  ज़ीस्त  का
क्यूं  न  फिर  मुस्कुरा  कर  निभाते  रहें

हुब्ब  है  या  शरारत  नई  आपकी
वस्ल  में  भी  अगर  याद  आते  रहें

है  अदा  सर  झुकाना  अगर  आपकी
शौक़  से  चोट  पर  चोट  खाते  रहें

ज़ार  से  जीतना  सब्र  का  खेल  है
हौसला  बाग़ियों  का  बढ़ाते  रहें

कोई  उम्मीद  हो  तो  इबादत  करें
मुफ़्त  में  क्यूं  ख़ुदा  को  मनाते  रहें !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : मुनासिब : उचित ; मामूल : साधारण चर्या ; ज़ीस्त : जीवन ; हुब्ब : प्रेम ; वस्ल : मिलन ; ज़ार : अत्याचारी, निरंकुश शासक ; सब्र : धैर्य ; हौसला : उत्साह ; बाग़ियों : विद्रोहियों ; इबादत : पूजा-पाठ ।

सोमवार, 28 मार्च 2016

दिल का निज़ाम

दिल  का  निज़ाम  रोज़  बदलता  चला  गया
हाथों  से  मेरे  वक़्त  फिसलता  चला  गया

तुम  तो  पिला  के  ख़ुम्र   हुए  ख़ुद  से  बेख़बर
वो:   कौन  था  जो  पी  के  संभलता  चला  गया

हमने  गो  बंदिशों  से  दिल  को  दूर  ही  रखा
लेकिन  वो:  शख़्स  हाथ  मसलता  चला  गया

उनसे  नज़र  मिली  तो  कहीं  के  नहीं  रहे
दिल  यूं  गया  गया  कि  मचलता  चला  गया

मुद्दत  के  बाद  आईने  से  रू-ब-रू  हुए
ग़म  का  ग़ुबार  था  कि  निकलता  चला  गया

जिसकी  तलाश थी  मैं  उसे  पा  नहीं   सका
रिज़्वां !  मैं  तेरे  दिल  में  टहलता  चला  गया

मज़्लूम  की  आहों  ने  वो:  तूफ़ां  उठा  दिया
दहशत  से  आस्मां  भी  दहलता  चला  गया  !

                                                                                     (2016)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: निज़ाम : शासन, व्यवस्था; ख़ुम्र: मदिरा ; बेख़बर : निश्चिंत ; गो : यद्यपि ; बंदिशों : प्रतिबंधों ; शख़्स : व्यक्ति ; मुद्दत : लंबा समय ; रू-ब-रू : सम्मुख ; ग़ुबार : धूल, मनोमालिन्य ; रिज़्वां : रिज़्वान, जन्नत/स्वर्ग के उद्यान का देख-रेख करने वाला ; मज़्लूम : अत्याचार-पीड़ित ; दहशत : भय, आतंक ; आस्मां: आकाश, परलोक, ईश्वर ।

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

परवा: कौन करे !

तकरीर  की  परवा:  कौन  करे
बेपीर  की  परवा:  कौन  करे

दिलवाले  दिल  पर  मरते  हैं
तस्वीर  की  परवा:  कौन  करे

जो  तीर  निगाहों  से  निकले
उस  तीर  की  परवा:  कौन  करे

ख़त  के  मौजूं   से  मतलब  है
तहरीर  की  परवा:  कौन  करे

वो:  ज़ह्र  पिलाएं  या  आंसू
तासीर  की  परवा:  कौन  करे

हम  ख़्वाबतराशी  करते  हैं
ता'बीर  की  परवा:  कौन  करे

है  ज़ार  निशाने  पर  अपने
ता'ज़ीर  की  परवा:  कौन  करे

हालात  बग़ावत  के  हों  जब
ज़ंजीर  की  परवा:  कौन  करे

बारूद  रग़ों  में  है  जब  तक
शमशीर  की  परवा:  कौन  करे  !

                                                              (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तकरीर : भाषण; परवा: चिंता; बेपीर: निर्दयी; ख़त : पत्र; मौजूं : विषय; तहरीर : हस्तलिपि; ज़ह्र : विष; तासीर: प्रभाव; ख़्वाबतराशी : स्वप्न को सुंदर बनाना; ता'बीर : स्वप्न का फल; ज़ार : अत्याचारी शासक; ता'ज़ीर : दंड; हालात : परिस्थितियां; बग़ावत : विद्रोह; रग़ों: शिराओं; शमशीर: तलवार, कृपाण।

सोमवार, 21 मार्च 2016

हिज्र में उम्र कटना...

दुश्मनों  से  लिपटना  बुरी  बात  है
दोस्तों   से  सिमटना  बुरी  बात  है

शोख़ियों  के  सहारे  किसी  शख़्स  की
बाज़िए -दिल  उलटना   बुरी  बात  है

एक  दिन  भी  जुदाई  बड़ी  चीज़  है
हिज्र  में  उम्र  कटना  बुरी  बात  है

वस्ल  के  वक़्त  वादा-ख़िलाफ़ी न  कर
पास  आकर  पलटना  बुरी  बात  है

जज़्ब  जज़्बात  को  कीजिए  नफ़्स  में
दिल  सरे-राह  लुटना  बुरी  बात  है

हाले-दिल  दोस्तों  को  सुनाते  रहें
ग़म  से  तन्हा  निबटना  बुरी  बात  है

हमक़दम  बन  सको  तो  चलो  साथ  में
हर  क़दम  पर  घिसटना  बुरी  बात  है  !

                                                                                (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़ियों: चपलताओं; शख़्स : व्यक्ति ; बाज़िए-दिल : मन का दांव ; जुदाई : अलग होना ; हिज्र : वियोग ; वस्ल : मिलन ; वादा-ख़िलाफ़ी : वचन भंग ; जज़्ब : विलीन ; जज़्बात : भावनाओं ; नफ़्स : श्वास; सरे-राह : मार्ग के मध्य ; हाले-दिल : मन की स्थिति ; तन्हा : अकेले ; हमक़दम : पग-पग पर साथ देने वाला ।

रविवार, 20 मार्च 2016

मेहमान की अदा ...

किस-किसके  ग़म  उठाए,  जिए  और  मर  गए
अपना  हिसाब  पढ़  के  फ़रिश्ते  भी  डर  गए

है  इब्तिदाए-इश्क़  कि  मेहमान  की  अदा
जो  मेज़बां  के  साथ  सुबह  तक  ठहर  गए

तन्हा  हुए  तो  ख़ुद  के  लिए  वक़्त  मिल  गया
वरना  तो  उनके  साथ  ज़माने  गुज़र  गए

हर  दम  हमारे  साथ  यही  हादसा  हुआ
सब  दिल  के  ख़रीदार  नज़र  से उतर  गए

क्या  ख़ूब  बज़्म  थी  कि  सभी  हमक़दह  मिरे
पीकर  मिरी  शराब  मशाईख़  के  घर  गए

किसको  बताएं  हम  कि  शबे-क़त्ल  क्या  हुआ
किरदारे-ख़्वाब  नींद  से  उठ  कर किधर  गए

क़ाफ़िर  सही  प'  दिल  में  तमन्ना  ज़रूर  है
देखेंगे  तिरा  घर  भी  मदीने  अगर  गए  !

                                                                                 (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रिश्ते : देवदूत; इब्तिदाए-इश्क़ : प्रेमारंभ ; मेज़बां : गृहस्वामी ; तन्हा : अकेले ; हादसा : दुर्घटना ; ख़रीदार : ग्राहक ; नज़र : दृष्टि ; बज़्म : गोष्ठी ; हमक़दह : एक ही पात्र से मदिरा-पान करने वाले ; मशाईख़ : शैख़ का बहुव., पीर, धर्म-भीरु, ब्रह्म-ज्ञानी, आदि; शबे-क़त्ल : हत्या की रात्रि ; किरदारे-ख़्वाब : स्वप्न के पात्र/ चरित्र ; क़ाफ़िर : नास्तिक ; तमन्ना : इच्छा ।

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

दरपेश हक़ीक़त

हम  इश्क़  नहीं  करते  तो  क्या  इस  दुनिया  के  इंसान  नहीं
शाइस्ता  हैं  तो  क्या  हमको  दिल  वालों  की  पहचान   नहीं

इस  मुल्क  के  ज़र्रे-ज़र्रे  पर  हक़  है  मज़्लूम  ग़रीबों  का
सरमाए  वाले  भूल  गए  हम  मालिक  हैं  मेहमान  नहीं

इस  रिज़्क़  के   दाने-दाने  में  है  ख़ून-पसीना  भी  शामिल
यह  अपनी  नेक  कमाई  है  ज़रदारों  का  एहसान  नहीं

दहशत  फैलाने  वालों  के  पीछे  सरकारी  फ़ौजें   हैं 
सच  कहने  में  भी  ख़तरा है  चुप  रहना  भी  आसान  नहीं

इस  ज़ोर-ज़ुल्म  के  मौसम  में  कुछ  लोग  घरों  में  दुबके  हैं
ये  किस  मिट्टी  के  लौंदे  हैं  जिनके  दिल  में  तूफ़ान  नहीं

हम  पस्मांदा  इंसानों  की  साझा  है  जंग  हुकूमत  से
दरपेश  हक़ीक़त  है  सबके  दुश्मन  सच  से अनजान  नहीं

वो:  वक़्ते-जनाज़ा  आए  हैं  इज़्हारे-अदावत  करने  को
अफ़सोस !  मगर  अब  सीने  में  जीने  का  ही  अरमान  नहीं !

                                                                                                            (2016)

                                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शिष्ट, सभ्य; दिलवालों : सहृदय व्यक्तियों; ज़र्रे-ज़र्रे : कण-कण ; हक़ : अधिकार ; मज़्लूम : अन्याय-पीड़ित; सरमाए वाले: पूंजीपति ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; नेक : भली ; ज़रदारों : स्वर्णशाली, समृद्ध जनों ; एहसान : अनुग्रह ; दहशत : आतंक ; ज़ोर-ज़ुल्म : अत्याचार एवं अन्याय ; पस्मांदा : दलित-शोसित ; जंग : संघर्ष ;  hहुकूमत : शासक वर्ग। सरकारी तंत्र ; दरपेश ; द्वार के आगे, समक्ष ; वक़्ते-जनाज़ा : अर्थी उठने के समय ; इज़्हारे-अदावत : शत्रुता का उद्घोष, स्वीकार ।