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बुधवार, 3 जून 2015

मिट गए दहक़ां ...

शाम  का  दिल  लूट  कर  चलते  बने
आप  महफ़िल  लूट  कर  चलते  बने

हम  उन्हें  हमदर्द  समझे  थे  मगर
जान  क़ातिल  लूट  कर  चलते  बने

हमसफ़र  बन  कर  मिले  थे  जो  हमें
जश्ने-मंज़िल  लूट  कर  चलते  बने

जंग  तूफ़ां  से  लड़े  जिनके  लिए
मौजे-साहिल  लूट  कर  चलते  बने

सिर्फ़  सामां-ए-दफ़न  था  हाथ  में
चंद  ग़ाफ़िल  लूट  कर  चलते  बने

मिट  गए   दहक़ां  फ़सल  के  वास्ते
शाह  हासिल  लूट  कर  चलते  बने

मोतबर  थे  ख़्वाब  यूं  तो  फज्र  तक
आंख  का  तिल  लूट  कर  चलते  बने  !

                                                                      (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़िल: सभा, गोष्ठी; हमदर्द: दुःख में सहभागी; क़ातिल: हत्यारा; हमसफ़र: सहयात्री; जश्ने-मंज़िल: लक्ष्य-प्राप्ति  का उत्सव, श्रेय; जंग: युद्ध; तूफ़ां: झंझावात; मौजे-साहिल: तट की लहरें; सामां-ए-दफ़न: दफ़न की सामग्री; चंद: कुछ; ग़ाफ़िल: दिग्भ्रमित; 
दहक़ां: कृषक गण; हासिल: अभिप्राप्ति; मोतबर: विश्वासपात्र; फज्र: उष:काल ।

                                                                  


रविवार, 31 मई 2015

दाव:-ए-नूर ...

बे-मज़ा  हर  ख़ुशी  हुई  कैसे
मर्ज़       आवारगी  हुई  कैसे

मर  गया  क़ैस  आग  में  जल  कर
हीर  फ़रहाद  की  हुई  कैसे

कनख़ियों  से  हमें  बता  दीजे
यह  अदा  तिश्नगी  हुई  कैसे

चाक-चौबंद  थे  सभी  निगरां
फिर  यहां  रहज़नी  हुई  कैसे

शाह  हमदर्द  है  किसानों  का
तो  कहीं  ख़ुदकुशी  हुई  कैसे

क़त्ल  करके  नमाज़  पढ़  आए
यह  सनक  बंदगी  हुई  कैसे 

दा'व:-ए-नूर  गर  हक़ीक़त  है
ख़ुल्द  में   तीरगी    हुई  कैसे  ?

                                                                 (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बे-मज़ा: निरानंद; मर्ज़: रोग; आवारगी: यायावरी; क़ैस: मजनूं, लैला का प्रेमी; हीर: रांझे की प्रेमिका; फ़रहाद: शीरीं का प्रेमी; अदा: भंगिमा; तिश्नगी: तृष्णा; चाक-चौबंद: पूर्ण सन्नद्ध; निगरां: सतर्कता रखने वाले;   रहज़नी: मार्ग में लूट;  अर्श: आकाश; हमदर्द: सहानुभूति रखने वाला; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; दाव:-ए-नूर: प्रकाश का स्वत्व, यहां ईश्वर की उपस्थिति; गर: यदि; हक़ीक़त: वास्तविक; ख़ुल्द: स्वर्ग; तीरगी: अंधकार। 



शनिवार, 30 मई 2015

ख़ुल्द में दाख़िला...

हाथ  अपना    खुला    नहीं  होता
तो  किसी  को  गिला  नहीं  होता

रात  ढलना    विसाल  से   पहले
यह  वफ़ा  का  सिला  नहीं  होता

दोस्तों   के    फ़रेब   के     सदक़े
इश्क़   का   हौसला    नहीं  होता

मर  रहे  हैं   विसाल  को  वो  भी
पर कभी  सिलसिला  नहीं  होता

चांद     वादानिबाह     होता    तो 
दिल शम्'.अ-सा जला नहीं होता

बाल  आ  जाए   गर  निगाहों  में 
ख़त्म  फिर  फ़ासला  नहीं  होता

ख़ुदकुशी   क्यूं   करे    यहां  कोई
जब  किसी  का  भला  नहीं  होता

आपकी    ही    दुआएं  हैं,    वरना
ख़ुल्द  में    दाख़िला     नहीं  होता  !

                                                                     (2015)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: विसाल: मिलन, वफ़ा: निष्ठा; सिला: प्रतिदान; फ़रेब: छल; सदक़े: श्रेय देना; हौसला: साहस; सिलसिला: संयोग; वादानिबाह: वचन का पालन करने वाला; बाल: शंका, अंतर (व्यंजना); फ़ासला: अंतराल; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; दुआएं: शुभकामनाएं; ख़ुल्द: स्वर्ग; दाख़िला: प्रवेश ।




गुरुवार, 28 मई 2015

...रक़्म लिए बैठे हैं !

कितने  नादां  हैं,  खुले  ज़ख़्म  लिए  बैठे  हैं
ख़ुद  को  बेपर्द:    सरे-बज़्म     किए  बैठे  हैं

आपको  वक़्त  लगेगा   ये   समझ  पाने  में
मुख़्तसर  उम्र  में  सौ  जन्म   जिए  बैठे  हैं

वाहवाही  से   मिले  वक़्त    तो  देखें  हमको
हम  भी   गोशे  में   नई  नज़्म  लिए  बैठे  हैं

फिर  उन्हीं  यार  से  हम  आज  मुख़ातिब होंगे
जो   ज़माने   से    रब्त     ख़त्म   किए  बैठे  हैं 

क्या  ख़बर  कौन   यहां  इश्क़  की  क़ीमत  मांगे
लोग     दानिश्त:    बड़ी   रक़्म     लिए    बैठे  हैं

वक़्त    उनकी  भी    किसी  रोज़    गवाही  लेगा
रहजनों  को    जो  यहां     अज़्म    दिए   बैठे  हैं

आए   तो   हैं   वो     मेरी    गोर   चराग़ां  करने
फ़ातिहा  जैसी     कोई     रस्म    लिए   बैठे  हैं  !

                                                                                     (2015)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: नादां: अबोध; ज़ख़्म: घाव; बेपर्द:: अनावृत; सरे-बज़्म: भरी सभा में; मुख़्तसर: संक्षिप्त; गोशे: कोने; नज़्म: कविता; 
मुख़ातिब: संबोधित; रब्त: संपर्क, मेल-जोल; दानिश्त:: जान-बूझ कर, सोच-समझ कर; रक़्म: धन-राशि; गवाही: साक्ष्य; रहजनों: मार्ग में लूटने वालों; अज़्म: प्रतिष्ठा, महानता; गोर: समाधि;  चराग़ां:  दीप जलाना ; फ़ातिहा: मृतक के सम्मान में की जाने वाली प्रार्थना; रस्म: प्रथा। 


शनिवार, 23 मई 2015

...पुर्साने-हाल दे !

आसां  है  तो  क्यूं  कर  न  ज़ेह्न  से  निकाल  दे
मुश्किल  है  तो  ला  दे,  मुझे  अपना  सवाल  दे

लेता  है  तो  असबाबे-ग़ज़लगोई  छीन  ले
देता  है  तो  उस्ताद  मुझे  बा-कमाल  दे

आओ  तो  इस  तरह  कि  किसी  को  ख़बर  न  हो
जाओ  तो  यूं  कि  वक़्त  अज़ल  तक  मिसाल  दे

राहे-बहिश्त  में  मिरी  सांसें  उखड़  गईं
हूरें  न  दे,  न   दे  कोई  पुर्साने-हाल  दे

तेग़ें  तड़प  रही  हैं  तिरी  दीद  के  लिए
ना'र: -ए-इंक़िलाब  फ़लक  तक  उछाल  दे

सर  दांव  पर  लगा  है  शिकस्ता  अवाम  का 
मुफ़्लिस  को शाहे-वक़्त  से  ज़्यादा  मजाल  दे

नादार  को  निवाल:  मयस्सर  न  हो  जहां
उस  ख़ल्क़ो -कायनात   से   बेहतर  ख़्याल  दे !

                                                                                    (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: आसां: सरल; ज़ेह्न: मस्तिष्क; असबाबे-ग़ज़लगोई: ग़ज़ल  कहने  की  सामग्री; बा-कमाल: चमत्कारी; अज़ल: अनंतकाल; मिसाल: उदाहरण; राहे-बहिश्त: स्वर्ग का मार्ग; हूरें: अप्सराएं; पुर्साने-हाल: हाल पूछने वाला; तेग़ें: तलवारें; दीद: दर्शन; ना'र: -ए-इंक़िलाब: क्रांति का उद्घोष; फ़लक: आकाश; शिकस्ता: भग्न-हृदय, हारे हुए; अवाम: जन-सामान्य; मुफ़्लिस: निर्धन; शाहे-वक़्त: वर्त्तमान शासक; मजाल: साहस, सामर्थ्य; नादार: दीन-हीन; निवाल:: कौर; मयस्सर: प्राप्त, उपलब्ध; ख़ल्क़ो -कायनात: सृष्टि और ब्रह्माण्ड; ख़्याल: विचार ।



शुक्रवार, 22 मई 2015

कोई नादिर, कोई चंगेज़...

तुम्हारी  बेनियाज़ी  से  अगर  दिल  टूट  जाए,  तो ?
कोई  कमबख़्त  दीवाना  हमारे  सर  को  आए  तो ?

मक़ासिद  आपके  ज़ाहिर  नहीं  हैं  आज  भी  सब  पर
नियत  पर  आपकी  कोई  कभी  उंगली  उठाए  तो ?

हमें  शक़ तो  नहीं  है  दोस्तों  की  दिलनवाज़ी  पर
मगर  कोई  कहीं  हमको  अकेले  में  बुलाए,  तो ?

कहो  तो  आज  ही  कर  लें  गरेबां  चाक  हम  अपना
हमारी  याद  आ  आ  कर  तुम्हें  कल  को  सताए,  तो ?

कोई  नादिर  कोई  चंगेज़  हो  तो  सब्र  भी  कर  लें
शहंशाहे-वतन  ही  मुल्क  की   दौलत  लुटाए,  तो  ?

हमें  भी  कम  नहीं  है  शौक़  यूं  सज्दागुज़ारी  का
ख़ुदा  लेकिन  अदावत  का  कभी  रिश्ता  निभाए,  तो  ?

ख़ुदा  जिस  रोज़  चाहे  बंदगी  का  इम्तिहां  मांगे
अगर  बंदा  ख़ुदा  की  हैसियत  को  आज़माए,  तो  ?

                                                                                               (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बेनियाज़ी: उपेक्षा; कमबख़्त  दीवाना: अभागा प्रेमी; सर  को  आए: पीछे पड़े; मक़ासिद: मक़सद का बहुवचन, उद्देश्य; ज़ाहिर: प्रकट; नियत: आशय; शक़: संदेह; दिलनवाज़ी: मैत्री; गरेबां: कंठ; चाक: काट लेना;  नादिर: ईरान का एक मध्य-युगीन आक्रामक शासक, लुटेरा, जिसने दिल्ली को लूटा था; चंगेज़: चंगेज़ ख़ान, मंगोलिया का शासक जिसे इतिहास का क्रूरतम आक्रमणकारी, महान योद्धा, लेकिन लुटेरा राजा माना जाता है; सब्र: संतोष, धैर्य; सज्दागुज़ारी: नतमस्तक होकर प्रार्थना करना; अदावत: शत्रुता; बंदगी: भक्ति; हैसियत: प्रास्थिति । 

रविवार, 17 मई 2015

क़ातिल तेरा निज़ाम...

कब  तक   तेरी  अना  से   मेरा  सर  बचा  रहे
ये  भी  तो  कम  नहीं  कि  मेरा  घर  बचा  रहे

मुफ़्लिस  को   शबे-वस्ल  पशेमां   न  कीजिए
मेहमां  के    एहतेराम  को    बिस्तर  बचा  रहे

रहियो    मेरे   क़रीब,     मेरे  घर   के   सामने
कुछ  तो  कहीं   निगाह  को   बेहतर  बचा  रहे

बेशक़   दिले-ख़ुदा  में   ज़रा  भी   रहम  न  हो
आंखों   में    आदमी   की    समंदर    बचा  रहे

मस्जिद न मुअज़्ज़िन  न ख़ुदा  हो  कहीं  मगर
मस्जूद    की     निगाह   में    मिंबर   बचा  रहे

शाहों  का  बस  चले  तो  ख़ुदा  की  कसम  मियां
क़ारीं     बचें     कहीं,    न   ये   शायर    बचा  रहे

क़ातिल  !   तेरा  निज़ाम   बदल  कर   दिखाएंगे
सीने   में   आग,    हाथ   में    पत्थर    बचा  रहे !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अना: अहंकार; मुफ़्लिस: विपन्न; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; पशेमां: लज्जित; मेहमां: अतिथि; एहतेराम: सम्मान, सत्कार; रहम:दया; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मस्जूद: सज्दे  में (नतमस्तक) बैठा व्यक्ति; मिंबर: वह पत्थर जिस पर खड़े होकर पेश इमाम नमाज़ पढ़ाते हैं; क़ारीं: पाठक गण; निज़ाम: शासन।