Translate

रविवार, 17 मई 2015

क़ातिल तेरा निज़ाम...

कब  तक   तेरी  अना  से   मेरा  सर  बचा  रहे
ये  भी  तो  कम  नहीं  कि  मेरा  घर  बचा  रहे

मुफ़्लिस  को   शबे-वस्ल  पशेमां   न  कीजिए
मेहमां  के    एहतेराम  को    बिस्तर  बचा  रहे

रहियो    मेरे   क़रीब,     मेरे  घर   के   सामने
कुछ  तो  कहीं   निगाह  को   बेहतर  बचा  रहे

बेशक़   दिले-ख़ुदा  में   ज़रा  भी   रहम  न  हो
आंखों   में    आदमी   की    समंदर    बचा  रहे

मस्जिद न मुअज़्ज़िन  न ख़ुदा  हो  कहीं  मगर
मस्जूद    की     निगाह   में    मिंबर   बचा  रहे

शाहों  का  बस  चले  तो  ख़ुदा  की  कसम  मियां
क़ारीं     बचें     कहीं,    न   ये   शायर    बचा  रहे

क़ातिल  !   तेरा  निज़ाम   बदल  कर   दिखाएंगे
सीने   में   आग,    हाथ   में    पत्थर    बचा  रहे !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अना: अहंकार; मुफ़्लिस: विपन्न; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; पशेमां: लज्जित; मेहमां: अतिथि; एहतेराम: सम्मान, सत्कार; रहम:दया; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मस्जूद: सज्दे  में (नतमस्तक) बैठा व्यक्ति; मिंबर: वह पत्थर जिस पर खड़े होकर पेश इमाम नमाज़ पढ़ाते हैं; क़ारीं: पाठक गण; निज़ाम: शासन।


शनिवार, 16 मई 2015

निशां ज़ुल्मतों के ...

शहंशाह    जब    नेक  वादा  करेंगे
सितम बेकसों पर  ज़ियादा  करेंगे

उन्हें तख़्ते-दिल तक पहुंचने न दीजे
मुसीबत    नई    रोज़    लादा  करेंगे

ये   शतरंज   है,    बैतबाज़ी    नहीं  है
उन्हें   हम    यहीं     बे-पियादा  करेंगे 

ये  मीनारो-गुंबद  निशां  ज़ुल्मतों  के
गिरा  देंगे    हम    जब  इरादा  करेंगे

वो   परदेस   से   रक़्म   लाने  गए  हैं
वतन  को   लुटा  कर    इफ़ादा  करेंगे

अभी  दोस्तों  की    अदाएं   समझ  लें
किसी  और  दिन   फ़िक्रे-आदा  करेंगे

जगह  तो  नहीं  है  ख़ुदा  के  सहन  में
हमारे  लिए     दिल     कुशादा  करेंगे  !

                                                                      (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सितम: अत्याचार; बेकसों: निर्बलों; तख़्ते-दिल: हृदय का सिंहासन; बैतबाज़ी: उर्दू व्याकरण के अनुसार अंत्याक्षरी; बे-पियादा: पैदल रहित, शतरंज के खेल में सभी पैदलों को मारना; मीनारो-गुंबद: कीर्त्ति-स्तंभ और तोरण; ज़ुल्मतों: अन्यायों, अत्याचारों; रक़्म: धन, निवेश; इफ़ादा: लाभ पहुंचाना; फ़िक्रे-आदा: शत्रुओं की चिंता; सहन: आंगन, घर के द्वार के आगे बैठने की जगह;  कुशादा: विस्तीर्ण । 


मंगलवार, 12 मई 2015

जुर्म है इश्क़...

चलो  आज  ख़ुद  को  गुनहगार  कर  लें
बुते-दिलनशीं   का    परस्तार    कर  लें

भले  ही  किसी  से  नज़र  चार  कर  लें
मगर यह न होगा कि वो  प्यार कर  लें

सुना  है    कि  दिल    बेचना  चाहते  हैं
न  हो  तो    हमें  ही    ख़रीदार  कर  लें

कहीं   आपको    शौक़े-पुर्सिश   सताए
हमारे   लिए     क़ब्र    तैयार    कर  लें

'नरेगा'  की  उज्रत   गए  साल  की   है
मिले  तो  किसी  रोज़  बाज़ार  कर  लें



अगर  जुर्म  है  इश्क़  उनकी  नज़र  में
मिलें  ख़ुल्द  में  तो  गिरफ़्तार  कर  लें

ख़ुदा  से  मुलाक़ात   तय  हो    चुकी  है
ख़ुदी  को    ज़रा  और    ख़ुद्दार  कर  लें  !

                                                                     (2015) 

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: गुनहगार: अपराधी; बुते-दिलनशीं: हृदयस्थ मूर्त्ति, प्रिय की मूर्त्ति; परस्तार: पुजारी; ख़रीदार: क्रेता; शौक़े-पुर्सिश: सांत्वना देने की रुचि; नरेगा: राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना; उज्रत: पारिश्रमिक; जुर्म: अपराध; ख़ुल्द: स्वर्ग; ख़ुदी: आत्म-सम्मान; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी । 

सोमवार, 11 मई 2015

ख़्वाब का अज़्म ...

देखिए,  हम  ग़ज़ल  नहीं  कहते
कहते  थे,  आजकल  नहीं  कहते

अस्ल  को  हम  नक़ल  नहीं  कहते
चश्मे-जां  को  कंवल  नहीं  कहते

तिफ़्ल  हैं, यह  नहीं  समझ  पाते
तरबियत  को दख़ल  नहीं  कहते

ख़्वाब  का  अज़्म  कुछ  अलहदा  है
ख़्वाहिशों  का  बदल  नहीं  कहते

चल  रही  है  महज़  बयांबाज़ी
आंकड़ों  को  फ़सल  नहीं  कहते

रोज़  महंगाई  मुंह  चिढ़ाती  है
वायदों  को  अमल  नहीं  कहते

आप  कह  लें,  अगर  सही  समझें
क़त्ल  को  हम  अदल  नहीं  कहते

ख़ुदकुशी  वक़्त  को  तमाचा  है
पर  इसे  कोई  हल  नहीं  कहते !

                                                              (2015)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अस्ल: वास्तविक, चश्मे-जां: प्रिय के नयन; कंवल: कमल; तिफ़्ल: बच्चे; तरबियत: संस्कार देना; दख़ल: हस्तक्षेप; 
अज़्म: अस्मिता; अलहदा: भिन्न; ख़्वाहिशों : इच्छाओं;   बदल: पर्याय; महज़: केवल;  बयांबाज़ी: भाषण, वक्तव्य देना; 
अमल: क्रियान्वयन; अदल: न्याय; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; हल: समाधान । 



गुरुवार, 7 मई 2015

नेकनीयत नहीं शाह ...

फ़ासलों   से  हमें  ना  डराया  करो
फ़र्ज़  है  आपका  याद  आया  करो

हो  शबे-तार  तो  रौशनी  के  लिए
चांदनी  की  तरह  झिलमिलाया  करो

रोज़  मिलिए  न  मिलिए  हमें  शौक़  से
ईद  में  तो  कभी  घर  बुलाया   करो

बदनसीबी  ख़ुशी  में  बदल  जाएगी
रंजो-ग़म  में  हमें  आज़माया  करो

ज़ीस्त  की  जंग  में  ज़िंदगी  कम  न  हो
रूठने  के  लिए  मान  जाया  करो

शायरी  से  अगर  आग  लगती  नहीं
रिज़्क़  के  काम  में  जी  लगाया  करो

कोई  सज्दा  नहीं,  बुतपरस्ती  नहीं
दें  अज़ां  हम  तभी  सर  झुकाया  करो

नेकनीयत  नहीं  शाह  इस  दौर  का
सौ  दफ़ा  सोच  कर  पास  जाया  करो

एक  ही  है  ख़ुदा,  एक  ही  ख़ानदां
क्यूं  किसी  ग़ैर  का  घर  जलाया  करो ?

                                                                                  ( 2015 )

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  फ़ासलों: अंतरालों, दूरियों; फ़र्ज़ : कर्त्तव्य;  शबे-तार: अमावस्या; शौक़: रुचि; बदनसीबी: दुर्भाग्य; रंजो-ग़म: दुःख और शोक; ज़ीस्त: जीवन; जंग: युद्ध; रिज़्क़: भोजन; सज्दा: दंडवत प्रणाम; बुतपरस्ती: मूर्त्ति-पूजा, व्यक्ति-पूजा; नेकनीयतएल सद्भावी;  ख़ानदां : कुल, वंश । 


बुधवार, 6 मई 2015

सब्र मत कीजिए ...!

दिलजलों  का  अभी  ज़िक्र  मत  कीजिए
वस्ल  की   रात  को   हिज्र  मत  कीजिए

दोस्तों    के   दिलों    का     भरोसा    नहीं
दुश्मनों  की  मगर   फ़िक्र   मत  कीजिए

साथ   चलना    ज़रूरी    नहीं   था    कभी
चल  पड़े  तो  मियां !  मक्र  मत  कीजिए

कौन  क्या  खाएगा,   शाह  क्यूं  तय  करे
रिज़्क़  पर  इस  क़दर  जब्र  मत  कीजिए

सुन  चुके  शोर   अच्छे  दिनों  का   बहुत
अब  किसी  बात  पर  सब्र  मत  कीजिए

नस्ले-दहक़ान  का   रिज़्क़   तो  बख़्शिए 
ताजिरों   को    ज़मीं   नज़्र  मत  कीजिए

गिर  चुके  हैं    कई  सर    इसी  शौक़  में
ताज-ओ-तख़्त  पर   फ़ख्र  मत  कीजिए !

                                                                            (2015)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ज़िक्र: उल्लेख; वस्ल: मिलन; हिज्र: वियोग; मक्र: बहाने बनाना, आना-कानी; रिज़्क़: भोजन; जब्र: बल-प्रयोग; 
सब्र: धैर्य; नस्ले-दहक़ान: कृषक-संतति; बख़्शिए: छोड़िए; ताजिरों: व्यापारियों; नज़्र: भेंट;  फ़ख्र: गर्व । 


सोमवार, 4 मई 2015

शाहों से मुंहज़ोरी ...

दिल  की  हेरा-फेरी  करना  दीवानों  का  काम  नहीं
हूर-फ़रिश्तों  के  क़िस्सों  में  शैतानों  का  काम  नहीं

आ  जाएं,  बिस्मिल्ल:  कर  लें,  रिज़्क़े-ईमां  है  यूं  भी
लेकिन  नुक़्ताचीनी  करना  मेहमानों  का  काम  नहीं

रिश्तों  की  गर्माहट  से  हर  मुश्किल  का  हल  मुमकिन  है
घर  की  दीवारों   के  अंदर  बेगानों  का  काम  नहीं

जिस  मांझी  पर वाल्दैन  की  नेक  दुआ  का  साया  हो
उसकी  कश्ती  से  टकराना  तूफ़ानों   का  काम  नहीं

हम  बस  अपने  ख़ून-पसीने  का  हर्ज़ाना   मांगे  हैं
हम  ईमां  वालों  पर  झूठे  एहसानों  का  काम  नहीं

कहने  के  कुछ मानी  भी  हों,  तब  तो  कुछ  सोचा  जाए
शाहों  से  मुंहज़ोरी  करना  इंसानों  का  काम  नहीं

सर्दी-गर्मी-बारिश  ये  सब  क़ुदरत  की  मर्ज़ी  पर  हैं
इन  पर  अपना  हुक्म  चलाना  सुल्तानों  का  काम  नहीं !

                                                                                                         ( 2015 )

                                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हूर-फ़रिश्तों: अप्सराएं और देवदूत; क़िस्सों: आख्यानों; बिस्मिल्ल:: भोजनारंभ; रिज़्क़े-ईमां: निष्ठापूर्वक कमाया हुआ भोजन; नुक़्ताचीनी: दोष निकालना; बेगानों: पराए लोग; वाल्दैन: माता-पिता; साया: छाया; हर्ज़ाना: प्रतिपूर्त्ति; क़ुदरत: प्रकृति।