Translate

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

ज़िंदा जवानी चाहिए !

मुल्क  को  ज़िंदा  जवानी  चाहिए
आंख  में    भरपूर    पानी  चाहिए

हो  चुके  वादे  तरक़्क़ी  के  बहुत
अब  इरादों  में  रवानी  चाहिए 

हो  अवध  की  शाम  की  ख़ुशबू  जहां
सुब्ह  काशी   की  सुहानी  चाहिए

मुल्क  के  हालात  के  मद्देनज़र
इक  फ़रिश्ता  आसमानी  चाहिए

सिर्फ़  लौहो-संग  ही  काफ़ी  नहीं
अब  दिलों  में  आग-पानी  चाहिए

हैं  बहुत  चर्चे  शहर  में  आपके
सच  हमें  ख़ुद  की  ज़ुबानी  चाहिए 

मुल्क  में  जब्रो-ज़िना  है,  ज़ुल्म  है
आपको  कैसी  कहानी  चाहिए  ?

रिज़्क़  पाते  हैं  पसीना  बेच  कर
दिल  प'  अपनी  हुक्मरानी  चाहिए  ! 

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इरादों: संकल्पों; रवानी: प्रवाह, गति; हालात: घटनाक्रम; मद्देनज़र: दृष्टिगत; फ़रिश्ता: देवदूत; आसमानी: आकाशीय, दैवीय; लौहो-संग: लौह और पत्थर, शारीरिक शक्ति; आग-पानी: ऊर्जा और संवेदनशीलता; चर्चे: चर्चाएं; ख़ुद की ज़ुबानी: आत्म-वृत्तांत; 
जब्रो-ज़िना: बल-प्रयोग और दुष्कर्म; ज़ुल्म: अत्याचार; रिज़्क़: दो समय का भोजन; हुक्मरानी: शासन, पूर्ण स्वतंत्रता।


सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

सर कटेगा एक दिन...

है  असर  बुलबुल  तिरी  फ़रियाद  का
नामलेवा   तक      नहीं    सय्याद  का

लग  रहा  है  शाह  के  आमाल  से
दौर  वापस  आ  गया  शद्दाद  का

मुल्क  का  ईमान  गिरवी  रख  चुके
देखते  हैं  रास्ता  इमदाद  का

लोग  अपना  दिल  उठा  कर  चल  दिए
काम  आसां  कर  गए  नाशाद  का

मुश्किलें  दर  मुश्किलें  आती  रहीं
जिस्म  दिल  ने  कर  दिया  फ़ौलाद  का

मुफ़लिसी  में  कर  रहा  है  शायरी 
क्या  कलेजा  है  दिले-बर्बाद  का  !

वक़्त  मुंसिफ़  है,  इसे  मत  छेड़िए
सर  कटेगा  एक  दिन  जल्लाद  का  !

                                                                           (2014)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: असर: प्रभाव; बुलबुल: मैना; फ़रियाद: दुहाई, प्रार्थना; आमाल: क्रिया-कलाप; शद्दाद: मिस्र का एक नास्तिक शासक जिसने अपने को ख़ुदा घोषित कर दिया था और इसे साबित करने के लिए एक कृत्रिम जन्नत का निर्माण कराया था; इमदाद: सहायता ('निवेश'); आसां: सरल; नाशाद: असंतुष्ट, दुखी हृदय; जिस्म: शरीर; फ़ौलाद:इस्पात; मुफ़लिसी: विपन्नता; कलेजा: साहस; दिले-बर्बाद: दिवालिया/ध्वस्त व्यक्ति का मन; मुंसिफ़: न्यायकर्त्ता; जल्लाद: वधिक, हत्यारा।


रविवार, 12 अक्टूबर 2014

आपकी ख़ूंरेज़ नज़रें...

इश्क़  में  दिल  भी  जलेगा,  जान  भी
मुफ़्त  में  मिलता  नहीं  एहसान  भी

रहबरों  पर  अब  नहीं  आता   यक़ीं
वो  अगर  क़ुर्बान  कर  दें  जान  भी

इस  क़दर  तोड़े  रिआया  पर  सितम
शाह  से  डरने  लगा  शैतान  भी

हर  कहीं  दंगाइयों  के  रक़्स  से
हैं  परेशां  लोग  सब,  हैरान  भी

आपकी   ख़ूंरेज़  नज़रें  देख  कर
कांप  उठते  हैं  मिरे  अरमान  भी

याद  आता  है  कभी  वो  शख़्स  भी
दे  रहा  था  जो  तुम्हें  ईमान  भी  ?

उड़  गए  तो  लौट  कर  आते  नहीं
हैं    परिंदों  की  तरह   इंसान  भी  !

                                                                 (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसान: अनुग्रह; रहबरों: नेताओं; यक़ीं: विश्वास; क़ुर्बान: बलिदान; रिआया: नागरिक; सितम: अत्याचार; शैतान: दैत्य; रक़्स: नृत्य; परेशां:विचलित;  हैरान: विस्मित; ख़ूंरेज़: हिंसक, रक्तिम; अरमान: अभिलाषा; शख़्स: व्यक्ति; ईमान: आस्थाएं; परिंदों: पक्षियों।

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

चांद की नाव में....

दुश्मनों  को  ज़रा  सहा  जाए 
आज  ख़ामोश   ही  रहा  जाए

फ़ित्रते-हुस्न  ही  अधूरी  है
चांद  को  क्यूं  बुरा  कहा  जाए

फज्र  तक  इंतज़ार  कर  लीजे
क्या  ख़बर,  वो  क़सम  निभा  जाए

दिल  करे  है  तवाफ़  यारों  का
एक  सज्दा  अता  किया  जाए

मौत  का  वक़्त  तय  नहीं  जब  तक
क्यूं  न  दिल  खोल  कर  जिया  जाए

मंज़िलें  ख़ुद  क़रीब  आती  हैं
सब्र  से  काम  गर  लिया  जाए

दरिय:-ए-नूर  है  शरद  पूनम
चांद  की  नाव  में  बहा  जाए

आख़िरत  की  नमाज़  मत  पढ़िये
दिल  कहीं  होश  में  न   आ  जाए  !

                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़ित्रते-हुस्न: सौंदर्य की प्रकृति; फज्र: पौ फटना; इंतज़ार: प्रतीक्षा; तवाफ़: आस-पास घूमना, परिक्रमा; यारों: प्रिय; 
सज्दा: भूमि पर शीश झुका कर प्रणाम; अता: प्रदान; मंज़िलें: लक्ष्य; सब्र: धैर्य; गर: यदि; दरिय:-ए-नूर: प्रकाश की नदी; 
आख़िरत: अंतिम क्षण, मृत्यु का क्षण ।

 


शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

हम दफ़ा हो गए !

नाम  सुन  कर  हमारा  ख़फ़ा  हो  गए
शाह  जब  से  हुए  वो  ख़ुदा  हो  गए

एक  ताज़ा  ख़बर  आपके  भी  लिए
बेवफ़ा  दोस्त  सब  बावफ़ा  हो  गए

एहतरामे-शहादत  उन्हें  भी  मिले
इश्क़  की  राह  में  जो  फ़ना  हो  गए

चंद  अश्'आर  अपने  शम्'अ  से  जले
चंद  अश्'आर  बादे-सबा  हो  गए

ख़ूब  मोहसिन  मिले  हैं  हमें  ज़ीस्त  में
वक़्त  आया  नहीं ,   सब  हवा  हो  गए

तोड़ना  चाहती  थी  हमें  शामे-ग़म
दर्द  लेकिन  हमारी  दवा  हो  गए

दफ़्अतन  लोग  दिल  लूट  कर  ले  गए
और  बस,  हम  शहीदे-वफ़ा  हो  गए

लीजिए,  अब  ज़रा  मुस्कुरा  दीजिए
आपकी  बज़्म  से  हम  दफ़ा  हो  गए  !

                                                                   (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: निष्ठाहीन; बावफ़ा: निष्ठावान; एहतरामे-शहादत: वीरगति पाने का सम्मान; फ़ना: बलिदान; चंद: कुछ; अश्'आर: शे'र का बहुवचन; शम्'अ: दीपिका; बादे-सबा: प्रातः समीर; मोहसिन: अनुग्रहकर्त्ता; ज़ीस्त: जीवन; दफ़्अतन: सहसा; शहीदे-वफ़ा: निष्ठा पर बलि; बज़्म: सभा; दफ़ा: दूर, अदृश्य।


गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

फ़ैसला अच्छा नहीं !

जंग  हो  जज़्बात  की  ये  सिलसिला  अच्छा  नहीं
दोस्ती  में  रात-दिन  शिकवा-गिला   अच्छा  नहीं

उम्र  भर  का  साथ  हो  तो  क्या  ख़ुदी,  कैसी  अना
हमसफ़र  से  हर क़दम  पर  फ़ासला  अच्छा  नहीं

क़ुदरतन  टूटे  क़ह्र  तो  क्या  शिकायत  अर्श  से
सहर:-ए-दिल   में  उठे  जो  ज़लज़ला,  अच्छा  नहीं

रात-दिन  डूबे  हुए  हैं  शायरी  की  फ़िक्र  में
घर  चलाने  के  लिए  ये  मश्ग़ला  अच्छा  नहीं

इब्ने-इन्सां  के  लिए  ये  ज़िंदगी  भी  फ़र्ज़  है
मग़फ़िरत  को  ख़ुदकुशी  का  रास्ता  अच्छा  नहीं

एक  ख़ालिक़,  एक  मालिक,  कौन-सा  फ़िरक़ा  बड़ा ?
रहबरी  के  नाम  पर  ये  मुद्द'आ  अच्छा  नहीं

रह  गईं  हों  जब  रिआया  की  दलीलें  अनसुनी
शाह  के  हक़  में  ख़ुदा  का  फ़ैसला   अच्छा  नहीं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जंग: युद्ध, संघर्ष; जज़्बात: भावनाएं; सिलसिला: क्रम; शिकवा-गिला: उलाहने; ख़ुदी: स्वाभिमान; अना: अहंकार; हमसफ़र: सहयात्री, जीवनसाथी; फ़ासला: अंतराल, दूरी; क़ुदरतन: प्राकृतिक रूप से; क़ह्र: आपदा; अर्श: आकाश, ईश्वर, नियति; सहर:-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल, शुष्क मन; ज़लज़ला: भूकम्प; मश्ग़ला: व्यस्तता, दिनचर्या; इब्ने-इन्सां: मनुष्य-संतान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य; मग़फ़िरत को: मोक्ष हेतु; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  ख़ालिक़: सृजन कर्त्ता; मालिक: ईश्वर, ब्रह्म; फ़िरक़ा: संप्रदाय; रहबरी: नेतृत्व, नेतागीरी;   मुद्द'आ: विषय, बिंदु; रिआया: प्रजा, जनसामान्य;  दलीलें: प्रतिवाद;  हक़: पक्ष।  

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

मंहगाई का गहन ...

कल-आज  क़त्ले-आम  का  त्यौहार  तो  नहीं ?
शैतान    कहीं     शाह  पर     सवार  तो  नहीं  ?

सोते  न  जागते  हैं  न  खाते  हैं  चैन  से
फिर  इश्क़  में  जनाब  गिरफ़्तार  तो  नहीं  ?

बेशक़,  हम  आसमां  से  दिले-हूर  ले  उड़े
लेकिन  हम  आपके  भी  गुनहगार  तो नहीं ?

हर  जिन्स  को  लगा  है  मंहगाई  का  गहन
जम्हूर  है,  अवाम  की  सरकार  तो  नहीं  ! 

कहने  को  कह  रहे  हैं  बहुत  कुछ  तमाम  लोग
हालात    बदल  जाएं    ये    आसार  तो  नहीं 

तेवर     ज़रूर     सख़्त   रहे  हों     कभी-कभी 
अफ़सोस !  क़लम  कारगर  हथियार  तो  नहीं !

मुफ़लिस  सही,  फ़क़ीर  सही,  दर-ब-दर  सही
शाही     इनायतों   के     तलबगार     तो  नहीं !

जायज़  है  हक़  हमारा  सुख़न  की  ज़मीन  पर
क़ाबिज़  हैं   जहां  हम,     किराएदार    तो  नहीं  !

अल्लाह    तय  करे    कि  रखेगा     कहां  हमें
हम      मिन्नते-हुज़ूर   को     तैयार   तो  नहीं  !

                                                                         (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़त्ले-आम: जन-संहार; दिले-हूर: अप्सरा का हृदय; गुनहगार: अपराधी; जिन्स: उत्पाद, वस्तु; गहन: ग्रहण; जम्हूर: लोकतंत्र; अवाम: जन-साधारण; हालात: परिस्थितियां; आसार: संकेत; तेवर: मुद्राएं; कारगर: प्रभावी; मुफ़लिस: निर्धन; फ़क़ीर: अकिंचन, साधु, भिक्षुक; दर-ब-दर: यहां-वहां भटकने वाला, गृह-विहीन; इनायतों: कृपाओं; तलबगार: अभिलाषी; जायज़: उचित, वैध; हक़: अधिकार; सुख़न: सृजन; क़ाबिज़:आधिपत्य जमाए; मिन्नते-हुज़ूर: ईश्वर की चिरौरी।