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शनिवार, 22 दिसंबर 2012

न तोड़ेंगे वो: हिजाब कभी ....


कोई    फ़रेब    नया     बेवफ़ा    करे   है  उन्हें
हमारे  दिल से   दम-ब-दम   जुदा  करे है उन्हें

तमाम    ज़ायरीं    उनकी    दरूद     पढ़ते   हैं
हमारा   इश्क़    हबीब-ए-ख़ुदा   करे  है   उन्हें

कहीं लिखा है  के: न तोड़ेंगे वो:  हिजाब  कभी
यही   ग़ुरूर   मेरा    मरतबा    करे   है   उन्हें

हुनर  है  ख़ूब   सर-ए-बज़्म   निगहसाज़ी  भी
ये:  रंग-ए-सोज़  सबसे   अलहदा करे है  उन्हें

जो तहे-दिल से  निभाते हैं  रस्मे-उन्सो-ख़ुलूस
रूह-ए-ममनून   शुक्रिया   कहा  करे  है  उन्हें।

                                                        (2009)

                                        -सुरेश स्वप्निल 

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

....अब्र ने नहीं देखा


रुख़  - ए - बहार   मेरे  शह्र  ने    नहीं  देखा
सिला - ए - इंतज़ार    सब्र   ने    नहीं  देखा

तू  बदगुमाँ  है   ग़रीबां  पे   ज़ुल्म  ढाता है
मेरा   जलाल    तेरे  जब्र  ने     नहीं   देखा

फ़रेब-ओ-मक्र  की   इफ़रात  है  जहाँ  देखो
ये:  दौर   और  किसी  उम्र  ने    नहीं  देखा

तू संगदिल तो नहीं है   मगर कभी तुझको
मेरे  मकां  पे   शब् - ए -क़द्र  ने  नहीं देखा

हर एक सिम्त  आसमां से नियामत बरसी
सहरा-ए-दिल की तरफ़  अब्र ने नहीं देखा।

                                                  (2010)

                                       -सुरेश स्वप्निल 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

जो पीरों में न होंगे ....


हमारे  अश्क   जिस  दिन   आपकी   आँखों  में  आएंगे
जहाँ  में   हों  न  हों   हम   आपके   ख़्वाबों   में  आएंगे

अभी   है   इब्तिदा-ए-इश्क़   दिल  के  दाग़   क्या  देखें
न   जाने    और   कितने     हादसे    राहों   में    आएंगे

अभी  हम  कनख़ियों  से  देखते  हैं   उनको  हसरत  से
कभी  वो:  दिन  भी  आएगा  के: हम  नज़रों  में आएंगे

तेरे   रुख़सार   की  लौ  में   झुलस  कर  तोड़ते  हैं   दम
ये:   परवाने    जहाँ    देखो     वहीं   क़दमों   में   आएंगे 

ये: दिल के ज़ख्म  हैं साहब  छिपाएं  भी तो किस  तरह
जो   अश्कों   में   न  उतरें   तो  मेरे   नग़मों  में  आएंगे

तेरे   आशिक़   तो   तारीख़   में   अपनी  जगह  तय  है
जो   पीरों   में    न   होंगे    तो   तेरे   बन्दों  में   आएंगे।

                                                                      (2003)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 







बुधवार, 19 दिसंबर 2012

ये: सुरबहार-ए-अज़ां ....

ख़ुदा  क़सम  मैं  हुस्न-ए-जां  से   बेनियाज़  नहीं
मगर  वो:  शख़्स  मेरी  तरह   दिल-नवाज़   नहीं

वो:   मयफ़रोश   निगाहों   से    जाम   भरता    है
शह्र   की   आब-ओ-हवा  में  ये:  बात   राज़  नहीं

सबा-ए-सहर  में   शामिल  है   भैरवी  की  ख़ुनक़
ये:  सुरबहार-ए-अज़ाँ  यार-ए-मन  है  साज़  नहीं

हक़ीक़तन   वो:   मेरे  दिल  को   छू  के गुज़रा  है
मगर    ख़्याल   है    वो:   सूरत-ए-मजाज़    नहीं


तेरे   शहर    को    ख़ैरबाद   कह  चले   ऐ   दोस्त
यहाँ    दुआ - सलाम    रस्म    है   रिवाज़   नहीं।

                                                             (2009)

                                              -सुरेश  स्वप्निल
                                   

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

असर तेरी छुवन का ...



अजब मुश्किल  में  ये: दिल  आ गया  है
मेरी   नज़रों   में    क़ातिल  आ गया  है

हुए   वो:    नाख़ुदा    तूफ़ाँ     में      मेरे
न  जाने  कब  ये:   साहिल  आ  गया है

असर  तेरी  छुवन   का   हम  भी   देखें
तेरे   क़दमों  में  बिस्मिल  आ  गया  है

मेरे    माशूक़   का   पैग़ाम    ले    कर
मेरे   कमरे   में    बादल  आ  गया   है

ख़ुदारा  अब  तो  लग  जाओ   गले  से
सफ़र  करते  हैं  मक़तल  आ  गया  है


बड़ी    शिद्दत    से    तेरी    याद   आई
बड़ी मुश्किल में  ये:  दिल  आ गया है।

                                             (2006)

                              - सुरेश  स्वप्निल

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

बाद-ए-सबा साथ रहे ....


दौर-ए-हिजरां में   इक  उम्मीद-ए-वफ़ा   साथ रहे
चंद   दिलशाद    हसीनों    की     दुआ  साथ  रहे

दिल   न    दे   तू   मुझे    अपनी   तस्बी:   दे  दे
तू   कहीं   हाथ  छुड़ा  ले    तो   ख़ुदा   साथ   रहे

यूँ   तो   ईमां  है   मेरा  इश्क़-ए-बुताँ  पे  लेकिन
हद  से  गुज़रूं  तो मुअज्ज़िन  की सदा  साथ रहे

ज़ख़्म दर ज़ख़्म   हुआ  जाता   है   संदल-संदल
है शब-ए-वस्ल-ए-सनम  बाद-ए-सबा  साथ  रहे

ऐ  अदम    तुझसे   मिलेंगे    तो   मसर्रत    होगी
काश  उस वक़्त  मेरी  आन-ओ-अना  साथ  रहे।

                                                            (2009)

                                             -सुरेश  स्वप्निल




रविवार, 16 दिसंबर 2012

ख़ुदा से मिलो तो ....




ख़ुदा   से   मिलो   तो   वफ़ा  मांग  लेना
हमारी   तरफ़   से   दुआ    मांग    लेना

शब-ए-वस्ल  ख़ुद  एक तोहफ़ा है  यूँ तो
हक़-ए-इश्क़   का  मरतबा  मांग   लेना

वो: मुन्सिफ़  है  सबकी तरफ़  देखता है
सितम  तो  करो   प'  रज़ा   मांग  लेना

तग़ाफ़ुल  की जायज़ वजह  जो न हो तो
हमीं   से    कोई    मुद्दआ     मांग   लेना

सर-ए-बज़्म  ज़ाहिर न  हो   नब्ज़-ए-दिल
अकेले   में    हमसे    दवा    मांग    लेना

कठिन  है डगर  उसके पनघट की जोगी
तसव्वुफ़  का इक सिलसिला मांग लेना

कभी  हज  को आओ वहीं घर है अपना
इमाम - ए - सदर  से   पता  मांग लेना

                                            (2011)

                                -सुरेश स्वप्निल