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शनिवार, 24 सितंबर 2016

हम ख़ुद बताएं

न  तुम  कुछ  कहोगे  न  हम  कुछ  कहेंगे
यहां  सिर्फ़  अह् ले-सितम   कुछ  कहेंगे

जहां  तुमको  एहसासे-तनहाई  होगा
वहां  मेरे  नक़्शे-क़दम  कुछ  कहेंगे

ज़ुबां  को  जहां  पर  इजाज़त  न  होगी
वहां  पर  तेरे  चश्मे-नम  कुछ  कहेंगे

अभी  आपका  वक़्त  है  आप  कहिए
किसी  रोज़  बीमारे-ग़म  कुछ  कहेंगे

न  कहिए  हमें  आप  सच  बोलने  को
य.कीं  कुछ  कहेगा  वहम  कुछ  कहेंगे

मुनासिब  नहीं  है  कि  हम  ख़ुद  बताएं
हमारे  चलन  पर  सनम  कुछ  कहेंगे

हमें  क्यूं  न  उमराह  की  हो  इजाज़त
कभी  इस  पे  शाहे-हरम  कुछ  कहेंगे ?

                                                                    (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ ;





सोमवार, 19 सितंबर 2016

दिल पे बंदिश ...

दिल  पे  बंदिश  तो  कुछ  बह्र  की  है
कुछ  इनायत      तेरी       नज़्र  की  है

आज  साक़ी      सलाम      कर  बैठा
सारी    मस्ती     उसी     अस्र  की  है

कोई     इन्'.आम    क्या    हमें  देगा
फ़िक्र   अश्'आर   की   क़द्र  की  है

अर्श  ने     जो     हमें     पिलाया  था
रुख़  पे     रंगत    उसी  ज़ह्र  की  है

बर्क़   कब    घर   जला   सकी  मेरा
बात    सरकार   के    क़ह्र     की  है

गिर  गई    जो   ग़रीब  के    ग़म  से
छत     शहंशाह  के    क़स्र   की  है

शाह  की   रूह   स्याह  अब  भी  है
रौशनी     तो    चराग़े  क़ब्र     की है  !

                                                                   (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थः बंदिश : बंधन; बह्र : छंद,धड़कन; इनायत : कृपा; नज़्र : नज़र, दृष्टि; साक़ी : मदिरा पिलाने वाला; अस्र : प्रभाव; इन्'.आम : पुरस्कार; अश्'आर : शे'र का बहुवचन; अर्श: आकाश, देवता गण; रुख़ : मुख; ज़ह्र : ज़हर, विष; बर्क़: आकाशीय बिजली; क़ह्र : ;अत्याचार; ग़म: दुःख; क़स्र : महल;  रूह: आत्मा; स्याह: कृष्णवर्णी, काली; रौशनी: प्रकाश; चराग़े  क़ब्र ; समाधि पर रखा हुआ दीपक।



मंगलवार, 13 सितंबर 2016

अखर जाएगी ज़िंदगी ...

रेज़ा  रेज़ा  बिखर  जाएगी  ज़िंदगी
ग़म  न  हों  तो  ठहर  जाएगी  ज़िंदगी

चार  दिन  बेबसी  के  अगर  निभ  गए
पांचवें  दिन  संवर   जाएगी  ज़िंदगी

हिज्र  में  दोस्तों  की  दुआ  लीजिए
हर  भंवर  से  उबर  जाएगी  ज़िंदगी

भूख  से  तिफ़्ल  घर  में  तड़पते  मिलें
तो  सभी  को  अखर  जाएगी  ज़िंदगी

ख़ून  के  रंग  में  गर  बग़ावत  न  हो
दहशतों  में  गुज़र  जाएगी  ज़िंदगी

नाम  लेंगे  ख़ुदा  का  उसी  रोज़  हम
जब  ज़ेहन  से  उतर  जाएगी  ज़िंदगी

अब  जो  तूफ़ान  से  इश्क़  कर  ही  लिया
देख  लेंगे  जिधर  जाएगी  ज़िंदगी  !

                                                                            (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : रेज़ा रेज़ा : टुकड़े टुकड़े; बेबसी : विवशता; हिज्र : वियोग; दुआ : शुभाकांक्षा; तिफ़्ल : शिशु, छोटे बच्चे; गर : यदि; बग़ावत : विद्रोह; दहशतों : आतंक, भयों; ज़ेहन : मस्तिष्क ।



शनिवार, 10 सितंबर 2016

बदल दे रूह ...

कहीं  ज़्यादा  कहीं  कम  है
जहां    देखो    वहीं   ग़म  है

तुम्हारे     सौ     ठिकाने   हैं
हमारा     कौन   हमदम  है

मरीज़े  इश्क़     की  ख़ातिर
न  पुरसा  है    न  मरहम  है

जहां       उम्मीद      है  तेरी
वहां  की   राह    पुरख़म  है

बुला  लो    या    चले  आओ
तुम्हारा      ख़ैरमक़्दम      है

वतन   की   नौजवानी      में
कहीं      पैबस्त     मातम  है

बग़ावत  कर   कि  रोता  रह
निज़ामे     ज़ुल्म    क़ायम  है

बदल  दे    रूह   'जन्नत'  की
अगर    शद्दाद   में    दम  है  !

                                                                   (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ठिकाने : संपर्क; हमदम: साथी, सहयात्री; मरीज़े-इश्क़ : प्रेम का रोगी, ख़ातिर : हेतु; पुरसा : सांत्वना; पुरख़म : मोड़ों से भरा, घुमावदार;   ख़ैरमक़्दम: स्वागत; नौजवानी: युवा वर्ग; पैबस्त: टंकित, बंधा हुआ; मातम:निराशा, शोक, अवसाद; बग़ावत : विद्रोह; निज़ामे-ज़ुल्म : अत्याचार का शासन; क़ायम: वर्त्तमान, स्थापित; 'जन्नत': स्वर्ग, यहां कश्मीर; शद्दाद : एक अहंकारी शासक जो अपने को ईश्वर मानता था और जिसने एक कृत्रिम स्वर्ग बनाने का प्रयास किया ।



गुरुवार, 8 सितंबर 2016

'ख़ुदा' को गिला नहीं !

एहसासे  कमतरी  से  किसी  का  भला  नहीं
क्या  इश्क़  कीजिए  कि  अगर  दिल  खुला  नहीं

ख़्वाबो  ख़्याल  में  ही  सही  राब्ता  तो  है
हों  लाख  दूर  दूर  मगर  फ़ासला  नहीं

तेरी  निगाहे  बर्क़  गिरी  दिल  पे  जिस  जगह
हलचल  हुई  ज़रूर  मगर  ज़लज़ला  नहीं

ग़ालिब  से  पूछते  हैं  मीर  का  मेयार  क्या
यारों  के  पास  और  कोई  मश्ग़ला  नहीं

वो  कोह  था  पिघल  गया  तेरे  जलाल  से
अल्मास  थे  हम  जिस्म  हमारा  जला  नहीं

होते  हैं  क़त्ल  रोज़  फ़रिश्ते  बिला  गुनाह
जन्नत  सुलग  रही  है  'ख़ुदा'  को  गिला  नहीं

राहे  ख़ुदी  में  साथ  न  दे  पाएंगे  मियां
लंबा  सफ़र  है  और  कोई  मरहला नहीं

करके  दुआ  सलाम  निकल  आए  ख़ुल्द  से
'उस  शख़्स'  से  मिज़ाज  हमारा  मिला  नहीं  !

                                                                               (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसासे  कमतरी : हीन भावना; ख़्वाबो  ख़्याल; स्वप्न एवं चिंतन; राब्ता : संपर्क ; फ़ासला :अंतराल, दूरी; निगाहे बर्क़: बिजली जैसी दृष्टि; ज़लज़ला : भूकंप ; 'ग़ालिब', मीर : उर्दू के महानतम शायर ; मेयार: स्तर ; मश्ग़ला : व्यस्तता ; कोह : पर्वत ; जलाल ; तेज ; अल्मास : वज्र, हीरा ; जिस्म : शरीर ; फ़रिश्ते ; देवदूत ; बिला : बिना ; गुनाह : अपराध ; जन्नत : स्वर्ग ; 'ख़ुदा': मालिक, शासक; गिला : शिकायत ; राहे-ख़ुदी : आत्म-बोध का मार्ग ; मियां : श्रीमान,सज्जन ; मरहला: पड़ाव ; दुआ सलाम :औपचारिकता ; ख़ुल्द : स्वर्ग, जन्नत का पर्यायवाची ।

बुधवार, 31 अगस्त 2016

रहनुमा हैं वही ....

लोग  तन्हाइयों  में   फ़ना  हो  गए
जो  बचे  वो  तेरे  आशना  हो  गए

बेरुख़ी  का  न  इल्ज़ाम  दीजे  हमें
आप  ही  ख़ुद  मरीज़े-अना  हो  गए

रहबरी  के  लिए  मुंतख़ब  जो  हुए
रहज़नों  के  वही  सरग़ना  हो  गए

हालिया  दौर  के  रहनुमा  हैं  वही
बीच  दरबार  जो  बरहना  हो  गए

आलिमों  की  ज़ुबां  लड़खड़ाने  लगी
तंज़  के  लफ़्ज़  हम्दो-सना  हो  गए

मालिकों  की  अदा  मख़्मली  हो  गई
दस्ते-मज़दूर    जब    आहना  हो  गए

बुत  ख़ुदा  की  तरह  पेश  आने  लगे
अक्स  ही  वक़्त  का  आइना  हो  गए

आग  फ़िर्दौस  में  हम  लगा  आए  जब
आह  दर  आह  आतशज़ना  हो  गए !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तन्हाइयों : एकांतों; फ़ना : नष्ट; आशना : प्रेमी, साथी; बेरुख़ी : उपेक्षा; इल्ज़ाम : दोष, आरोप; मरीज़े-अना : अहंकार के रोगी; रहबरी : नेतृत्व; मुंतख़ब : निर्वाचित; रहज़नों : डकैतों, लुटेरों; सरग़ना : मुखिया; हालिया : वर्त्तमान; दौर : कालखंड; रहनुमा : मार्गदर्शक; दरबार : राजसभा; बरहना : नग्न, निर्वस्त्र; आलिमों : विद्वानों; ज़ुबां : भाषा; तंज़ : व्यंग्य; लफ़्ज़ : शब्द; हम्दो-सना : विरुद और प्रार्थना; अदा : हाव-भाव; दस्ते-मज़्दूर : श्रमिकों के हाथ; आहना : इस्पाती; बुत : मूर्तियां; पेश : प्रस्तुत, व्यवहार करना; अक्स : प्रतिच्छाया, प्रतिबिंब;  फ़िर्दौस : स्वर्ग; आतशज़ना : चकमक, आग जलाने वाला पत्थर ।









शनिवार, 27 अगस्त 2016

दोज़ख़ के ऐश...

जो  लोग  सर  झुका  के  बग़ल  से  निकल  गए
उनके   उसूल     वक़्त   से   पहले    बदल  गए

हर  हाल  में     नसीब      नए  ज़ख़्म     ही  रहे
दिल  की  लगी  बुझी  तो   मेरे  हाथ   जल  गए

साक़ी !    तेरा  रसूख़    किसी  ने     चुरा  लिया
ले  देख    हम    चढ़ा  के    सुराही   संभल  गए

जिनको    तलाशे-ख़ुल्द  थी    सब   बेइमान  थे
दोज़ख़  के  ऐश   देख  के   अरमां   मचल  गए

इन्'आम -ओ- इकराम  की   हस्रत  कहां  नहीं
ज़र   देख  कर    ज़मीर     हज़ारों  फिसल  गए

देखे   हैं       ताजदार      हमारे        सुकून   ने
हम  वो  नहीं  जो  भीख  उठा  कर  निकल  गए

किस  काम  की    हुज़ूर    ये  आज़ादिए-सुख़न
गर  आप    दरिंदों  की    सदा  से    दहल  गए  !

                                                                                          (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उसूल : सिद्धांत; नसीब : प्रारब्ध;  साक़ी : मदिरा परोसने वाला; रसूख़ : प्रतिष्ठा; सुराही : मदिरा-पात्र; ज़ख़्म: घाव; तलाशे-ख़ुल्द: स्वर्ग की खोज; दोज़ख़ : नर्क; ऐश: आनंद; अरमां : अभिलाषाएं; इन्'आम : पुरस्कार; इकराम: कृपाएं; हस्रत : इच्छा; ज़र: स्वर्ण, धन; ज़मीर : विवेक; ताजदार: सत्ताधारी ; सुकून : आत्म-संतोष, धैर्य; आज़ादिए-सुख़न : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; गर : यदि; दरिंदों : हिंसक पशुओं ; सदा : स्वर, पुकार।