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गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

...आसां नहीं हूं मैं !

नाकामिए-हयात    पे     हैरां  नहीं  हूं  मैं
वैसे  भी  तेरे  ज़र्फ़  का  पैमां  नहीं  हूं  मैं

शक़  क्यूं  न  हो  मुझे  कि  तू  मेरा  ख़ुदा  नहीं
गर  तू  ये  सोचता  है  कि  इंसां  नहीं  हूं  मैं

शायर  हूं  दिलनवाज़   हूं   पुख़्ता ख़याल  हूं
फिर  भी  किसी  के  ख़्वाब  का  मेहमां  नहीं  हूं  मैं

तू  ख़द्दो-ख़ाल  से  कोई  बेहतर  ख़्याल  ला
ग़ुस्ताख़  तिफ़्ले-हुस्न  का  अरमां  नहीं  हूं  मैं

ज़ाया  न  कर  समझ  को  समझने  में  यूं  मुझे
इस  उम्र  के  लिहाज़  से  आसां  नहीं  हूं  मैं

सज्दा  करूं  करूं  न  करूं  सोच  रहा  हूं
चल  मान  ले  कि  साहिबे-ईमां  नहीं  हूं  मैं

नन्ही-सी  इक  ख़ुशी  हूं  मुझे  शुक्रिया  न  कह
दिल  पर  किसी  ग़रीब  के  एहसां  नहीं  हूं  मैं !

                                                                                         (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाकामिए-हयात: जीवन की असफलताओं; हैरां: चकित, विस्मित; तेरे: यहां, ईश्वर के; ज़र्फ़ : सामर्थ्य, गांभीर्य; पैमां: मापक; गर: यदि; दिलनवाज़: भावनाओं का सम्मान करने वाला ; पुख़्ता ख़याल: पुष्ट/ठोस विचारों वाला ; ख़्वाब: स्वप्न; मेहमां : अतिथि; ख़द्दो-ख़ाल: शारीरिक सौंदर्य; ग़ुस्ताख़: उद्दंड; तिफ़्ले-हुस्न: सुंदर बच्चे; अरमां: आकांक्षा; ज़ाया: व्यर्थ; उम्र:आयु, समय, काल-खंड; लिहाज़ : अनुसार; आसां : सरल; सज्दा: भूमि पर मस्तक टिकाना; साहिबे-ईमां : आस्थावान, आस्तिक; ग़रीब: निर्धन, असहाय; एहसां : अनुग्रह।

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बलवा कहीं हुआ...

बरसों  के  बाद  आंख  समंदर  से  मिली  थी
क़िंदील  जैसे  माहे-मुनव्वर  से  मिली  थी

बलवा  कहीं  हुआ  तो  कहीं  आए  ज़लज़ले
जिस  दिन  मेरी  तहरीर  तेरे  घर  से  मिली  थी

पेशानिए-हयात  की  सलवट  न  पूछिए
ठोकर  हमें  ये  आपके  ही  दर  से  मिली  थी

क़ातिल ! भुला  के  देख  वही   बद्दुआ  कि  जो
मक़्तूल  की  सदाए-चश्मे-तर  से  मिली  थी

 सैलाबे-ग़म  से  आप  परेशां  न  होइए
जीने  की  अदा  नूह  को  महशर  से  मिली  थी

अय  काश  !  हमें  कोई  बिठा  दे  उसी  जगह
गर्दन  जहां  हुसैन  की   ख़ंजर  से  मिली  थी

जिस  रात  कोहे-तूर  कोहे-नूर  हो  गया
वो  रात  फ़क़ीरों  को  मुक़द्दर  से  मिली  थी  !

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: समंदर : समुद्र; क़िंदील : आकाशदीप; माहे-मुनव्वर: उज्ज्वल चंद्रमा, पूर्ण चंद्र; बलवा : दंगा, उपद्रव; ज़लज़ले: भूकंप (बहुव.); तहरीर : हस्तलिपि में लिखित पत्र; पेशानिए-हयात : जीवन-रूपी शरीर का मस्तक; दर: द्वार; क़ातिल : (ओ) हत्यारे; बद्दुआ : श्राप; मक़्तूल : हत् व्यक्ति; सदाए-चश्मे-तर : भीगे नयनों का निवेदन, कातर दृष्टि; सैलाबे-ग़म : दुःखों की बाढ़; परेशां: चिंतित, व्याकुल; अदा : शैली; नूह: इस्लाम में हज़रत नूह, ईसाइयत में हज़रत नोहा, भारतीय मिथक शास्त्र में महर्षि मनु, जिनके संबंध में मिथक है कि उन्होंने महाप्रलय में एक विशाल नौका बना कर जीवन की संभावना को जीवित रखा; महशर: महाप्रलय; अय काश :कामना है कि; हुसैन: हज़रत इमाम हुसैन अ. स., जिन्होंने कर्बला के न्याय-युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी; ख़ंजर : क्षुरी; कोहे-तूर : मिथक के अनुसार, प्राचीन अरब के साम प्रांत में सीना नामक घाटी में स्थित एक कृष्ण-वर्णी पर्वत, भावांतर से अंधकार / अज्ञान का पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ. स. को ईश्वर के प्रकाश की छटा दिखाई दी थी; कोहे-नूर: प्रकाश-पर्वत; फ़क़ीरों : संतों, यहां हज़रत मूसा अ.स.; मुक़द्दर: सौभाग्य।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

वहम के शिकार...

उसका  ख़्याल  यूं  तो   बहुत  पारसा  न  था
फिर  भी  कभी  नज़र  से  वो  मेरी  गिरा  न  था

मासूम  सी  निगाह  गिरी  बर्क़  की  तरह
दिल  को  मिला  वो  ज़ख़्म  कि  सोचा-सुना  न  था

ज़रयाब  क्या  हुए  कि  निगाहें  बदल  गईं
मुफ़लिस  रहे  तो  कोई   उन्हें  पूछता  न  था

जिस  शख़्स  को  जम्हूर  ने  सर  पर  बिठा  लिया
इंसानियत  से  उसका  कोई  वास्ता  न  था

क़ातिल  किसी  फ़रेबो-वहम  के  शिकार  थे
मक़तूल  के  ख़िलाफ़  कोई  मा'मला  न  था

ले  आई  मौत  आज  हमें  जिस  मक़ाम  पर
था   आस्मां  ज़रूर  वहां  पर  ख़ुदा  न  था

बेताब  लौट  आए  मदीने  में  घूम  के
जिसके  लिए  गए  थे  उसी  का  पता  न  था  !

                                                                                              (2015)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पारसा:पवित्र; मासूम: अबोध; बर्क़ : तड़ित, आकाशीय विद्युत; ज़रयाब: अचानक समृद्धि पाने वाला; मुफ़लिस : निर्धन; शख़्स: व्यक्ति; जम्हूर: लोकतंत्र, लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रणाली, वास्ता : संबंध, लेना-देना; क़ातिल: हत्यारा/रे; फ़रेबो-वहम: छल/ षड्यंत्र और भ्रम; मक़तूल: हत् व्यक्ति, जिसका वध किया गया हो; मक़ाम: स्थल, स्थान; बेताब:व्यग्र, व्याकुल ।


रविवार, 6 दिसंबर 2015

...हज़ारों ख़्वाहिशें

हो  चुकी   तकरीर  वापस  जाएं  हम
या  तुम्हें  घर  छोड़  कर  भी  आएं  हम

तख़्ते-शाही  तक  उन्हें  पहुंचाएं  हम
और  फिर  ताज़िंदगी   पछताएं  हम

छोड़  कर  जम्हूरियत  के  हक़  सभी
ताजदारों  की  अना  सहलाएं  हम

मुफ़लिसी  की  मार  इतनी  भी  नहीं
आपके  इजलास  में  झुक  जाएं  हम

दाल  कल  से  आज  सस्ती  ही  सही
जेब  में  धेला  नहीं  क्या  खाएं  हम

दर्द  अपने  साथ  ले  कर  आइए
आपको  दिल  में  कहीं  बैठाएं  हम

एक  चादर  में  हज़ारों  ख़्वाहिशें
पांव  अपने  किस  तरह  फैलाएं  हम ?!

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तकरीर:भाषण; तख़्ते-शाही: राज-सिंहासन; ताज़िंदगी: सारी आयु, आजीवन; जम्हूरियत: लोकतंत्र; हक़:अधिकार; ताजदारों:मुकुट-धारियों, सत्ताधीशों; अना: अहंकार; मुफ़लिसी: निर्धनता; इजलास: राजसभा; धेला: भारत में 19वीं  शताब्दी तक प्रचलित मुद्रा की सबसे छोटी इकाई, आधा पैसा; ख़्वाहिशें: इच्छाएं ।


शनिवार, 5 दिसंबर 2015

चंद क़दमों का सफ़र...

हम  जहां  मंसूरियत  पर  आ  गए
कुछ  क़रीबी  दोस्त  भी  कतरा  गए

जी,  कहा  हमने  'अनलहक़'  ख़ुल्द  में
सूलियां  लेकर  फ़रिश्ते  आ  गए

अब  न  कोहे-तूर  ना  उसके  निशां
कौन  मानेगा  झलक  दिखला  गए ?

क्या  उन्हें  घर  पर  बुलाना  ठीक  है
सीन:  में  जो  कोह  तक  पिघला  गए  !

नाम  उनका  पूछते  कैसे,   मियां
जो  वफ़ा  के  ज़िक्र  पर  ग़श  खा  गए  !

ख़ूब  ग़ालिब  ने  हमें  इस्लाह  की
मयपरस्ती  का  सबक़  सिखला  गए

चंद  क़दमों  का  सफ़र  है  ज़िंदगी
आप  आधी  राह  में  पछता  गए  ?!

                                                                              (2015)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मंसूरियत: हज़रत मंसूर अ. स. का मत, अद्वैतवाद का इस्लामी स्वरूप; 'अनलहक़':'अहं ब्रह्मास्मि', हज़रत मंसूर अ.स. का उद्घोष, जिसके कारण उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था; ख़ुल्द:स्वर्ग; फ़रिश्ते: देवदूत, मृत्युदूत; कोहे-तूर: अरब की सीना घाटी में स्थित 'तूर' (काला) नामक एक मिथकीय पर्वत, मिथक के अनुसार वहां हज़रत मूसा अ.स. को अल्लाह ने अपनी झलक दिखाई थी; निशां : चिह्न; कोह: पर्वत; वफ़ा:निष्ठा; ज़िक्र:उल्लेख; ग़ालिब:हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; इस्लाह:परामर्श, शिक्षा; मदिरापान; सबक़:पाठ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

...वक़्त कम है

रग़ों   में  अब  लहू  की  रफ़्त  कम  है
कि  हममें  आजकल  कुछ  ज़ब्त  कम  है

मिला  है  मुल्क  को  नायाब  राजा
चुग़द  ज़्यादह  मगर  बदबख़्त  कम  है

न  जाने  किस  तरह  ग़ुंचे  खिलेंगे
इधर  बादे-सबा  की  गश्त  कम  है

न  आओ  गर  तुम्हें  फ़ुरसत  नहीं  है
हमारे  पास  भी  तो  वक़्त  कम   है

हमीं  बेहतर  ख़ुदा  के  आशिक़ों  में
इबादत  में  हमारी  ख़ब्त  कम  है

बुलाने  को  बुला  तो  लें  ख़ुदा  को
मगर  उनसे  हमारा  रब्त  कम  है

हुई  हों  ग़लतियां  हमसे  हज़ारों
गुनाहे-ज़ीस्त   में  तो  दस्त  कम  है !

                                                                                (2015)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रग़ों: रक्त-वाहिनियों; लहू : रक्त; रफ़्त:गति; ज़ब्त:सहिष्णुता; नायाब: दुर्लभ; चुग़द:मूढ़, उलूक, मंदबुद्धि;  बदबख़्त: अभागा; 
ग़ुंचे: कलिकाएं; बादे-सबा: प्रातःसमीर; गश्त: आवागमन;  गर:यदि; हमीं:हम ही; बेहतर : अधिक श्रेष्ठ; इबादत:पूजा; ख़ब्त :मनोविकार; उन्मत्तता; रब्त:संपर्क, परिचय; गुनाहे-ज़ीस्त :जन्म लेने का अपराध, जीवनापराध; दस्त:हाथ, हस्त।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

आबलों की ज़ुबां ...

ख़ुद  को  आतिश-फ़िशां  समझते  हो
आबलों       की  ज़ुबां     समझते  हो  ?

चंद         सरमाएदार      चोरों     को
आप       हिन्दोस्तां       समझते  हो  ?

है    ग़ज़ब      आपकी     समझदारी
शाह    को    मेह्रबां        समझते  हो !

ग़ैब  से    'मन  की  बात'   कहते  हो
मुफ़लिसी   के   निशां   समझते  हो  ?

हर  तरफ़    मार-काट,    बदअमनी
क्या   इसी  को  अमां   समझते  हो  ?

हफ़्त-रोज़ा    जुदाई  है,   मोहसिन 
क्यूं   इसे     इम्तिहां   समझते  हो  ?!

हम    बसे  हैं   हुज़ूर  के    दिल  में
आप     जाने  कहां     समझते  हो  !

                                                                                (2015)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: आतिश-फ़िशां:ज्वालामुखी; आबलों : छालों; ज़ुबां : भाषा; चंद : कुछ, चार; सरमाएदार : पूंजीपति; ग़ज़ब : विचित्र; मेह्रबां : कृपालु; ग़ैब : अदृश्य स्थान, आकाश; मुफ़लिसी : निर्धनता, वंचन; निशां : चिह्न ;   बदअमनी : अशांति; अमां:सुरक्षा; हफ़्त-रोज़ा : सप्त-दिवसीय; जुदाई:वियोग; इम्तिहां : परीक्षा;