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गुरुवार, 27 अगस्त 2015

ख़ूब दंगा किया....

दर्द  जाना  नहीं  ज़माने  ने
ख़ूब  दंगा  किया  दिवाने  ने

तीर  तो  बे-लिहाज़  ही  ठहरा
सर  झुकाया  ग़लत  निशाने  ने

सैकड़ों  बस्तियां  जला  डालीं
वक़्त  को  आईना  दिखाने  ने

वस्ल  के  वक़्त  होश  खो  बैठे
रह  दिखाई  शराबख़ाने  ने

इश्क़  को  शर्मसार  कर  डाला
आपके  तिफ़्लिया  बहाने  ने

काम जो  हो सका न  दहशत  से
कर  दिखाया  वो  मुस्कुराने  ने

ख़ुल्द  के  मा'अने  बदल  डाले
आपके  बदअमल  घराने  ने  !

                                                                              (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बे-लिहाज़:शील-संकोच विहीन; वस्ल: मिलन; रह: राह का लघु, मार्ग; शर्मसार: लज्जित; तिफ़्लिया: बचकाने, बच्चों-जैसे; दहशत: आतंक; ख़ुल्द: स्वर्ग; मा'अने: अर्थ-संदर्भ; बदअमल: अराजक;   घराने: कुल, परिवार।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

लुटियन मुहल्ला ...

ग़रीबों  का  दुश्मन  है  लुटियन  मुहल्ला
लुटेरों  का  गुलशन  है  लुटियन  मुहल्ला

यहां     ज़ीस्त    महफ़ूज़     कैसे     रहेगी
लफ़ंगों  की  पल्टन  है  लुटियन  मुहल्ला

भटकते   हैं    हाथों   में    कश्कोल    लेकर
अदीबों  की  फिसलन  है  लुटियन  मुहल्ला

यहां    एक    लम्हे  में    बिकता    है   ईमां
सियासत  की  धड़कन  है  लुटियन  मुहल्ला

न   शाइस्तगी    है    न   तहज़ीब    बाक़ी
मदरसा-ए-बदज़न  है  लुटियन  मुहल्ला

बड़ी  तल्ख़  है    ज़िंदगी  की    हक़ीक़त
बड़ा  तंग  दामन   है  लुटियन  मुहल्ला

मकां   हंस  रहे  हैं   मकीं  की    अना  पर
फ़िरंगी  की  जूठन  है  लुटियन  मुहल्ला !

                                                                                      (2015)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: लुटियन मुहल्ला: नगर नियोजक लुट्येन द्वारा आकल्पित नई दिल्ली;  ज़ीस्त: जीवन क्रम; महफ़ूज़: सुरक्षित; लफ़ंगों:उपद्रवियों;  पल्टन: प्लाटून, सेना की टुकड़ी;  कश्कोल: कुम्हड़े से बना भिक्षा-पात्र; अदीबों: साहित्यकारों;  लम्हे: क्षण;  
ईमां: आस्था; सियासत:राजनीति;  शाइस्तगी: शिष्टता, विनम्रता; तहज़ीब: सभ्यता; मदरसा-ए-बदज़न: दुश् चरित्रों की पाठशाला; 
तल्ख़: तीक्ष्ण;  ज़िंदगी: जीवन; हक़ीक़त: यथार्थ; मकां: आवास;  मकीं: निवासी; अना: घमंड; फ़िरंगी: अंग्रेज़। 

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

...किसे जलाओगे ?

सर  मिरे   सामने   झुकाओगे
क्या  ख़ुदा  से  बुरा  बनाओगे

आस्मां  से    दुआएं    बरसेंगी
गर  हमें  बज़्म  में  बिठाओगे

क़ब्र  पर  गर्द  जम  चुकी  होगी
जब  तलक  तुम  क़रीब  आओगे !

हो  चले   हम  ग़ुरुब  दुआ  देकर
अब  सह् र  तक  किसे  जलाओगे

फिर  किया शाह  पर  यक़ीं  तुमने
फिर  किसी  दिन  फ़रेब  खाओगे

नाम      हिन्दोस्तान      है    मेरा
किस  क़लम  से  मुझे  मिटाओगे

लावा  बहता  है  मिरे  ज़ख़्मों  से
तुम  समंदर  हो  सूख  जाओगे  !

                                                                                    (2015)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बज़्म: सभा, गोष्ठी; गर्द: धूल; ग़ुरुब: अस्त; सह् र: प्रातः; यक़ी: विश्वास; फ़रेब: छल, धोखा; क़लम: तूलिका, लेखनी, शब्दावली; ज़ख़्मों: घावों।


शनिवार, 15 अगस्त 2015

उधर जाएंगे, या ...

जो  जज़्बात   ज़ेरे-बह् र  आएंगे
नज़र  में  समंदर  नज़र  आएंगे

ज़रा और नज़दीक़ आ जाएं दिल
नक़ूशे-मुहब्बत  उभर  आएंगे

शबो-शब   हमें  याद   करते  रहें
ख़ुदा की क़सम, दिन संवर आएंगे

रखेंगे  कहां  तक  हमें  मुंतज़िर
कभी  तो  मियां  राह  पर  आएंगे

इधर  घर  हमारा,  उधर  मैकदा
उधर  जाएंगे  या  इधर  आएंगे ?

बिठाया जिन्होंने तुझे  तख़्त  पर
वही  क़ब्र  तक  छोड़  कर  आएंगे

मुअज़्ज़िन ! न दीजो अज़ां ज़ोर से
मियांजी  ज़मीं   पर  उतर  आएंगे

हमें  ख़ुल्द  भी  है   गवारा  अगर
ख़ुदा  भी  हमारे    शह् र  आएंगे  !

                                                                             (2015)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जज़्बात: मनोभाव; ज़ेरे-बह् र: छंद में, नियंत्रण में; नक़ूशे-मुहब्बत: प्रेम के चिह्न; शबो-शब: प्रति रात्रि; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; 
मियां: श्रीमान, प्रिय; मैकदा: मदिरालय; तख़्त: राजासन; क़ब्र: समाधि, श्मशान; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मियांजी: आदरणीय व्यक्ति, यहां आशय ईश्वर; ख़ुल्द: स्वर्ग; गवारा; स्वीकार।



मंगलवार, 11 अगस्त 2015

...दुनिया बुरी नहीं

अश्'आर  में  रखते   हैं  ख़ूं -ए-दिल   निकाल के
हो      तब्सिरा     हुज़ूर     ज़रा     देख-भाल   के

अफ़सोस !     शहंशाह    बेईमां    निकल    गया
रक्खी  थीं   हमने   कितनी  तमन्नाएं  पाल  के

बेहतर    निज़ाम    सिर्फ़    ख़याली     पुलाव  है
दुनिया    चला   रहे   हैं   वो  जुमले    उछाल के

ऐवानेवाला-ज़ेर     हैं    किस   काम   के    अगर
हासिल   न   हों    जवाब   वहां   हर   सवाल  के

लिखिए  न  दिल   पे   नाम  हमारा  लिहाज़   में
जब  तक  न  मुतमईं  हों  कि  हम  हैं  कमाल के

आए   जो दिल की बात  ज़ुबां पर  तो  किस तरह
सदियों   से   मुंतज़िर  हैं   किसी   हमख़्याल   के

जीना   भी   फ़र्ज़   हो  तो  ये  दुनिया   बुरी  नहीं
देखे   हैं   ख़ुल्द   ने   भी   कई  दिन   मलाल  के !

                                                                                                    (2015)

                                                                                             -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: अश्'आर: शे'र का बहुव.;   तब्सिरा: टीका-टिप्पणी, समीक्षा; बेईमां: भ्रष्टाचारी;  तमन्नाएं: अभिलाषाएं; बेहतर    निज़ाम: सुशासन; ख़याली पुलाव: काल्पनिक भोज/विचार;  जुमले: कोरे वाक्य; ऐवानेवाला-ज़ेर: उच्च और निम्न सदन, राज्य सभा-लोक सभा; हासिल: प्राप्त; लिहाज़: शिष्टाचार, समादर; मुतमईं: आश्वस्त;  मुंतज़िर: प्रतीक्षारत;    हमख़्याल: समान विचार वाला; फ़र्ज़: कर्त्तव्य;  ख़ुल्द: स्वर्ग; मलाल: खेद। 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

दहशतों के पुलिंदे ...

नई   बस्तियों   में    शह् र   ढूंढते  हैं
यहीं  था  कहीं  अपना  घर  ढूंढते  हैं

कहीं तो मिले रिज़्क़ दो-चार दिन का
परिंदे    ख़ला   में    शजर    ढूंढते  हैं

फ़सल मर चुकी,  क़र्ज़ ज़िंदा खड़ा  है
परेशान     दहक़ां    ज़हर    ढूंढते  हैं

हैं  अख़बार  या  दहशतों  के  पुलिंदे
फ़क़त  एक  अच्छी  ख़बर  ढूंढते  हैं

चुराने  लगीं  नूर  अब  स्याह  रातें 
सितारे    ज़रा-सी   सह् र  ढूंढते  हैं

ज़ईफ़ी   गवारा    नहीं   दोस्तों  को
कि  ग़ुस्ताख़ियों  की उम् र  ढूंढते  हैं

बहुत  दूर  है  मग़फ़िरत  का  इदारा
मुसाफ़िर   शरीक़े-सफ़र    ढूंढते  हैं

यहां  तीरगी  में  ख़ुदा  क्यूं  मिलेगा
जहां  रौशनी   हो    उधर  ढूंढते   हैं  !

                                                                         (2015)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन; परिंदे: पक्षी; ख़ला: निर्जन स्थान; शजर: वृक्ष; दहक़ां: कृषक; दहशतों: भयों; पुलिंदे: गट्ठर; फ़क़त: मात्र; 
नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता; स्याह: कृष्ण;   सह् र: उष:काल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; गवारा: स्वीकार; ग़ुस्ताख़ियों: ढीठताओं; मग़फ़िरत: मोक्ष;  इदारा: संस्थान; शरीक़े-सफ़र: सहयात्री; तीरगी:अंधकार।




गुरुवार, 6 अगस्त 2015

सरकार से ख़ुश !

निगाहे-यार    से   ख़ुश  हैं
नज़र  के  वार  से  ख़ुश  हैं

शहर   के  लोग     दीवाने
नए  बाज़ार  से    ख़ुश  हैं

मकीं  बेज़ार  हैं   ख़ुद  से
दरो-दीवार  से    ख़ुश  हैं

वो  अपनी  फ़त्ह  से  ज़्यादा
हमारी  हार  से  ख़ुश  हैं

फ़क़ीरी  के  दिनों  में  हम
ख़्याले-यार  से  ख़ुश  हैं

मियां  की   सादगी   देखो
कि  बस  दस्तार  से  ख़ुश  हैं

ज़माने-भर   के    बे- ईमां
तेरी  सरकार  से  ख़ुश  हैं !

                                                                 (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मकीं: मकान में रहने वाले; बेज़ार: व्यथित; दरो-दीवार: द्वार एवं भित्ति; फ़त्ह: विजय; फ़क़ीरी: सन्यास, भिक्षुक-वृत्ति; 
ख़्याले-यार: प्रिय/ईश्वर का ध्यान; सादगी: निस्पृहता; दस्तार: पगड़ी/बड़ा पद; बे- ईमां: भ्रष्टाचारी।