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शनिवार, 23 मई 2015

...पुर्साने-हाल दे !

आसां  है  तो  क्यूं  कर  न  ज़ेह्न  से  निकाल  दे
मुश्किल  है  तो  ला  दे,  मुझे  अपना  सवाल  दे

लेता  है  तो  असबाबे-ग़ज़लगोई  छीन  ले
देता  है  तो  उस्ताद  मुझे  बा-कमाल  दे

आओ  तो  इस  तरह  कि  किसी  को  ख़बर  न  हो
जाओ  तो  यूं  कि  वक़्त  अज़ल  तक  मिसाल  दे

राहे-बहिश्त  में  मिरी  सांसें  उखड़  गईं
हूरें  न  दे,  न   दे  कोई  पुर्साने-हाल  दे

तेग़ें  तड़प  रही  हैं  तिरी  दीद  के  लिए
ना'र: -ए-इंक़िलाब  फ़लक  तक  उछाल  दे

सर  दांव  पर  लगा  है  शिकस्ता  अवाम  का 
मुफ़्लिस  को शाहे-वक़्त  से  ज़्यादा  मजाल  दे

नादार  को  निवाल:  मयस्सर  न  हो  जहां
उस  ख़ल्क़ो -कायनात   से   बेहतर  ख़्याल  दे !

                                                                                    (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: आसां: सरल; ज़ेह्न: मस्तिष्क; असबाबे-ग़ज़लगोई: ग़ज़ल  कहने  की  सामग्री; बा-कमाल: चमत्कारी; अज़ल: अनंतकाल; मिसाल: उदाहरण; राहे-बहिश्त: स्वर्ग का मार्ग; हूरें: अप्सराएं; पुर्साने-हाल: हाल पूछने वाला; तेग़ें: तलवारें; दीद: दर्शन; ना'र: -ए-इंक़िलाब: क्रांति का उद्घोष; फ़लक: आकाश; शिकस्ता: भग्न-हृदय, हारे हुए; अवाम: जन-सामान्य; मुफ़्लिस: निर्धन; शाहे-वक़्त: वर्त्तमान शासक; मजाल: साहस, सामर्थ्य; नादार: दीन-हीन; निवाल:: कौर; मयस्सर: प्राप्त, उपलब्ध; ख़ल्क़ो -कायनात: सृष्टि और ब्रह्माण्ड; ख़्याल: विचार ।



शुक्रवार, 22 मई 2015

कोई नादिर, कोई चंगेज़...

तुम्हारी  बेनियाज़ी  से  अगर  दिल  टूट  जाए,  तो ?
कोई  कमबख़्त  दीवाना  हमारे  सर  को  आए  तो ?

मक़ासिद  आपके  ज़ाहिर  नहीं  हैं  आज  भी  सब  पर
नियत  पर  आपकी  कोई  कभी  उंगली  उठाए  तो ?

हमें  शक़ तो  नहीं  है  दोस्तों  की  दिलनवाज़ी  पर
मगर  कोई  कहीं  हमको  अकेले  में  बुलाए,  तो ?

कहो  तो  आज  ही  कर  लें  गरेबां  चाक  हम  अपना
हमारी  याद  आ  आ  कर  तुम्हें  कल  को  सताए,  तो ?

कोई  नादिर  कोई  चंगेज़  हो  तो  सब्र  भी  कर  लें
शहंशाहे-वतन  ही  मुल्क  की   दौलत  लुटाए,  तो  ?

हमें  भी  कम  नहीं  है  शौक़  यूं  सज्दागुज़ारी  का
ख़ुदा  लेकिन  अदावत  का  कभी  रिश्ता  निभाए,  तो  ?

ख़ुदा  जिस  रोज़  चाहे  बंदगी  का  इम्तिहां  मांगे
अगर  बंदा  ख़ुदा  की  हैसियत  को  आज़माए,  तो  ?

                                                                                               (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बेनियाज़ी: उपेक्षा; कमबख़्त  दीवाना: अभागा प्रेमी; सर  को  आए: पीछे पड़े; मक़ासिद: मक़सद का बहुवचन, उद्देश्य; ज़ाहिर: प्रकट; नियत: आशय; शक़: संदेह; दिलनवाज़ी: मैत्री; गरेबां: कंठ; चाक: काट लेना;  नादिर: ईरान का एक मध्य-युगीन आक्रामक शासक, लुटेरा, जिसने दिल्ली को लूटा था; चंगेज़: चंगेज़ ख़ान, मंगोलिया का शासक जिसे इतिहास का क्रूरतम आक्रमणकारी, महान योद्धा, लेकिन लुटेरा राजा माना जाता है; सब्र: संतोष, धैर्य; सज्दागुज़ारी: नतमस्तक होकर प्रार्थना करना; अदावत: शत्रुता; बंदगी: भक्ति; हैसियत: प्रास्थिति । 

रविवार, 17 मई 2015

क़ातिल तेरा निज़ाम...

कब  तक   तेरी  अना  से   मेरा  सर  बचा  रहे
ये  भी  तो  कम  नहीं  कि  मेरा  घर  बचा  रहे

मुफ़्लिस  को   शबे-वस्ल  पशेमां   न  कीजिए
मेहमां  के    एहतेराम  को    बिस्तर  बचा  रहे

रहियो    मेरे   क़रीब,     मेरे  घर   के   सामने
कुछ  तो  कहीं   निगाह  को   बेहतर  बचा  रहे

बेशक़   दिले-ख़ुदा  में   ज़रा  भी   रहम  न  हो
आंखों   में    आदमी   की    समंदर    बचा  रहे

मस्जिद न मुअज़्ज़िन  न ख़ुदा  हो  कहीं  मगर
मस्जूद    की     निगाह   में    मिंबर   बचा  रहे

शाहों  का  बस  चले  तो  ख़ुदा  की  कसम  मियां
क़ारीं     बचें     कहीं,    न   ये   शायर    बचा  रहे

क़ातिल  !   तेरा  निज़ाम   बदल  कर   दिखाएंगे
सीने   में   आग,    हाथ   में    पत्थर    बचा  रहे !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अना: अहंकार; मुफ़्लिस: विपन्न; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; पशेमां: लज्जित; मेहमां: अतिथि; एहतेराम: सम्मान, सत्कार; रहम:दया; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मस्जूद: सज्दे  में (नतमस्तक) बैठा व्यक्ति; मिंबर: वह पत्थर जिस पर खड़े होकर पेश इमाम नमाज़ पढ़ाते हैं; क़ारीं: पाठक गण; निज़ाम: शासन।


शनिवार, 16 मई 2015

निशां ज़ुल्मतों के ...

शहंशाह    जब    नेक  वादा  करेंगे
सितम बेकसों पर  ज़ियादा  करेंगे

उन्हें तख़्ते-दिल तक पहुंचने न दीजे
मुसीबत    नई    रोज़    लादा  करेंगे

ये   शतरंज   है,    बैतबाज़ी    नहीं  है
उन्हें   हम    यहीं     बे-पियादा  करेंगे 

ये  मीनारो-गुंबद  निशां  ज़ुल्मतों  के
गिरा  देंगे    हम    जब  इरादा  करेंगे

वो   परदेस   से   रक़्म   लाने  गए  हैं
वतन  को   लुटा  कर    इफ़ादा  करेंगे

अभी  दोस्तों  की    अदाएं   समझ  लें
किसी  और  दिन   फ़िक्रे-आदा  करेंगे

जगह  तो  नहीं  है  ख़ुदा  के  सहन  में
हमारे  लिए     दिल     कुशादा  करेंगे  !

                                                                      (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सितम: अत्याचार; बेकसों: निर्बलों; तख़्ते-दिल: हृदय का सिंहासन; बैतबाज़ी: उर्दू व्याकरण के अनुसार अंत्याक्षरी; बे-पियादा: पैदल रहित, शतरंज के खेल में सभी पैदलों को मारना; मीनारो-गुंबद: कीर्त्ति-स्तंभ और तोरण; ज़ुल्मतों: अन्यायों, अत्याचारों; रक़्म: धन, निवेश; इफ़ादा: लाभ पहुंचाना; फ़िक्रे-आदा: शत्रुओं की चिंता; सहन: आंगन, घर के द्वार के आगे बैठने की जगह;  कुशादा: विस्तीर्ण । 


मंगलवार, 12 मई 2015

जुर्म है इश्क़...

चलो  आज  ख़ुद  को  गुनहगार  कर  लें
बुते-दिलनशीं   का    परस्तार    कर  लें

भले  ही  किसी  से  नज़र  चार  कर  लें
मगर यह न होगा कि वो  प्यार कर  लें

सुना  है    कि  दिल    बेचना  चाहते  हैं
न  हो  तो    हमें  ही    ख़रीदार  कर  लें

कहीं   आपको    शौक़े-पुर्सिश   सताए
हमारे   लिए     क़ब्र    तैयार    कर  लें

'नरेगा'  की  उज्रत   गए  साल  की   है
मिले  तो  किसी  रोज़  बाज़ार  कर  लें



अगर  जुर्म  है  इश्क़  उनकी  नज़र  में
मिलें  ख़ुल्द  में  तो  गिरफ़्तार  कर  लें

ख़ुदा  से  मुलाक़ात   तय  हो    चुकी  है
ख़ुदी  को    ज़रा  और    ख़ुद्दार  कर  लें  !

                                                                     (2015) 

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: गुनहगार: अपराधी; बुते-दिलनशीं: हृदयस्थ मूर्त्ति, प्रिय की मूर्त्ति; परस्तार: पुजारी; ख़रीदार: क्रेता; शौक़े-पुर्सिश: सांत्वना देने की रुचि; नरेगा: राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना; उज्रत: पारिश्रमिक; जुर्म: अपराध; ख़ुल्द: स्वर्ग; ख़ुदी: आत्म-सम्मान; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी । 

सोमवार, 11 मई 2015

ख़्वाब का अज़्म ...

देखिए,  हम  ग़ज़ल  नहीं  कहते
कहते  थे,  आजकल  नहीं  कहते

अस्ल  को  हम  नक़ल  नहीं  कहते
चश्मे-जां  को  कंवल  नहीं  कहते

तिफ़्ल  हैं, यह  नहीं  समझ  पाते
तरबियत  को दख़ल  नहीं  कहते

ख़्वाब  का  अज़्म  कुछ  अलहदा  है
ख़्वाहिशों  का  बदल  नहीं  कहते

चल  रही  है  महज़  बयांबाज़ी
आंकड़ों  को  फ़सल  नहीं  कहते

रोज़  महंगाई  मुंह  चिढ़ाती  है
वायदों  को  अमल  नहीं  कहते

आप  कह  लें,  अगर  सही  समझें
क़त्ल  को  हम  अदल  नहीं  कहते

ख़ुदकुशी  वक़्त  को  तमाचा  है
पर  इसे  कोई  हल  नहीं  कहते !

                                                              (2015)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अस्ल: वास्तविक, चश्मे-जां: प्रिय के नयन; कंवल: कमल; तिफ़्ल: बच्चे; तरबियत: संस्कार देना; दख़ल: हस्तक्षेप; 
अज़्म: अस्मिता; अलहदा: भिन्न; ख़्वाहिशों : इच्छाओं;   बदल: पर्याय; महज़: केवल;  बयांबाज़ी: भाषण, वक्तव्य देना; 
अमल: क्रियान्वयन; अदल: न्याय; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; हल: समाधान । 



गुरुवार, 7 मई 2015

नेकनीयत नहीं शाह ...

फ़ासलों   से  हमें  ना  डराया  करो
फ़र्ज़  है  आपका  याद  आया  करो

हो  शबे-तार  तो  रौशनी  के  लिए
चांदनी  की  तरह  झिलमिलाया  करो

रोज़  मिलिए  न  मिलिए  हमें  शौक़  से
ईद  में  तो  कभी  घर  बुलाया   करो

बदनसीबी  ख़ुशी  में  बदल  जाएगी
रंजो-ग़म  में  हमें  आज़माया  करो

ज़ीस्त  की  जंग  में  ज़िंदगी  कम  न  हो
रूठने  के  लिए  मान  जाया  करो

शायरी  से  अगर  आग  लगती  नहीं
रिज़्क़  के  काम  में  जी  लगाया  करो

कोई  सज्दा  नहीं,  बुतपरस्ती  नहीं
दें  अज़ां  हम  तभी  सर  झुकाया  करो

नेकनीयत  नहीं  शाह  इस  दौर  का
सौ  दफ़ा  सोच  कर  पास  जाया  करो

एक  ही  है  ख़ुदा,  एक  ही  ख़ानदां
क्यूं  किसी  ग़ैर  का  घर  जलाया  करो ?

                                                                                  ( 2015 )

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  फ़ासलों: अंतरालों, दूरियों; फ़र्ज़ : कर्त्तव्य;  शबे-तार: अमावस्या; शौक़: रुचि; बदनसीबी: दुर्भाग्य; रंजो-ग़म: दुःख और शोक; ज़ीस्त: जीवन; जंग: युद्ध; रिज़्क़: भोजन; सज्दा: दंडवत प्रणाम; बुतपरस्ती: मूर्त्ति-पूजा, व्यक्ति-पूजा; नेकनीयतएल सद्भावी;  ख़ानदां : कुल, वंश ।