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शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

चांद की नाव में....

दुश्मनों  को  ज़रा  सहा  जाए 
आज  ख़ामोश   ही  रहा  जाए

फ़ित्रते-हुस्न  ही  अधूरी  है
चांद  को  क्यूं  बुरा  कहा  जाए

फज्र  तक  इंतज़ार  कर  लीजे
क्या  ख़बर,  वो  क़सम  निभा  जाए

दिल  करे  है  तवाफ़  यारों  का
एक  सज्दा  अता  किया  जाए

मौत  का  वक़्त  तय  नहीं  जब  तक
क्यूं  न  दिल  खोल  कर  जिया  जाए

मंज़िलें  ख़ुद  क़रीब  आती  हैं
सब्र  से  काम  गर  लिया  जाए

दरिय:-ए-नूर  है  शरद  पूनम
चांद  की  नाव  में  बहा  जाए

आख़िरत  की  नमाज़  मत  पढ़िये
दिल  कहीं  होश  में  न   आ  जाए  !

                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़ित्रते-हुस्न: सौंदर्य की प्रकृति; फज्र: पौ फटना; इंतज़ार: प्रतीक्षा; तवाफ़: आस-पास घूमना, परिक्रमा; यारों: प्रिय; 
सज्दा: भूमि पर शीश झुका कर प्रणाम; अता: प्रदान; मंज़िलें: लक्ष्य; सब्र: धैर्य; गर: यदि; दरिय:-ए-नूर: प्रकाश की नदी; 
आख़िरत: अंतिम क्षण, मृत्यु का क्षण ।

 


शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

हम दफ़ा हो गए !

नाम  सुन  कर  हमारा  ख़फ़ा  हो  गए
शाह  जब  से  हुए  वो  ख़ुदा  हो  गए

एक  ताज़ा  ख़बर  आपके  भी  लिए
बेवफ़ा  दोस्त  सब  बावफ़ा  हो  गए

एहतरामे-शहादत  उन्हें  भी  मिले
इश्क़  की  राह  में  जो  फ़ना  हो  गए

चंद  अश्'आर  अपने  शम्'अ  से  जले
चंद  अश्'आर  बादे-सबा  हो  गए

ख़ूब  मोहसिन  मिले  हैं  हमें  ज़ीस्त  में
वक़्त  आया  नहीं ,   सब  हवा  हो  गए

तोड़ना  चाहती  थी  हमें  शामे-ग़म
दर्द  लेकिन  हमारी  दवा  हो  गए

दफ़्अतन  लोग  दिल  लूट  कर  ले  गए
और  बस,  हम  शहीदे-वफ़ा  हो  गए

लीजिए,  अब  ज़रा  मुस्कुरा  दीजिए
आपकी  बज़्म  से  हम  दफ़ा  हो  गए  !

                                                                   (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: निष्ठाहीन; बावफ़ा: निष्ठावान; एहतरामे-शहादत: वीरगति पाने का सम्मान; फ़ना: बलिदान; चंद: कुछ; अश्'आर: शे'र का बहुवचन; शम्'अ: दीपिका; बादे-सबा: प्रातः समीर; मोहसिन: अनुग्रहकर्त्ता; ज़ीस्त: जीवन; दफ़्अतन: सहसा; शहीदे-वफ़ा: निष्ठा पर बलि; बज़्म: सभा; दफ़ा: दूर, अदृश्य।


गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

फ़ैसला अच्छा नहीं !

जंग  हो  जज़्बात  की  ये  सिलसिला  अच्छा  नहीं
दोस्ती  में  रात-दिन  शिकवा-गिला   अच्छा  नहीं

उम्र  भर  का  साथ  हो  तो  क्या  ख़ुदी,  कैसी  अना
हमसफ़र  से  हर क़दम  पर  फ़ासला  अच्छा  नहीं

क़ुदरतन  टूटे  क़ह्र  तो  क्या  शिकायत  अर्श  से
सहर:-ए-दिल   में  उठे  जो  ज़लज़ला,  अच्छा  नहीं

रात-दिन  डूबे  हुए  हैं  शायरी  की  फ़िक्र  में
घर  चलाने  के  लिए  ये  मश्ग़ला  अच्छा  नहीं

इब्ने-इन्सां  के  लिए  ये  ज़िंदगी  भी  फ़र्ज़  है
मग़फ़िरत  को  ख़ुदकुशी  का  रास्ता  अच्छा  नहीं

एक  ख़ालिक़,  एक  मालिक,  कौन-सा  फ़िरक़ा  बड़ा ?
रहबरी  के  नाम  पर  ये  मुद्द'आ  अच्छा  नहीं

रह  गईं  हों  जब  रिआया  की  दलीलें  अनसुनी
शाह  के  हक़  में  ख़ुदा  का  फ़ैसला   अच्छा  नहीं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जंग: युद्ध, संघर्ष; जज़्बात: भावनाएं; सिलसिला: क्रम; शिकवा-गिला: उलाहने; ख़ुदी: स्वाभिमान; अना: अहंकार; हमसफ़र: सहयात्री, जीवनसाथी; फ़ासला: अंतराल, दूरी; क़ुदरतन: प्राकृतिक रूप से; क़ह्र: आपदा; अर्श: आकाश, ईश्वर, नियति; सहर:-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल, शुष्क मन; ज़लज़ला: भूकम्प; मश्ग़ला: व्यस्तता, दिनचर्या; इब्ने-इन्सां: मनुष्य-संतान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य; मग़फ़िरत को: मोक्ष हेतु; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  ख़ालिक़: सृजन कर्त्ता; मालिक: ईश्वर, ब्रह्म; फ़िरक़ा: संप्रदाय; रहबरी: नेतृत्व, नेतागीरी;   मुद्द'आ: विषय, बिंदु; रिआया: प्रजा, जनसामान्य;  दलीलें: प्रतिवाद;  हक़: पक्ष।  

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

मंहगाई का गहन ...

कल-आज  क़त्ले-आम  का  त्यौहार  तो  नहीं ?
शैतान    कहीं     शाह  पर     सवार  तो  नहीं  ?

सोते  न  जागते  हैं  न  खाते  हैं  चैन  से
फिर  इश्क़  में  जनाब  गिरफ़्तार  तो  नहीं  ?

बेशक़,  हम  आसमां  से  दिले-हूर  ले  उड़े
लेकिन  हम  आपके  भी  गुनहगार  तो नहीं ?

हर  जिन्स  को  लगा  है  मंहगाई  का  गहन
जम्हूर  है,  अवाम  की  सरकार  तो  नहीं  ! 

कहने  को  कह  रहे  हैं  बहुत  कुछ  तमाम  लोग
हालात    बदल  जाएं    ये    आसार  तो  नहीं 

तेवर     ज़रूर     सख़्त   रहे  हों     कभी-कभी 
अफ़सोस !  क़लम  कारगर  हथियार  तो  नहीं !

मुफ़लिस  सही,  फ़क़ीर  सही,  दर-ब-दर  सही
शाही     इनायतों   के     तलबगार     तो  नहीं !

जायज़  है  हक़  हमारा  सुख़न  की  ज़मीन  पर
क़ाबिज़  हैं   जहां  हम,     किराएदार    तो  नहीं  !

अल्लाह    तय  करे    कि  रखेगा     कहां  हमें
हम      मिन्नते-हुज़ूर   को     तैयार   तो  नहीं  !

                                                                         (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़त्ले-आम: जन-संहार; दिले-हूर: अप्सरा का हृदय; गुनहगार: अपराधी; जिन्स: उत्पाद, वस्तु; गहन: ग्रहण; जम्हूर: लोकतंत्र; अवाम: जन-साधारण; हालात: परिस्थितियां; आसार: संकेत; तेवर: मुद्राएं; कारगर: प्रभावी; मुफ़लिस: निर्धन; फ़क़ीर: अकिंचन, साधु, भिक्षुक; दर-ब-दर: यहां-वहां भटकने वाला, गृह-विहीन; इनायतों: कृपाओं; तलबगार: अभिलाषी; जायज़: उचित, वैध; हक़: अधिकार; सुख़न: सृजन; क़ाबिज़:आधिपत्य जमाए; मिन्नते-हुज़ूर: ईश्वर की चिरौरी। 


सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

...हादसा होता मिलेगा !

तुम्हें  उस  शख़्स  से  धोखा  मिलेगा
जिसे    तन्हाई  में     मौक़ा  मिलेगा

निगाहे-शौक़    को   रुस्वा  न  कीजे
किसी  दिन  हमसफ़र  सच्चा  मिलेगा

हमारे   हाथ   में     भी     हैं    लकीरें 
हमें  भी  कुछ  कहीं  अच्छा  मिलेगा

हमारे  शहर    की    तस्वीर    ये  है
यहां   हर   आदमी    रोता  मिलेगा

जहां-ए-इश्क़  में  देखो  जहां  भी
वहीं  कुछ  हादसा  होता  मिलेगा

लगी  हो  आग  जब  अमराइयों में
मुहाफ़िज़  चैन  से  सोता  मिलेगा

हमामे-बदज़नां   है   ये  सियासत
जिसे  देखो,    वही   नंगा  मिलेगा

ज़ियारत  को  गया  है  दिल  हमारा
धड़कने  को   कहीं    कोना  मिलेगा ?

हमारी  रूह    जब    आज़ाद  होगी
दरे-फ़िरदौस  पर  मौला  मिलेगा

ज़माना   देखते  हैं,    क्या  कहेगा
हमें  जब  नूर  का  तोहफ़ा  मिलेगा !

महज़  पेशीनगोई  मत  समझिए
अमन  अब  वाक़ई  महंगा  मिलेगा !


                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; तन्हाई: एकांत; निगाहे-शौक़: अभिलाषा-पूर्ण दृष्टि, सौंदर्य-बोध; रुस्वा: लज्जित;   हमसफ़र: सहयात्री; जहां-ए-इश्क़: प्रेम का संसार; हादसा: दुर्घटना; मुहाफ़िज़: संरक्षक, रक्षा करने वाला; हमामे-बदज़नां: कुकर्मियों का स्नानागार; सियासत: राजनीति; ज़ियारत: तीर्थयात्रा; रूह: आत्मा; दरे-फ़िरदौस: स्वर्ग का द्वार; मौला: परमेश्वर; ज़माना: समाज; नूर: प्रकाश; तोहफ़ा: उपहार; महज़: केवल;  पेशीनगोई: भविष्य वाणी; अमन: शांति; वाक़ई: सचमुच। 



रविवार, 5 अक्टूबर 2014

ख़ुदा के पास जाना है !

हमारी  भी  हक़ीक़त  है,  तुम्हारा  भी  फ़साना  है
तुम्हें  दिल  को  जलाना  है,  हमें  दिल  आज़माना  है

जुदाई  पर  ग़ज़ल  कह  कर  ज़माने  में  सुनाते  हो
चले  ही  क्यूं  नहीं  आते  अगर  रिश्ता  निभाना  है

नज़रबाज़ी  किसी  का  शौक़  हो  तो  और  क्या  कीजे
उन्हें  बिजली  गिरानी  है,  तुम्हें  सर  को  बचाना  है

शहंशाही  लतीफ़े  आप  अपने  पास  ही  रखिए
कोई  हस्सास  दिल  लाओ,  अगर  हमको  लुभाना  है

वतन  के  साथ  तुमने  जो  हज़ारों  खेल  खेले  हैं
हमें  हर  खेल  के  हर  राज़  से  पर्दा  उठाना  है

ग़रीबों  की  दुआएं  लो,  तुम्हारे  काम  आएंगी
अभी  कुछ  देर  में  तुमको  ख़ुदा  के  पास  जाना  है

हमारे  नाम  से  उसके  पसीने  छूट  जाते  हैं
शहंशह  आज  है,  लेकिन  कलेजा  तो  पुराना  है

हमें  बतलाइए  तो  आपकी  जो  भी  शिकायत  है
हमें  हर  क़र्ज़  अपनी  मौत  से  पहले  चुकाना  है

ये  बेताबी,  ये  बेचैनी,  ये  नींदों  का  हवा  होना
जहां  के  दर्द  ले  लो,  गर  ख़ुशी  से  मुस्कुराना  है

मिटाना  चाहते  हैं  तो  मिटा  दें,  आपकी  मर्ज़ी
हमारा  दिल  नहीं,  ये  पीरो-मुर्शिद  का  ठिकाना  है ! 

हसीनों  का  किसी  भी  हाल  में  हम  दिल  न  तोड़ेंगे
हमें  भी  तो  कभी  अपने  ख़ुदा  को  मुंह  दिखाना  है  !

                                                                                     (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; फ़साना: कहानी; जुदाई: वियोग; नज़रबाज़ी: आंख लड़ाना; लतीफ़े: चुटकुले, हास-परिहास; हस्सास: संवेदनशील;  राज़: रहस्य; पर्दा: आवरण; दुआएं: शुभ कामनाएं; शहंशह: राजाधिराज; कलेजा: जीवट, साहस; क़र्ज़: ऋण; 
बेताबी: अधीरता; बेचैनी: व्याकुलता; जहां: संसार; पीरो-मुर्शिद: संत-सिद्ध व्यक्ति ।

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

राह की शम्'अ ...

दिल  लगा  कर  मुकर  गए  मोहसिन
ख़ुशनसीबी  से   डर  गए  मोहसिन  ?

कोई    इल्ज़ाम   तो   दिया    होता
सर  झुका  कर  गुज़र  गए  मोहसिन

दर्द  मेहमान  की  तरह  आए
दाग़  बन  कर  ठहर  गए,  मोहसिन

आपको  शाहे-दिल  बनाया  था
आप  ही  चोट  कर  गए,  मोहसिन !

हम  फ़क़त  राह  की  शम्'अ  ठहरे
नूर  बन  कर  बिखर  गए,  मोहसिन

किसलिए  मुल्क  से  जफ़ाएं  कीं
ख़्वाब  सारे  बिखर  गए,  मोहसिन !

हम  जहां  अर्श  तक  चले  आए
आप  दिल  से  उतर  गए,  मोहसिन !

                                                               (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मोहसिन: अनुग्रहकर्त्ता; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; इल्ज़ाम: आरोप; दाग़: कलंक; शाहे-दिल: मन का राजा; फ़क़त: मात्र; 
शम्'अ: दीपिका; जफ़ाएं: निष्ठाहीनता; अर्श: आकाश।