Translate

रविवार, 20 जनवरी 2013

अज़्मत-ए-मीर कहाँ

भले  हो  शिर्क   अक़ीदत    बुतां-ए-फ़ानी   में
मगर   फ़रेब   नहीं   है      मेरी     कहानी   में

हमीं पे  आज  ये: इल्ज़ाम-ए-बुतपरस्ती  क्यूँ
गुनाह  सब   ने   किया   है  यही    जवानी  में

क़रीब   आ  ही   गए  हैं   तो   पर्दा दारी  क्यूँ 
तुम्हें  तो  उज्र  नहीं  यूँ  भी  दिल सितानी में 

भटक  रहे   हैं   कहाँ    बे-वजह   रक़ीबों   में
रहें  सुकूं  से   मिरे  दिल  की  निगहबानी  में 

हर   एक   शै   है   मुक़द्दस      तेरी   ख़ुदाई   में
तो  शर्म  क्यूँ  हो  हमें  लज़्ज़त-ए-'उरियानी में

तिलिस्म-ए-हुस्न-ए-बह्र  तिफ़्ल  तोड़  लेते  हैं
अज़्मत-ए-मीर   कहाँ   नज़्म-ए-नातवानी  में

किया  करे  हैं  हम  पे  शक़   जो  बेवफ़ाई   का
के:  हमसे  हाथ  न  धो लें  वो:   बदगुमानी  में।

                                          (20 जनवरी, 2013)

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : शिर्क: ईश्वर-द्रोह , इल्ज़ाम-ए-बुतपरस्ती : मूर्ति-पूजा ; दिल सितानी :दिल में आ रहना;शै:- रचना , मुक़द्दस : पवित्र , लज़्ज़त-ए-उरियानी :दिगम्बरत्व ,सर्वस्व त्याग  का आनंद, तिलिस्म-ए-हुस्न-ए-बह्र : छंद के सौंदर्य का रहस्य , तिफ़्ल : छोटे-छोटे बच्चे ;अज़्मत-ए-मीर: महान शायर मीर तक़ी 'मीर'-जैसी  महानता, नज़्म-ए-नातवानी: निर्बलता की नज़्म , बदगुमानी: संदेहशीलता 
        


गुरुवार, 17 जनवरी 2013

मोहब्बत जो करे ...




शब-ए-तारीक  जब  पीछा  करेगी 
तुम्हें    मेरी   ग़ज़ल   ढूँढा   करेगी 

कटी  है  रात भर  करवट  बदलते 
मदद  बाद-ए-सबा भी क्या  करेगी 

सर-ओ-पा  इक फ़साना  बन गया हूँ 
मेरी  दीवानगी क्या-क्या  करेगी 

लुटाते  हैं  वफ़ा  दरियादिली  से 
तमन्ना  फिर  हमें रुस्वा: करेगी 

नज़र फेरो  अगर  तो  याद  रखना 
हमारी  रूह  तक  शिकवा  करेगी 

निगाहों  में  वफ़ा  के  रंग  भर  लो 
ये:  दुनिया  आपको  पूजा  करेगी 

मिटा  दे  या  बना  दे  फ़िक्र क्यूँ  हो 
मोहब्बत  जो  करे , अच्छा  करेगी।
                                       

                                          (2012)

                             -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: -शब-ए-तारीक :अँधेरी रात, अमावास; बाद-ए-सबा : सुबह की समीर ,सर-ओ-पा : सर से पांव तक, 
फ़साना : झूठी कहानी ; रुस्वा : लज्जित ; शिकवा : शिकायत 

ये: तेज़ रफ़्त ज़माने

नई-नई   है   मोहब्बत   संभल-संभल   के   चलो
यहीं   कहीं   है   क़यामत   संभल-संभल के  चलो

नज़र  जो    दिल  के  आइने  में    अक्स  आता  है
कहीं  वो:  हो  न  हक़ीक़त   संभल-संभल  के चलो

हंसी-हंसी  में    वो:  जज़्ब  हो  गए  रग़-ए-दिल  में
सितम  न  ढाए  ये: क़ुरबत संभल-संभल  के  चलो

तुलू   हुआ   है   आफ़ताब   शहर -ए-दिल  में  कहीं
के:  बढ़   रही  है   हरारत    संभल-संभल  के  चलो

ये:   तेज़ - रफ़्त   ज़माने,  ये:   हसरतों   के   हुजूम
क़दम-क़दम  पे  है  ग़फ़लत  संभल-संभल के चलो

पलक   पे  आये   मुसाफ़िर  को   रोकना  है  गुनाह
ख़ुदा  को  हो  न  शिकायत संभल-संभल  के  चलो।

                                                                  (2012)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अक्स: प्रतिबिम्ब ,  हक़ीक़त : यथार्थ ,  जज़्ब : विलीन , रग़-ए-दिल : हृदय के तंतु , क़ुरबत : निकटता ,
             तुलू : उदित , आफ़ताब: सूर्य, हरारत: ऊष्मा, ज्वर , तेज़ रफ़्त ज़माने : तीव्र गति-वान  युग, हुजूम: झुण्ड 

बुधवार, 16 जनवरी 2013

दश्त में नन्हा पौधा

तेरे   नूर   का    चेहरा   हूँ
दश्त  में    नन्हा  पौधा  हूँ

पढ़ ले मुझे गीता की तरह
कैसे  कहूँ  के:  मैं  क्या  हूँ

याद न कर इस वक़्त मुझे
मैं   सज्दे   में     बैठा     हूँ

गोश:-ए-दिल में  ढूंढ  ज़रा
अपने  घर   कब  रहता  हूँ

मैं  न  समझ पाऊंगा   तुझे
ख़ुद को ही   कब  समझा हूँ

तोड़  न  दे  उम्मीद-ए-वफ़ा
नाज़ुक    शीशे - जैसा     हूँ

तेरे  नूर  की   बात ही  क्या
क़तरा-क़तरा    पीता    हूँ।

                                (2011)

                  -सुरेश स्वप्निल

शब्दार्थ: तेरे नूर का चेहरा :ख़ुदा ,  निराकार ब्रह्म के प्रकाश का साकार  रूप;   दश्त: वन ;   सज्दे में: ध्यान-मुद्रा में 
                  गोश:- कोना ,  क़तरा : बूँद 

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

थे जवां हम भी कभी ....

उनके ज़ाती  बयाज़  में  मेरे  कुछ  ख़्वाब  भी  थे
जज़्ब:-ए-इश्क़   से   पुरनूर     आफ़ताब   भी  थे

दिल  के  कहने  पे  ज़ेहन  मान  तो  गया  लेकिन
थे   सवालात   उधर    तो   इधर   जवाब   भी   थे

हमारे  जाने   के  बाद   याद  कीजिएगा   जब  भी
रहे  ख़्याल   के:  हम   थे    तो  इन्क़िलाब   भी   थे

सज्द:-ए-शुक्र  में  नम  चश्म   को उठना  न  हुआ
गो  वो: महफ़िल  में  मनाज़िर थे , बेहिजाब  भी थे

आईना    देखते    हैं    तो     हमें   याद   आता    है
थे  जवां   हम   भी   कभी   और  लाजवाब  भी  थे।

                                                   (14 जन ; 2013)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :  ज़ाती बयाज़ : निजी डायरियां ; पुरनूर: प्रकाशमान ; आफ़ताब: सूर्य ; ज़ेहन: मस्तिष्क ; सज्द:-ए-शुक्र: ईद पर ईश्वर का धन्यवाद                  व्यक्त  करने हेतु  पढ़ी जाने  वाली  नमाज़ में किया जाने वाला सज्दा (साष्टांग प्रणाम) मनाज़िर : प्रकट , दृश्य ; बेहिजाब: बेपर्दा .

सोमवार, 14 जनवरी 2013

मेरा उज्र तूने सुना नहीं

तू  वली  है  तुझसे  छुपा  नहीं
मेरी  ज़ात  तुझसे   जुदा  नहीं

ऐ  हवाओ  मेरी  मदद  करो
मेरे  पास  उनका  पता  नहीं

मुझे उस गुनह की  न दे सज़ा
जो  तमाम  उम्र   किया  नहीं

तू  मुझे   नज़र  से  उतार  दे
जो  मेरी  बहर  में  वफ़ा  नहीं

किसी बुत को अपना ख़ुदा कहूँ
ये:   फरेब    मुझसे   हुआ  नहीं 

मुझे  कब  क़ुबूल  थी  ज़िन्दगी
मेरा   उज्र    तूने    सुना   नहीं।

                                    (2012)

                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  वली: ज्ञानी,संत; ज़ात : व्यक्तित्व;  बहर : छंद ; उज्र : आपत्ति 


रविवार, 13 जनवरी 2013

रूह-ए-क़ातिल न बदले

दिन  बदलते  रहें   दिल  न   बदले  कभी
राह  हो  कोई   मंज़िल   न   बदले  कभी

तीरगी   से   हमें     कोई   शिकवा   नहीं
उनकी आँखों का  काजल  न  बदले कभी

अपने   मक़सूद   पे    जां  छिड़कने   लगे
इस  क़दर  रू:-ए-क़ातिल   न  बदले  कभी

आँधियों में  न मचले  वो: दरिया  ही क्या
ख़ौफ़-ए-तूफ़ां  से  साहिल  न  बदले  कभी

उनकी  आहों  से  झुक  जायेगा  आसमां
बेक़रारों  की  महफ़िल   न  बदले  कभी।

                                                    (2006)

                                             -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ:  तीरगी: अंधकार  मक़सूद : लक्ष्य