Translate

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

दीवाने लोग हैं ...




दीवाने   लोग   हैं   जो   हमको    दीवाना   समझते     हैं 
जुनूं - ए - क़ैस   को   परियों   का  अफ़साना  समझते  हैं

अगर दिल में बसे हैं वो: तो मग़रिब क्या है मशरिक़ क्या
के:  हम  तो   बुतकदे  को   भी   सनमख़ाना  समझते  हैं

हमारी    शाइरी    पे    जो     नज़र   रखते  हैं  बरसों   से
उम्मीद- ओ- सब्र   का  हमको  वो:   पैमाना  समझते  हैं

तुम्हारी   दाद - ओ - इमदाद    पे    ज़िंदा   बहुत     होंगे
मगर  हम   इस से   बेहतर  फ़ौत  हो  जाना  समझते  हैं

जलें हर मुफ़लिस-ओ-मज़लूम के दिल में शम्अ बन के
इसी  हासिल   को   हम  अपना  मेहनताना  समझते  हैं

किसी  दिन   जा   रहेंगे   दर  पे  उन  के  बोरिया  ले  के
हमारा  हक़  है  क्या  हमको  वो:  अनजाना  समझते  हैं

इधर  हम   इक  अज़ां  पे   दौड़ते  आते  हैं  मस्जिद  को
उधर  वो:  हैं   के:  नाहक़    हमको  बेगाना  समझते  हैं।

                                                             (2011)

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जुनूं-ए-क़ैस: क़ैस (लैला का प्रेमी, मजनूं ) का उन्माद;  अफ़साना: मिथक; मग़रिब: पश्चिम; मशरिक़: पूर्व;  बुतकदे: देवालय; सनमख़ाना: प्रियतम का घर, यहां आशय मस्जिद; उम्मीद- ओ- सब्र: आशा और धैर्य;  पैमाना: मानक; दाद - ओ - इमदाद: सराहना और कृपा;  फ़ौत: विनष्ट; मुफ़लिस-ओ-मज़लूम: निर्धन और अत्याचार-पीड़ित; बोरिया: बिस्तर; बेगाना: पराया। 



शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

है अगर तू कहीं ....



है  अगर  तू  कहीं   तो  नज़र  आ   कभी  
दोस्तों   की   तरह   मेरे  घर   आ   कभी 

ईद   के   ईद   शाने   मिले  भी  तो  क्या
हस्ब-ए-मामूल शाम-ओ-सहर आ कभी

यूँ  हमें  तो  ग़म-ए-दिल से  फ़ुर्सत कहाँ
तू  ही  मसरूफ़ियत  छोड़ कर  आ कभी

पूछते   हैं   सभी    तू    मेरा     कौन   है
मेरी  ख़ातिर  ज़मीं  पे   उतर  आ  कभी

जाम-ए-नूर-ए-मुजस्सम  पिलाएंगे  हम
अपनी हिर्स-ओ-हवस छोड़ कर आ कभी।

                                (ईद-उल-फ़ित्र ,2011)


                                        -सुरेश स्वप्निल    
  

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

कहाँ चले बड़े मियां ?






कहाँ  चले  बड़े मियां

पहाड़ सी उमर लिए
बुझी हुई नज़र लिए
झुकी हुई कमर लिए
कहाँ चले  बड़े मियां ? 

कहाँ  चले ?

कहाँ चले, रुको ज़रा
सुकून से बैठो  यहाँ
कमर का ख़म मिटाओ तो
बयान-ए- ग़म सुनाओ तो

कहाँ चले के: उठ चुके हैं
दोस्त दरम्यान से
के: अब किसी की जेब में
न वक़्त है न दर्द है
न आरज़ू  न हौसला
नक़द  का बंदोबस्त
या उधार की जुगत नहीं
किसे सुनाओगे मियां?

नवाबियाँ चली गईं
मगर ठसक वही रही !
अजी जनाब, छोड़िये
ये: तीतरों का पालना 

कुछ घर की फ़िक्र  कीजिये
औलाद की भी सोचिये 
कहाँ रहे वो: रात-दिन
के: शौक़ में गुज़ार दें ?
अब आदमी के पेट को
काफ़ी  नहीं हैं  रोटियां
तो तीतरों की क्या बिसात ?

अरे-अरे बड़े मियां
उफ़! आप ने ये: क्या किया
मज़ाक ही मज़ाक में
परिंदों को उड़ा दिया ?!!

                            ( 1986)

               -सुरेश  स्वप्निल 

                             





बुधवार, 12 दिसंबर 2012

ख़ेराज-ए-अक़ीदत

पं . रविशंकर के  लिए, जो आज इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए
                               

                                  उदास   हैं    के:   राग   मारवा    बजाये    कोई 
                               
                                  हमारे  ग़म  को   ग़म-ए-दिलरुबा  बनाये  कोई ......
                                                                       
                                 

                                                                                                -सुरेश    स्वप्निल   

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

तू हिमाला हुआ है



अपनी    बेताबियों   से    डरते     हैं
उनकी  ग़ुस्ताखियों   से    डरते   हैं

बुत- ए- ग़ुरूर    बन    गए    रहबर
और  फिर   बिजलियों  से  डरते  हैं

रश्क़ किस-किस से कीजिए साहब
अपनी   रुस्वाइयों    से    डरते   हैं
 
रिज्क़  तक   लुट  रहा  है   राहों  पे
ऐसी   आज़ादियों    से    डरते     हैं

दाल   छोड़ें     के:    बेच   दें    बच्चे
लोग    मंहगाइयों    से    डरते    हैं

कब - कहाँ - कौन  जला दे  बस्ती
शहर     दंगाइयों    से    डरते     हैं

तू  हिमाला  हुआ है  जिस दिन   से
तेरी     ऊँचाइयों    से    डरते     हैं।

                               (2009)

                        -सुरेश स्वप्निल


सोमवार, 10 दिसंबर 2012

ज़िंदगी तन्हा

रंज   तन्हा    सहे    ख़ुशी  तन्हा
उम्र  यूँ  ही    गुज़र  गई    तन्हा

जब सर-ए-बज़्म तेरी याद आई
रूह  भटकी   गली  गली   तन्हा

हमप्याला  मिरे   मुआफ़   करें
चोट  गहरी  थी हमने पी तन्हा

वक़्त  रहते   संभल  गए   होते
तो  न  कटती ये: ज़िंदगी तन्हा

इश्क़ हमने  किया  सरे-बाज़ार
और  की  उनकी बन्दगी तन्हा

                                  (2007)

                     - सुरेश स्वप्निल













शनिवार, 8 दिसंबर 2012

आज़ार-ए-ज़ईफ़ी



ज़ईफ़ी    भी    अजब   शै   है    न   मरने   में   न   जीने   में 
उम्मीदो - ओ - आरज़ू   का    एक      क़ब्रिस्तान    सीने  में 

हटो    ये:   दिल्लगी    अपने   किसी    हम-उम्र  से     कीजो
यहाँ     धेली     नहीं    बाक़ी     हरारत     के      दफ़ीने     में   

जवानी   में    मिले    होते     तुम्हें     पामाल    कर       देते  
सुनाएँ    क्या   ग़ज़ल    लेकिन    मुहर्रम    के    महीने   में 

पिया   करते    थे   जाम- ए - इश्क़  जी भर  के  जवानी  में 
मगर  अब  कट  रही  है   उम्र    जाम - ए - अश्क़  पीने   में    

मियां   हम   तो   चले    अब  आप  जानें    अंजुमन     जाने  
बड़े   साहब   ने    मिलने    को     बुलाया    है     मदीने   में।


                                                                           (2002) 
                  
                                                      --     सुरेश  स्वप्निल