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शनिवार, 11 जून 2016

दो ग़ज़ ज़मीन

सब्र  मत  तौलिए दिवानों  का
है  दफ़ीना  कई  ज़मानों  का

रोज़  पैग़ाम  रोज़  फ़रियादें
जी  नहीं  मानता  जवानों  का

मुल्क  के  साथ  भी  दग़ाबाज़ी
क्या  करें  आपके  बयानों  का

लूट  कहिए  डकैतियां  कहिए
मश्ग़ला  है  बड़े  घरानों  का

बेच  डालें  ज़हर  दवा  कह  कर
क्या  भरोसा  नई  दुकानों  का

सिर्फ़  दो  ग़ज़  ज़मीन  काफ़ी  है
कीजिए  क्या  बड़े  मकानों  का

मांग  ही  लें  दुआएं  अब  हम  भी
देख  लें  ज़र्फ़  आसमानों  का  !

                                                                   (2016)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : सब्र : धैर्य ; दफ़ीना : गुप्त कोष, भूमि में गड़ा कर रखा गया कोष ; ज़मानों :युगों ; पैग़ाम : संदेश ; फ़रियादें : मांगें ; दग़ाबाज़ी : छल-प्रपंच ; बयानों : वक्तव्यों ; मश्ग़ला : अभिरुचि , समय बिताने का साधन ; भरोसा : विश्वास ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; आसमानों : देवलोक ।


4 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "११ जून का दिन और दो महान क्रांतिकारियों की याद " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. सिर्फ़ दो ग़ज़ ज़मीन काफ़ी है
    कीजिए क्या बड़े मकानों का

    बहत खूब।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (13-06-2016) को "वक्त आगे निकल गया" (चर्चा अंक-2372) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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