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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

ख़रों को हुकूमत ...

बुरा  वक़्त  है  ज़ब्त  करना  पड़ेगा
अना  को  कई  बार   मरना  पड़ेगा

यहां  ज़ुल्म  की  आंधियां  चल  रही  हैं
सबा-ए-सुख़न   को   ठहरना  पड़ेगा

हवा  को  मुआफ़िक़  बनाने  की  ज़िद  में
कड़े   इम्तिहां    से    गुज़रना  पड़ेगा

सियासत  के  अंदाज़  से  लग  रहा  है
कि   लुच्चे-लफ़ंगों  से   डरना  पड़ेगा

जलेगी  शम्'.अ  इल्म  की  जब  दिलों  में
निज़ामे-कुहन   को   बिखरना  पड़ेगा

रिआया  अगर  उठ  खड़ी  हो  किसी  दिन
तो   हर  हुक्मरां  को   सुधरना   पड़ेगा

हमीं  ने    ख़रों  को    हुकूमत    थमाई
हमीं  को  ये  ख़मियाज़:  भरना  पड़ेगा

मिरे    सब्र  की    इंतेहा     गर   हुई  तो
ख़ुदा   को    ज़मीं  पर    उतरना   पड़ेगा !

                                                                                   (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ब्त: सहन; अना: अस्मिता; ज़ुल्म: अत्याचार; सृजन की शीतल पवन; मुआफ़िक़:अपने योग्य; इम्तिहां:परीक्षा; सियासत:राजनीति; अंदाज़: शैली, हाव-भाव; लुच्चे-लफ़ंगों: दुश्चरित्र उपद्रवियों; शम्'.अ: लौ; इल्म:ज्ञान, शिक्षा, बोध; निज़ामे-कुहन: अंधकार का साम्राज्य; रिआया: शासित समूह, सामान्य नागरिक;  हुक्मरां: शासक, अधिकारी; ख़रों: गधों; हुकूमत:शासन;  ख़मियाज़: :क्षति-पूर्त्ति;  सब्र: धैर्य; इंतेहा: अति; गर: यदि ।





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