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शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

मौत मग़रिब तलक...

वक़्त  रहते  संभल  जाए  गर  ज़िंदगी
क्यूं  बने  हादसों  का  सफ़र  ज़िंदगी

लाज़िमी  है  कि  अब  सर  बचा  कर  चलें
वक़्त  तलवार  है,  धार  पर  ज़िंदगी

रोज़  बन  कर  गिरे  हस्रतों  के  महल 
रोज़  होती  रही  दर-ब-दर  ज़िंदगी

देखिए,   सोचिए,   तब्सिरा  कीजिए
क्यूं  बनी  ख़ुदकुशी  की  ख़बर  ज़िंदगी

छूटती  जा  रही  हाथ  से  दम-ब-दम
तेज़  रफ़्तार  की  है  बहर  ज़िंदगी

दौड़ती  जा  रही  है  अज़ल  की  तरफ़
आज  अंजाम  से  बे-ख़बर  ज़िंदगी

नूर  के  शौक़  में  हम  शम्'अ  यूं  हुए
मौत  मग़रिब  तलक,  रात  भर  ज़िंदगी  !

                                                                     (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; हादसों: दुर्घटनाओं; लाज़िमी: स्वाभाविक; हस्रतों: इच्छाओं; तब्सिरा: समीक्षा; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; 
बहर: छंद, लय; अज़ल: प्रलय; अंजाम: परिणति; नूर: प्रकाश; मग़रिब: सूर्यास्त ।



4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-09-2014) को "सपनों में जी कर क्या होगा " (चर्चा मंच 1735) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर है आपकी गज़ल
    शब्द अर्थपूर्ण पर सरल।

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  3. मौत मगरिब तलक,रात भर जिंदगी,अच्छी गज़ल>

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