अपने असबाब-ए-अक़ीदत के सहारे हो कर
क्या ही अच्छा हो के: मर जाएँ तुम्हारे हो कर
हमने सोचा भी न था उनसे जुदाई होगी
वो: जो रहते थे कभी आँख के तारे हो कर
लोग अब रोज़ नए नाम से बुलाते हैं
ख़ूब बदनाम हुए आप के प्यारे हो कर
अक्स चिड़ियों की तरह दिल में चहचहाते हैं
बात रुक जाए अगर चंद इशारे हो कर
ख़ुशनसीबी की तरह दूर से जाने वाले
देखते हैं तेरी रफ़्तार किनारे हो कर !
( 2 0 0 5/ 2 0 1 3 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: असबाब-ए-अक़ीदत: आस्था की पूँजी; अक्स: बिम्ब, छायाएं।
क्या ही अच्छा हो के: मर जाएँ तुम्हारे हो कर
हमने सोचा भी न था उनसे जुदाई होगी
वो: जो रहते थे कभी आँख के तारे हो कर
लोग अब रोज़ नए नाम से बुलाते हैं
ख़ूब बदनाम हुए आप के प्यारे हो कर
अक्स चिड़ियों की तरह दिल में चहचहाते हैं
बात रुक जाए अगर चंद इशारे हो कर
ख़ुशनसीबी की तरह दूर से जाने वाले
देखते हैं तेरी रफ़्तार किनारे हो कर !
( 2 0 0 5/ 2 0 1 3 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: असबाब-ए-अक़ीदत: आस्था की पूँजी; अक्स: बिम्ब, छायाएं।
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