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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

दहशतों के पुलिंदे ...

नई   बस्तियों   में    शह् र   ढूंढते  हैं
यहीं  था  कहीं  अपना  घर  ढूंढते  हैं

कहीं तो मिले रिज़्क़ दो-चार दिन का
परिंदे    ख़ला   में    शजर    ढूंढते  हैं

फ़सल मर चुकी,  क़र्ज़ ज़िंदा खड़ा  है
परेशान     दहक़ां    ज़हर    ढूंढते  हैं

हैं  अख़बार  या  दहशतों  के  पुलिंदे
फ़क़त  एक  अच्छी  ख़बर  ढूंढते  हैं

चुराने  लगीं  नूर  अब  स्याह  रातें 
सितारे    ज़रा-सी   सह् र  ढूंढते  हैं

ज़ईफ़ी   गवारा    नहीं   दोस्तों  को
कि  ग़ुस्ताख़ियों  की उम् र  ढूंढते  हैं

बहुत  दूर  है  मग़फ़िरत  का  इदारा
मुसाफ़िर   शरीक़े-सफ़र    ढूंढते  हैं

यहां  तीरगी  में  ख़ुदा  क्यूं  मिलेगा
जहां  रौशनी   हो    उधर  ढूंढते   हैं  !

                                                                         (2015)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन; परिंदे: पक्षी; ख़ला: निर्जन स्थान; शजर: वृक्ष; दहक़ां: कृषक; दहशतों: भयों; पुलिंदे: गट्ठर; फ़क़त: मात्र; 
नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता; स्याह: कृष्ण;   सह् र: उष:काल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; गवारा: स्वीकार; ग़ुस्ताख़ियों: ढीठताओं; मग़फ़िरत: मोक्ष;  इदारा: संस्थान; शरीक़े-सफ़र: सहयात्री; तीरगी:अंधकार।




गुरुवार, 6 अगस्त 2015

सरकार से ख़ुश !

निगाहे-यार    से   ख़ुश  हैं
नज़र  के  वार  से  ख़ुश  हैं

शहर   के  लोग     दीवाने
नए  बाज़ार  से    ख़ुश  हैं

मकीं  बेज़ार  हैं   ख़ुद  से
दरो-दीवार  से    ख़ुश  हैं

वो  अपनी  फ़त्ह  से  ज़्यादा
हमारी  हार  से  ख़ुश  हैं

फ़क़ीरी  के  दिनों  में  हम
ख़्याले-यार  से  ख़ुश  हैं

मियां  की   सादगी   देखो
कि  बस  दस्तार  से  ख़ुश  हैं

ज़माने-भर   के    बे- ईमां
तेरी  सरकार  से  ख़ुश  हैं !

                                                                 (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मकीं: मकान में रहने वाले; बेज़ार: व्यथित; दरो-दीवार: द्वार एवं भित्ति; फ़त्ह: विजय; फ़क़ीरी: सन्यास, भिक्षुक-वृत्ति; 
ख़्याले-यार: प्रिय/ईश्वर का ध्यान; सादगी: निस्पृहता; दस्तार: पगड़ी/बड़ा पद; बे- ईमां: भ्रष्टाचारी। 

सोमवार, 3 अगस्त 2015

दिल मुलाज़िम नहीं...

हम पे  अक्सर  क़ुसूर  आता  है
तिश् नगी   में   सुरूर  आता  है 

आजकल हर बहार का  मौसम
इस  मोहल्ले  से  दूर  आता  है

और कुछ आए या नहीं उनको
दिल  जलाना  ज़ुरूर  आता  है

है अभी  उम्र  पर  निकलने की
देखिए,  कब   शऊर   आता  है

शाह  है तो बिठाएं क्या सर पर
क्या  हमें  कम  ग़ुरूर  आता है

दिल मुलाज़िम नहीं  रईसों का
सब्र    रखिए  हुज़ूर    आता  है

दौड़     आते   हैं    आस्मां  वाले
जब  अक़ीदत  पे  नूर  आता  है !

                                                                           (2015)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अक्सर: अधिकांशतः; क़ुसूर: दोष, आरोप; तिश् नगी: तृष्णा; सुरूर: उन्माद; पर: पंख; शऊर: ढंग, समझ; ग़ुरूर: घमंड; मुलाज़िम: सेवक; रईसो: समृद्धों; सब्र: धैर्य; हुज़ूर: श्रीमान; आस्मां वाले: आकाशीय लोग, देवता गण; अक़ीदत: श्रद्धा, आस्था; नूर: तेज, प्रकाश, संबोधि।

रविवार, 2 अगस्त 2015

ग़ज़ल की ज़रूरत

सर  है  तो   इंक़िलाब  है,  दिल  है    तो  दास्तां
खोने  को  कुछ  नहीं  है  तो  पाने  को  दो-जहां

क़ातिल    हैं   इक़्तिदार   में   सूली  पे   बेगुनह
मज़लूम  का    नसीब     संवरता    नहीं    यहां

क्या  ख़ूब   शाह  ने   अवाम  को    दिया  सिला
खाने  को    रोटियां  हैं    न  रहने  को  आशियां

आ'ला   वज़ीर    से      न     ज़ायचा    मिलाइए
अल्लाह    मेह्रबां    तो   गधा   भी    है   पहलवां

उस   दौर   में    ग़ज़ल  की   ज़रूरत   कहां  रही
इंसाफ़   की   तलाश   मुकम्मल   न     हो  जहां

लो    ले   चलीं    हवाएं    उड़ा   कर    हमें  कहीं
गुल  बन  के    मुस्कुराएंगे   शायद   यहां  वहां

राहों   में    वादियों   में      ख़ला   में    बहार  में
हर  सिम्त   तू  ही  तू  है   कि   ढूंढें   तुझे  कहां !

                                                                                        (2015) 

                                                                               - सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इंक़िलाब: क्रांति; दास्तां: आख्यान, कथा; दो-जहां: इहलोक-परलोक, दोनों संसार; इक़्तिदार: सत्ता; बेगुनह: निरपराध; 
मज़लूम: अत्याचार-पीड़ित; नसीब: प्रारब्ध; अवाम: जन-साधारण; आशियां: घर; आ'ला: मुख्य, उत्तम; वज़ीर: मंत्री; ज़ायचा: जन्म-कुंडली; मेह्रबां: कृपालु; पहलवां: मल्ल;  दौर: काल खंड; इंसाफ़: न्याय; मुकम्मल: संपूर्ण; गुल: पुष्प; वादियों: घाटियों; ख़ला: एकांत, निर्जन; 
सिम्त: ओर।

रविवार, 26 जुलाई 2015

ग़म के इश्तिहार...

मुजरिम   नक़ब  लगा  के  जहांदार  हो  गए
हर   सिम्त  इंक़िलाब   के  आसार   हो  गए

मिल जाए माले-मुफ़्त मियां को  किसी  तरह
रहबर  न  बन  सके  तो  रज़ाकार  हो   गए

मासूमियत  की   आज   इंतेहा  ही  हो  गई
सर  काट  कर   जनाब   अज़ादार  हो  गए 

फ़िक्रे-जम्हूर  थी  कि  मफ़ायद  निगाह  में
अख़बार    बादशाह  के    मुख़्तार   हो  गए

लिख-लिख के  दिल पे नाम  मिटाते रहे हसीं
आशिक़  शदीद  ग़म  के  इश्तिहार  हो  गए

वो  ईद  के  दिन  हमसे  बग़लगीर  क्या  हुए
दस  लोग  ख़ुदकुशी   को  भी  तैयार  हो  गए

ज़िद  थी  तो  खैंच  लाए  उन्हें  कोहे-तूर  पर
गो    वादिए-सीन:   के   गुनहगार   हो  गए !

                                                                                    (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुजरिम: अपराधी; नक़ब: सैंध; जहांदार: बादशाह, शासक;  सिम्त: ओर; इंक़िलाब: क्रांति; आसार: संकेत, संभावना; माले-मुफ़्त: बिना मूल्य की वस्तुएं; रहबर: नेता; रज़ाकार; स्वयंसेवक; मासूमियत: अबोधता; इंतेहा: अति; अज़ादार: शोक मनाने वाले; फ़िक्रे-जम्हूर: लोकतंत्र की चिंता;   मुख़्तार: प्रवक्ता; हसीं: सुंदर व्यक्ति; आशिक़: प्रेमी; शदीद: तीव्र, अत्यधिक; इश्तिहार: विज्ञापन; बग़लगीर होना: पार्श्व में आना, गले मिलना; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; कोहे-तूर: मिस्र के साम क्षेत्र में सीना नामक घाटी में स्थित मिथकीय पर्वत, मिथक है कि वहां हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा का प्रकाश देखा था।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

रोग बढ़ जाए तो ...

साफ़   छुपते  भी  नहीं   सामने  आते  भी  नहीं
दिल  चुराते  हैं  तो  कमबख़्त  बताते  भी  नहीं

आपका    दांव  लगे    आप   उड़ा  लें  दिल  को
हम  गई  चीज़  का कुछ  सोग़ मनाते  भी  नहीं

आप  रूठें   तो  ज़माने  को   उठा  लें    सर  पर
हम  जो  रूठें    तो  कई  रोज़   मनाते  भी  नहीं

एक  तो    दर्द    उठा  लाएं    ज़माने     भर  के
रोग  बढ़  जाए  तो  यारों को  दिखाते  भी  नहीं

सिर्फ़   जुमलों   से   चलाते  हैं    हुकूमत   सारी
झूठ  खुल जाए  तो  अफ़सोस  जताते भी  नहीं

वाज़  करते  हैं   फ़राइज़  पे   भरी  महफ़िल  में
कोई  गिर जाए  सड़क पर  तो  उठाते  भी  नहीं

दम  ब  दम   कुफ़्र  का    इल्ज़ाम    हमें  देते  हैं
फिर  सही  वक़्त  अज़ां   दे  के  बुलाते  भी  नहीं !

                                                                                             (2015)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमबख़्त: अभागे; सोग़: शोक; जुमलों: वाक्यों, खोखली बातों; हुकूमत: शासन; अफ़सोस: खेद; वाज़: प्रवचन, उपदेश; फ़राइज़: कर्त्तव्य (बहु.); महफ़िल: सभा; दम  ब  दम: हर सांस में; कुफ़्र: अधर्म, आस्थाहीनता; इल्ज़ाम: आरोप, दोष।

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

नफ़ासत का फ़र्क़...

औरों  में  और  हम  में  तबीयत  का  फ़र्क़  है
अंदाज़े-गुफ़्तगू  का   तरबियत  का  फ़र्क़  है

वो  शाह  हम  फ़क़ीर  वो  बेज़ार  हम  मलंग
देखी-सुनी-निभाई    हक़ीक़त    का  फ़र्क़  है

हम  दिल में  जा बसे वो  लबे-चश्म  रह  गए
उस्तादो-ख़लीफ़ा  की  हिदायत  का  फ़र्क़  है

मिलते  हैं  हमसे वो  तो सुलगते  हैं  दो  जहां
कुछ है कहीं तो दिल की  हरारत  का  फ़र्क़  है

कहते   हैं   कई   लोग   हमारी   तरह   ग़ज़ल
बस   तर्ज़े-बयां  और  नफ़ासत  का   फ़र्क़  है

है  शुक्र    कि  किरदार  पे    स्याही  नहीं  पड़ी
मां-बाप  की   दुआ-ओ-नसीहत  का   फ़र्क़  है

सुनता है  मुअज़्ज़िन की मौलवी से क़ब्ल  वो
आदाबे-बंदगी-ओ-मुहब्बत       का   फ़र्क़   है !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तबीयत: स्वभाव, प्रकृति; फ़र्क़: भेद, अंतर; अंदाज़े-गुफ़्तगू: वार्त्ता-शैली; तरबियत: शिक्षा-दीक्षा, संस्कार; फ़क़ीर: सन्यासी; बेज़ार: सदा अप्रसन्न; मलंग: हर स्थिति में प्रसन्न रहने वाला, सांसारिक चिंताओं से मुक्त;   हक़ीक़त: यथार्थ; लबे-चश्म: आंख की कोर तक; उस्तादो-ख़लीफ़ा: गुरु जन और ईश्वर के दूत/हज़रत मुहम्मद साहब स.अ.व. के उत्तराधिकारी; हिदायत: निर्देश, आप्त वचन; 
दो जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; हरारत: ऊष्मा;   तर्ज़े-बयां: वर्णन-शैली; नफ़ासत: सुगढ़ता; शुक्र: धन्यवाद; किरदार: चरित्र, व्यक्तित्व; स्याही: कालिमा, कलंक; दुआ-ओ-नसीहत: शुभकामना और सीख; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मौलवी: धार्मिक शिक्षक, ब्रह्म-ज्ञानी; क़ब्ल: पूर्व; आदाबे-बंदगी-ओ-मुहब्बत: पूजा और प्रेम की नियमावली ।